नतीजों की चुभन लालू यादव भी महसूस कर रहे होंगे, जो कुछ सीटें हासिल कर केन्द्र की सरकार और कांग्रेस के सामने अपना कद ऊंचा करने का सपना देख रहे थे। झारखंड ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी निराश किया है, जिनकी पार्टी को भाजपा के समर्थन के बावजूद महज दो सीटें ही हासिल हुई।
भारतीय जनता पार्टी के लिए तो यह चुनाव परिणाम वज्रपाती पैगाम लेकर आया है। एक के बाद एक मिल रही शिकस्त के बीच झारखंड से भाजपा को बहुत ही उम्मीदें थीं। पिछले विधानसभा चुनाव में इसे 31 सीटों पर विजय हासिल हुई थी और अपने सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) के साथ यह 36 विधानसभा क्षेत्रों के प्रतिनिधित्व करने का दावा कर सकती थी। अपनी ताकत के कारण ही वह दो साल तक झारख्रड में अपनी सरकार चला पाई थी।
पिछले लोकसभा चुनाव में भी यहां भाजपा को ही सफलता मिली थी। उसने 14 में से 12 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा किए थे और 8 पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस को मात्र 1 सीट पर संतोष करना पड़ा था और झारखंड मुक्ति मोर्चा को मात्र 2 सीटें मिली थीं। लोकसभा में मिली उस सफलता के कारण भाजपा यह सोच भी नहीं सकती थी कि इस चुनाव में उसका यह हश्र होगा।
कोड़ा प्रकरण का लाभ भी मुख्य रूप से भाजपा को ही मिलना था, क्योंकि मधु कोड़ा सरकार भाजपा की अर्जुन मुंडा सरकार को गिराकर बनाई गई थी और उस सरकार को कांग्रेस, लालू और शोरेन का समर्थन हासिल था। कोड़ा के दलदल में भाजपा के सभी विरोधी फ्रसे हुए थे और उसका फायदा सिर्फ भाजपा ही उठा सकती थी। भाजपा ने वह फायदा उठाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन उसकी कोशिशें उसे सफलता की मंजिल पर पहुंचा नहीं सकी।
आखिर भाजपा के साथ मई महीने के बाद ऐसा क्या हो गया कि उसे ऐसी करारी हार मिली? एक कारण तो उसके द्वारा जनता दल (यूनाइटेड) के साथ किया गया गठबंधन हो सकता है। उसने 14 सीटें अपने सहयोगी के लिए छोड़ दी थी। उसके सहयोगी ने मात्र दो सीटों पर जीत हासिल की। यदि उन सब पर भाजपा के अपने उम्मीदवार होते तो जीत का अनुपात निश्चय ही ज्यादा होता, क्योंकि झारखंड में न तो जद(यू) का कोई वजूद है और न ही उसके पास चुनाव लड़ने के काबिल अच्छे उम्मीदवार। झारखंड के प्रदेश स्तरीय नेताओं ने तो अपनी तरफ से उस गठबंधन की बिदाई भी कर दी थी, लेकिन राष्ट्रीय नेताओं ने स्थानीय नेताओं की इच्छा के खिलाफ जाकर ज्यादा सीटें जद(यू) के लिए छोड़ दी और उसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा।
भाजपा की खस्ता हालत के लिए नरेन्द्र मोदी का फैक्टर भी जिम्मेदार है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की सफलता के पीछे नरेन्द्र मोदी का बड़ा हाथ था। यशवंत सिन्हा जैसे भाजपा उम्मीदवारों ने नरेन्द्र मोदी को 2014 का अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करके ही अपनी जीत सुनिश्चित की थी। श्री मोदी झारखंड में भाजपा के सबसे करिश्माई नेता हैं। लेकिन भाजपा ने उनका पूरा इस्तेमाल इस चुनाव में नहीं किया। नीतीश कुमार ने यहा्र 7 दिन प्रचार किए, रमण सिंह ने 4 दिन, जबकि नरेन्द्र मोदी को मात्र दो दिनों ते ही झारखंड के मोर्चे पर प्रचार के लिउ लगाया गया। यदि उन्हें एक सप्ताह तक चुनाव प्रचार में लगाया जाता, तो भाजपा को झारखंड में इतने बुरे दिन नहीं देखने पड़ते।
