दिग्चिजय सिंह द्वारा दो सत्ता केन्द्र के माॅडल के खिलाफ बोलने के बाद सोनिया गांधी की करीबी और विश्वस्त जनार्दन द्विवेदी ने श्री सिंह की बात का खंडन कर डाला और कहा कि सोनिया और मनमोहन सिंह के बीच सत्ता के दो केन्द का माॅडल न केवल सफल रहा है, बल्कि आने वाले दिनों में लिए यह एक उदाहरण भी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी दक्षिण अफ्रीका से लोटते हुए पत्रकारों से बातचीत करते हुए अपनी सरकार के तीसरे कार्यकाल के विकल्प को बंद नहीं किया।

ठस तरह के बयानों से साफ पता लग रहा था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सितारे बुलंदी पर हैं और कांगेस के अंदर उनका फिलहाल कोई विकल्प नहीं है। लेकिन एकाएक उनका पतन हो गया। उनका पतन इतनी तेजी से हुआ कि उससे किसी को भी आश्चर्य हो सकता है। ऐसा प्रधानमंत्री की खुद की की अपनी गलती से ही हुआ। कानून मंत्री अश्विनी कुमार और रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के कारनामे सामने आने के बाद उनका इस्तीफा जल्द से जल्द ले लिया जाना चाहिए था। पर उसमें काफी देर की गई। उस देरी के कारण मनमोहन सिंह की अपनी प्रतिष्ठा मारी गई। संदेश गया के ये दोनों प्रधानमंत्री के खास चहेते थे और मनमोहन सिंह ने दोनों को बचाने के लिए अंत अंत तक कोशिशें जारी रखीं।

दो बदनाम हो रहे मंत्रियों को बचाने की जिद मनमोहन सिंह को भारी पड़ी। अश्विनी कुमार पर आरोप लग रहा था कि वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सीबीआई जांच से बचाने की कोशिश कर रहे थे और वैसे करते हुए पकड़े गए। विपक्ष द्वारा इस्तीफे की मांग पर अड़ने के बावजूद मनमोहन सिंह उन्हें अपनी सरकार से हटाने के लिए तैयार नहीं थे और वे दिखाना चाहते थे िकवे दोनों मंत्री निर्दोष हैं। वे दोनों मंत्री निर्दोष तो सािबत हो नहीं सके हैं, हां, मनमोहन सिंह खुद अपनी ईमानदारी को दाव पर लगा बैठे। उसके कारण यह संदेश गया है कि प्रधानमत्री खुद भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और अपने दोनों मत्रियों को बचाने का प्रयास कर दरअसल पधानमत्री अपना बचाव करना चाह रहे थे।

एक समय था जब कहा जाता था कि मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर कोई शक नहीं कर सकता। जब चैतरफा भ्रष्टाचार की खबरें आ रही थीं, तब भी मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर कोई शक नहीं कर सकता था। जब मनमोहन सिंह ए राजा जैसे मंत्री को हटाने में झिझक दिखा रहे थे, तब भी मनमोहन सिंह को ईमानदार बताया जाता था। पर आज स्थिति बदल गई है। रेल मंत्री और कानून मंत्री से संबधित मामलों ने प्रधानमंत्री ईमानदार छवि क चिथड़े चिथड़े कर डाले हैं। अब यदि कोई ईमानदार कहे तो सामने वाला उस पर हंसे बिना नही ंरह सकते।

प्रधानमंत्री की बनी नई छवि ने उनका भारी नुकसान कर डाला है। अब उन्हें यूपीए 3 सरकार के प्रमुख के रूप में कोई नहीं देखता। ज्यादा से ज्यादा वे 2014 लोकसभा चुनाव तक देश के प्रधानमंत्री रह सकते हैं। पर सवाल उठता है कि उसके बाद क्या होगा?

एक नाम तो राहुल गांधी का आता है, कांग्रेस के स्वाभाविक नेता माने जाते हैं। लेकिन क्या राहुल प्रधानमंत्री बनने की परिपक्वता प्राप्त कर चुके हैं,? सचाई तो यह है कि राहुल ने अभी तक अपने आपको साबित नहीं किया है। अनेक महत्वपूर्ण मसलों पर उनकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। सच तो यह है कि अधिकांश मसलों पर उनका रुख साफ ही नहीं है। राजनीति की एक लंबी पारी खेल लेने के बाद भी उन्हें अपरिपक्व माना जाता है। इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं। सोनिया गाधी भी उन्हें आगे लाना चातिी हैं और पूरी कांग्रेस भी, लेकिन राहुल गांधी का खुद का अपना व्यक्तित्व उनके बारे में लोगों की राय पक्की होने नहीं देता।

सोनिया गांधी भी नहीं चाहेंगी कि राहुल गांधी ऐसे समय में प्रधानमंत्री बनें, जब कांग्रेस की स्थिति बहुत ही दयनीय हो गई हो, और चारों तरफ चुनोतियों का पहाड़ खड़ा हो गया हौ। तो फिर क्या मनमोहन सिंह का स्थान पी चिदंबरम लेंगे? श्री चिदंबरम इस तरह की अटकलबाजी का पहले की खंडन कर चुके हैं, पर वे इसके अलावा कर ही क्या सकते? उनसे उम्मीद तो यह नहीं की जा सकती कि वे प्रधानमंत्री बनने की खुली घोषणा करने लगें। लेकिन आज देश के सामने जो आर्थिक चुनौतिया ं हैं, उनका हल यदि कोई कांग्रेसी कर सकता है, तो श्री चिदंबरम ही कर सकते हैं। यही कारण है कि देश के भावी प्रधानमंमंत्री के रूप मे देखा जा सकता है।(संवाद)