पार्टी के अंदर बात चली थी कि श्री मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया जाय और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारी के मामले को फिलहाल लटका कर रखा जाय। कहते हैं कि नरेन्द्र मोदी ने भी इस समिति के अध्यक्ष बनने के इस प्रस्ताव पर सहमति व्यक्त कर दी थी। पर लालकृष्ण आडवाणी ने नितिन गडकरी को बताया कि उन्होंने पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष पद पर उन्हें (गडकरी को) नियुक्त करने की सिफारिश की है। जिस गडकरी को आडवाणी ने पार्टी का अध्यक्ष बनने नहीं दिया था, उसी को अभियान समिति के अध्यक्ष के उपयुक्त मानना अटपटा लग सकता है, लेकिन राजनीति के खेल में इस तरह का अटपटापन प्रायः देखने को मिलता है।

सच तो यह है कि लालकृष्ण आडवाणी नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के दावेदारी को पचा नहीं पा रहे हैं। पिछला चुनाव आडवाणी को ही उम्मीदवार बनाकर पार्टी ने लड़ा था, पर मतदाताओं ने श्री आडवाणी और भाजपा दोनों को नकार दिया। 1996 के बाद का सबसे खराब प्रदर्शन भाजपा ने आडवाणी के नेतृत्व में 2009 में किया था। उसका मुख्य कारण यह है कि मोहम्मद अली जिन्ना को सेकुलर होने का सर्टिफिकेट देकर श्री आडवाणी ने न केवल भाजपा के कार्यकत्र्ताओं को निराश किया है, बल्कि देश के अन्य लोगों को जिन्हें भारत के विभाजन के लिए और लाखों लोगों की विभाजन के समय हुई मौत के लिए जिन्ना को जिम्मेदार होने के लिए बताया जाता है, भी यह बात हजम नहीं हुई है। लालकृष्ण आडवाणी द्वारा मनमोहन सिंह पर किए गए निजी हमले को भी उस चुनाव में लोगांे ने पसंद नहीं किया था।

2009 के चुनाव में मात खाने के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी के अंदर सारी जिम्मेदारियों से अपने को मुक्त कर दिया था और अगली पीढ़ी के लिए रास्ता साफ कर दिया था। अगली पीढ़ी के नेताओं में नरेन्द्र मोदी सबसे आगे निकल गए और पार्टी के अंदर प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में उनका कोई निकट प्रतिद्वंद्वी भी नहीं रहा। कहा जाता था कि अगली पीढ़ी के नेताओं में इस पद के लिए घमासान होगा, लेकिन घमासान तो पिछली पीढ़ी के नेता लालकृष्ण आडवाणी और नरेन्द्र मोदी के बीच में ही मचा हुआ है। इस घमासान में लालकृष्ण आडवाणी की स्थिति बेहद कमजोर हैं, क्योकि एक तरफ तो उनपर पिछले चुनाव की हार का दाग लगा हुआ है, तो दूसरी तरफ सभी सर्वेक्षणों में नरेन्द्र मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में उभर रहे हैं। पिछले सप्ताह इस प्रकार के तीन सर्वेक्षण किए गए और तीनों का एक ही निष्कर्ष था और वह यह था कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के निकट देश के कोई अन्य नेता नहीं टिकता। लालकृष्ण आडवाणी तो नरेन्द्र मोदी के सामने लोकप्रियता के मामले में कहीं दिखाई भी नहीं पड़ते हैं।