कांग्रेस भी झारखंड के चुनावी नतीजो पर उत्सव नहीं मना सकती। उसकी सीटें 9 से बढ़कर 14 हो गई हैं, लेकिन उसके सभी नेता चुनाव हार गए हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव हार गए। विधानसभा में कांग्रेस के नेता भी हारे और जिस विधायक को कांग्रेस ने विधानसभा का स्पीकर बना रखा था, उनकी भी हार हो गई। कांग्रेस की सीटों में यह वृद्घि दो कारणों सक हुई है। पहला कारण तो यह है कि इस बार कांग्रेस ने पिछले चुनाव की अपेक्षा ज्यादा उम्मीदवार खड़ किए थे। इस बार 62 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थें, जबकि पिछली दफा 40 सीटों पर इसके उम्मीदवार खड़े हुए थे। ज्यादा उम्मीदवारों के कारण ज्यादा जीत अपने आप में सूनिश्चित नहीं होती लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस को बाबूलाल मरांडी का समर्थन हासिल था।
बाबूलाल की पार्टी 19 सीटों से चुनाव लड़ रही थी, क्योंकि कांग्रेस ने उनके लिए उतनी ही सीटें छोड़ी थी। उनमें से 11 पर उनके उम्मीदवारों को जीत मिली, जबकि कांग्रेस के 62 में से मात्र 14 ही जीते। कांग्रेस की जीत का अनुपात बाबूलाल की पार्टी की जीत के अनुपात से कम होने का क्या मतलब हो सकता है? इसका यही मतलब हो सकता है कि बाबूलाल वहां ज्यादा मजबूत हैं और उनकी मजबूती का कांग्रेस ने फायदा उठाया। यानी यदि कांग्रेस को जो पहले से थोड़ी ज्यादा सफलता मिली है, वह उसकी अपनी ताकत के बदौलत नहीं, बल्कि बाबूलाल मरांडी की ताकत के बदौलत। इसलिए कांग्रेस को किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि उसने इस चुनाव में झारखंड का कोई मोर्चा फतह किया है।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के लिए भी झारखंड का यह चुनाव परिणाम किसी दुःस्वप्न से कम नहीं है। पिछली विधानसभा में उनकी पार्टी को 7 सीटें मिली थीं, लेकिन उसके बूते उन्हांेने अपने आपको किंगमेकर बना डाला। यह उनकी 7 सीटों का ही करिश्मा था कि उन्होंने अर्जुन मुंडा की भाजपा सरकार को गिराकर मधुकोड़ा की सरकार का गठन करवा दिया। इस बार उन्होंने सोचा था कि रामविलास की पासवान की पार्टी और वामपंथियों के साथ मिलकर वे ज्यादा सीटें हासिल कर लेंगे और कांग्रेस के नेतृत्व में बनी किसी सरकार के लिए वैशाखी की भूमिका में आकर केन्द्र सरकार पर भी अपनी धौंस चला लेंगे। पर न केवल उनकी सीटें घट गई हैं, बल्कि चुनाव के बाद बने राजनैतिक समीकरणों में उनके फिट होने की संभावना ही नहीं रह गईं। शोरेन, मरांडी और कांग्रेस यदि एक हो जाएं तो फिर लालू की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती।
झारखंड की मौजूदा राजनैतिक स्थिति में मरांडी, सोरेन और काग्रेस मिलकर ही उक स्थाई सरकार दे सकते हैं। इनमें सबसे बड़ी पार्टी श्री सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा है। जाहिर है, मुख्यमंत्री पद के लिए श्री सोरे का दावा सबसे ज्यादा मजबूत है। बाबूलाल मरांडी को श्री सोरेन के मुख्यमंत्री बनने पर शायद ही कोई एतराज हो, पर क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार होगी? इस सवाल के जवाब में ही झारखंड की राजनैतिक अस्थिरता का हल छिपा है। (संवाद)
भारत: झारखंड के चुनाव परिणाम
राष्ट्रीय पार्टियों को मतदाताओं ने ठुकरा दिया
उपेन्द्र प्रसाद - 2009-12-24 13:27
झारखंड विधानसभा के चुनाव नतीजे यदि भारतीय जनता पार्टी के एक बड़ा सदमा है, तो इसने कांग्रेस को भी निराश ही किया है। यदि कोई इस चुनाव के बाद अपनी पीठ थपथपा सकता है तो वे या तो झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन हैं और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी।