पर अब शारधा कांड ने ममता बनर्जी के सामने पहला सबसे बड़ा संकट पेश किया है और वामपंथी अब अपना मुह केवल खोल ही नहीं सकते हैं, बल्कि उनकी बातों को लोग अहमियत भी देंगे। इसका कारण यह है कि शारधा घोटाले से प्रदेश के वे लोग जुड़े हैं, जिनका सीधा तालुकात तृृणमूल कांग्रेस से है। जिन लोगों को शारधा चिट फंड के द्वारा लूटा जा रहा था, वे मुख्य तौर से तृणमूल कांग्रेस के ही समर्थक हैं और जो लोग लूट में शामिल थे अथवा लुटेरों का साथ दे रहे थे, उनमें भी ज्यादातार तृणमूल कांग्रेस के ही हैं।

शारधा का यह कांड ममता बनर्जी के सत्ता में आने के बाद को कोई पहला बड़ा कांड नही है। सच तो यह है कि सत्ता में आने के बाद पश्चिम बंगाल में अनेक ऐसे ऐसे कांड हुए, जिनके कारण ममता बनर्जी को खासी परेशानी उठानी पड़ी थी। एक बड़ा मसला तो सिंगूर को लेकर ही था, जहां मुख्यमंत्री ने गड़बड़ी कर दी और उस गड़बड़ी के कारण सिंगूर की जमीन किसानों को लौटाने का उनका वादा पूरा नहीं हो सका। उन्होंने जो अध्यादेश पारित करवाए थे, वह न्यायपालिका की कसौटी पर खरा नहीं उतरा। उसके कारण ममता सरकार की फजीहत तो हुई, लेकिन फिर भी उससे उनकी लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा। शहर केन्द्रिता अनेक गड़बडि़यां हुईं, पर ममता का ग्रामीण जनाधार उससे प्रभावित नहीं हुआ। कई अस्पतालों की अव्यवस्थाएं और कुव्यवस्थाएं सामने आई, फिर भी ममता बनर्जी का जनाधार अपनी जगह पर कायम रहा।

ल्ेकिन शारधा चिट फंड के घोटाले ने पहली बार ममता बनर्जी के जनाधार को हिलाने का काम किया है। इसके सामने आने के बाद ममता के सामने राजनैतिक चुनौतियां बढ़ गई है। इसने विपक्षी वामपंथी को उनके खिलाफ आक्रामक होने का मौका दे दिया है। आखिर शारधा घोटाले में ऐसा क्या है कि ममता बनर्जी हिली हुई दिखाई पड़ रही हैं?

शारधा ग्रुप द्वारा की गई जालसाजी अपने किस्म की कोई पहली जालसाजी नहीं है। पश्चिम बंगाल में ऐसी ऐसी जालसाजियां पहले भी हो चुकी हैं। जब वामपंथी दलों की सरकार सत्ता में आई थी, तो उसके कार्यकाल की शुरुआत में ही संचयिता घोटाले का पर्दाफाश हुआ था और प्रदेश के घर घर में उसकी चर्चा थी। उसमें संचयिता के मालिकों ने जमाकत्र्ताओं को करोड़ों अरबों रुपयों का चूना लगा दिया था। उससे निम्न और निम्न मध्यम वर्ग के लोग ही प्रभावित हुए थे। तब उस समय वामपंथी सरकार के मुख्यमंत्री थे अशोक मित्र। उन्होंने बड़े शान से कहा था कि अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी और जिनका नुकसान हुआ है, उनकी भरपाई की जाएगी। उन्होंने लोगों के पैसे वापस दिलवाने के लिए एक समिति का भी गठन किया, लेकिन उनके वायदे पूरे नहीं हो सके। दो दशक के बाद जब वामपथी दलों की ताकत घट रही थी और वह सत्ता से बाहर होती दिखाई दे रही थी, तो फिर संचयिता जैसे जालसाजों ने अपने पांव फैलाने शुरू कर दिए। तब तक अशोक मित्र भी सरकार से बाहर हो चुके थे। शारधा ग्रुप जैसे जालसाजों के प्रसार को रोकने में तब वामपंथी सरकार ने दिलचस्पी भी नहीं दिखाई, क्योंकि वह खुद को बचाने में लगी हुई थी और उसकी प्राथमिकता भी बदल गई थी। शायद चिट फंड का यह धंधा उसे बहुत गंदा भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। उन्होंने इस तरह के घंधे को प्रोत्साहन तो नहीं दिया, लेकिन इस पर अंकुश लगाने का भी कोई काम नहीं किया।

इस सबका असर यह हुआ कि चिटफंड का धंधा यहां चलता रहा और ममता के सत्ता मंे आने के बाद तो इस घंधे के घंधेबाजों को पंख लग गए। आरबीआई के एक आकलन के अनुसार 2012 में इस धंघे के कारण करीब 65 हजार करोड़ रुपये लोगों के जमा किए गए। इस धंधे के कारण डाकघरों और लघु बचत की अन्य सरकारी योजनाओं पर भारी असर पड़ा, क्योकि उन योजनाओ ंसे पैसे निकालकर लोग इस तरह के चिट फंड में लगा रहे थे, क्योंकि इसमें उन्हें भारी रिटर्न मिलने का सब्जबाग दिखाया जा रहा था। एजेंटों को 30 फीसदी तक कमीशन मिल रहा था। तृणमूल के अनेक स्थानीय नेता एजेंट बन गए और उन्होंने तृणमूल के समर्थकों एवं कार्यकत्र्ताओं की राशि को भारी पैमाने पर जमा करवा दिया।

अब जब कंपनी डूब गई है, तो लोगों के पैसे भी डूब गए। करीब 16 हजार करोड़ की रकम उन लोगों की डूबी, जो दैनिक मजदूरी तक किया करते थे और जिन्हें निम्न आय वर्ग का कहा जा सकता है। अब वे तृणमूल के एजेंट नेताओ ंसे अपना पैसा मांग रहे हैं, जो वे दिलवा नहीं सकते। अब एजेंट आत्महत्या करने पर उतारू हो गए हैं। वे आत्महत्या कर भी रहे हैं। हजारों एजेंट अपने घरों से भागे हुए हैं।

ममता बनर्जी से 5 सौ करोड़ रुपये का एक कोष तैयार किया है, जिससे पीडि़तों को राहत दिलाने की बात की जा रही है। लेकिन यह राशि बहुत कम है। जाहिर है, इस समस्या का कोई समाधान ममता बनर्जी के पास नहीं है। आगामी पंचायत चुनावों में उनकी पार्टी का इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। (संवाद)