नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता के रूप में उभर रहे हैं। उन्हें भारतीय जनता पार्टी और भारत के उद्धारक के रूप में पेश किया जा रहा है। सवाल उठता है कि उन्होंने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में अपनी पूरी ताकत क्यों नहीं झोंकी? वहां भारतीय जनता पार्टी के सामने हार का खतरा बना हुआ है। ऐसी स्थिति में उसे एक उद्धारक की जरूरत थी, पर मोदी ने आखिर वहां भाजपा का उद्धारक बनने से अपने आपको क्यों रोके रखा? क्या इसका कारण यह तो नहीं था कि मोदी को कर्नाटक से कुछ हासिल होने वाला नहीं था, बल्कि वहां अपनी प्रतिष्ठा गंवाने का ही डर था? नरेन्द्र मोदी को यह पता है कि उन्हें कब अपने आपको प्रोजेक्ट करना है और कब प्रोजेक्ट होने से बचना है। उन्हें लग गया कि कर्नाटक वह जगह नहीं है, जहां उन्हें ज्यादा दिखाई पड़ना चाहिए। वे यह संदेश नहीं देना चाहते थे कि कर्नाटक में मोदी का जादू नहीं चला।
सवाल उठता है कि कर्नाटक में मोदी के पास करने के लिए था ही क्या? वे वहां क्या बोलते? क्या वे वहां भी गुजरात के विकास माॅडल की चर्चा करते? वहां तो सरकार ही भाजपा की है और विकास की कमी वहां का मुख्य चुनावी मुद्दा है। क्या वह वहां कांग्रेस के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते? कर्नाटक में तो खुद भाजपा के नेताओं पर भ्रष्टाचार के एक से एक गंभीर आरोप लगे हैं। भ्रष्टाचार के कारण भाजपा के एक मुख्यमंत्री को इस्तीफा तक देना पड़ा और वे पूर्व मुख्यमंत्री पार्टी से बाहर जा चुके हैं। क्या वे वहां हिंदुत्व की चर्चा करते? यह उन्हें पता है कि पिछले दिनों शहरी निकायों के चुनाव में हिंदुत्व का मसला पिट गया। भाजपा के गढ़ समझे जाने वाले तटीय इलाकों में भी पार्टी के उम्मीदवार पिट गए।
कर्नाटक के लोग भाजपा सरकार से ऊब चुके हैं और वे इससे छुटकारा पाना चाहते हैं। बंगलुरु कभी गार्डेन सिटी थी। अब वह एक गार्बेज सिटी बन गई है। भाजपा शहरों सहित अनेक इलाको ंमें अपना आधार खो चुकी है। यदुरप्पा द्वारा अलग होकर एक नई पार्टी बनाने से भी भाजपा को जबर्दस्त नुकसान हुआ हैं। प्रभावशाली मठों के मठाधीश भी अब इसके साथ नहीं रहे। यदुरप्पा के स्तर का कोई नेता वहां पार्टी के पास नहीं है। पार्टी के अंदर भयानक गुटबाजी चल रही है।
वहां कांग्रेस बेहतर स्थिति में है। वह वहां की सबसे ताकतवर विपक्षी पार्टी है। भाजपा के नुकसान का फायदा उसे ही होना है। यही कारण है कि कांग्रेस के स्थानीय नेता अपनी सरकार के गठन के प्रति आश्वस्त हैं। जीत के प्रति इस आशावादिता के बीच उन्हें राहुल से प्रदेश के लिए ज्यादा समय दिए जाने की उम्मीद थी। उन्हें लग रहा था कि जिस तरह से राहुल ने बिहार और उत्तर प्रदेश में पार्टी के लिए प्रचार किया, उसी तरह कर्नाटक में भी प्रचार करेंगे और लंबे रोड शो का आयोजन भी करेंगे। पर राहुल के कंप्यूटरवाले दोस्तों ने उस प्रस्ताव का खारिज कर दिया। उन्होंने देखा था कि बिहार और उत्तर प्रदेश में राहुल द्वारा प्रचार में पूरा जोर लगा देने के बाद भी कांग्रेस की स्थिति खराब हो गई थी। जाहिर है, उन्हें डर लग रहा था कि राहुल के ज्यादा प्रचार से पार्टी की स्थिति कहीं कमजोर न हो जाय और उसका फायदा भाजपा न ले जाय।
कांग्रेस राहुल बनाम मोदी की लड़ाई से भी बचना चाहती है। वह नहीं चाहती कि राहुल और मोदी के बीच लोग तुलना करें। यदि कर्नाटक में कांग्रेस जीत भी ले, तो भी राहुल को वहां लगाना इसलिए खतरे से खाली नहीं था, क्योंकि तब कुछ महीने बाद होने वाले छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में भी चुनाव होने वाले हैं, जहां कांग्रेस खस्ताहाल में है। यदि राहुल को कर्नाटक में झोंका जाता है, तो फिर उन्हें इन राज्यों में भी झोकना पड़ेगा और हार के कारण राहुल को किरकिरी का सामना करना पड़ेगा। और कांग्रेस नहीं चाहती कि लोकसभा चुनाव के पहले राहुल गांधी की किसी विधानसभा में हार के लिए किरकिरी का सामना करना पड़े। (संवाद)
कर्नाटक चुनाव में मोदी और राहुल नरम रहे
लोकसभा चुनाव के पहले वे अपनी प्रतिष्ठा को दाव पर नहीं लगाना चाहते
कल्याणी शंकर - 2013-05-04 00:05
कांग्रेस क उपाध्यक्ष राहुल गांधी और भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेता नरेन्द्र मोदी भी कर्नाटक विधानसभा में चुनाव प्रचार कर रहे हैं, पर दोनों के प्रचार में एक समानता है। वह समानता यह है कि दोनों ने इस प्रचार में अपने आपको पूरी तरह झोंकने से परहेज कर रखा है। पहले उम्मीद की जा रही थी कि कर्नाटक नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के बीच सघर्ष की भूमि बनेगी। आगामी लोकसभा में मोदी बनाम राहुल की लड़ाई की शुरुआत कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में तय मानी जा रही थी। पर दोनों नेताओ ने इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा की लड़ाई बनाने से लगातार परहेज रखा।