इसके बावजूद लालकृष्ण आडवाणी ने हिम्मत नहीं हारी है। पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर उनका भरोसा था। उनका इस्तेमाल कर वे नरेन्द्र मोदी को रोकना चाहते थे। नीतीश कुमार बिहार की जातिवादी राजनीति की मजबूरियों के तहत नरेन्द्र मोदी के खिलाफ हैं। उनका दल बिहार में उस समय तक जिंदा है, जबतक भारतीय जनता पार्टी पर पिछड़ा वर्ग विरोधी होने का तगमा लगा हुआ है। यदि नरेन्द्र मोदी को भाजपा ने अपना नेता स्वीकार किया, तो पार्टी के ऊपर लगा हुआ यह लांक्षन समाप्त हो जाएगा और नीतीश कुमार का दल भी बिहार में अपना अस्तित्व खो बैठेगा। यही कारण है कि मोदी के उभार को नीतीश कभी स्वीकार नहीं कर सकते। पर उनके उभार को रोकने के लिए वे धर्मनिरपेक्षता को अपना हथियार बनाए हुए हैं। उन्हें आडवाणी मंजूर है, लेकिन मोदी नहीं। वे गोधरा का हवाला देते हैं, लेकिन जब गोधरा में ट्रेन जली थी और उसके बाद दंगे हुए थे, तो नीतीश खुद रेल मंत्री और आडवाणी गृहमंत्री थी। केन्द्रीय गृहमंत्री के रूप में दंगे को रोकने या न रोकने की जिम्मेदारी आडवाणी की लगभग उतनी ही थी, जितनी नरेन्द्र मोदी की। पर नीतीश मोदी को खलनायक और आडवाणी को नायक मानने पर तुले हुए हैं। आडवाणी को भी लग रहा था कि नीतीश का विरोध दिखाकर नरेन्द्र मोदी के दावे को खारिज कर दिया जाएगा और कहा जाएगा कि बिहार में चुनाव जीतने के लिए नीतीशका सहयोग जरूरी है और नीतीश का सहयोग जारी रखने के लिए मोदी की बलि जरूरी है।

पर लालकृष्ण का यह नीतीश कार्ड विफल हो गया है। बिहार की राजनीति की हकीकत यह है कि यदि नरेन्द्र मोदी को भाजपा प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करती है, तो फिर वहां उसे नीतीश की जरूरत ही नहीं रह जाती, बल्कि नीतीश से संबंध तोड़ना जरूरी हो जाता है। बिहार के भाजपा नेता इस राजनीति से अच्छी तरह से वाकिफ हैं। इसलिए वहां के अधिकांश नेता मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने और नीतीश कुमार से नाता तोड़ने की जबर्दस्त वकालत कर रहे हैं। लालकृष्ण आडवाणी के समर्थक सुशील कुमार मोदी आश्चर्यजनक रूप में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लड़ाई में नीतीश के साथ खड़ा दिखाई दे रहे थे, पर अब उन्होंने भी अब नरेन्द्र मोदी के पक्ष में अपने आपको कर लिया है। सुशील कुमार मोदी द्वारा नरेन्द्र मोदी के पक्ष में आ जाने के बाद बिहार की पुरी भाजपा अब नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ी दिखाई दे रही है। इसके साथ ही लालकृष्ण आडवाणी का नीतीश कार्ड विफल हो गया है। बिहार की राजनीति का हवाला देकर वे नरेन्द्र मोदी को उभरने से रोक नहीं सकते। सच कहा जाय तो बिहार नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का सबसे बड़ा कारण बनकर सामने आ गया है। अब यदि भाजपा को देश की तीसरी सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य की 40 सीटों में ज्यादा से ज्यादा सीटों को जीतना है, तो नरेन्द्र मोदी को आगे लाना ही होगा। एक सर्वे के अनुसार यदि भाजपा और जद(यू) अलग अलग चुनाव लड़े तो भाजपा को वहां 29 और जद(यू) को मात्र 2 सीटें मिलेंगी। यह सर्वे बिहार की राजनीति की जमीनी हकीकत के अनुरूप है।

नीतीश कार्ड विफल होने के बावजूद आडवाणी ने हार नहीं मानी है। अब वे नितिन गडकरी को मोदी के खिलाफ खड़ा करने में लगे हुए हैं। सवाल उठता है कि जिस आडवाणी के कारण श्री गडकरी दूसरी बार भाजपा अध्यक्ष नहीं बन सके, क्या उसी आडवाणी की सहायता वे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कर पाएंगे?(संवाद)