मनमोहन के अलावा गैर कांग्रेसी और नेहरु परिवार से अलग केवल अटलबिहारी वाजपेयी ने ही छः साल तक प्रधानमंत्री बने रहने का रिकाॅर्ड बनाया था। यही नहीं इंदिरा गांधी के बाद केवल मनमोहन सिंह ही ऐसे व्यक्ति हैं जो लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री पद पर कायम हुए। एक और रिकाॅर्ड इस सरकार के नाम दर्ज हो गया है। 1971 के बाद सामान्य अवस्था में कार्यकाल पूरा करने वाली किसी प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सरकार अगले आम चुनाव में वापस नहीं लौटी। गठबंधन की तो कोई भी सरकार कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और वापसी तो हुई ही नहीं। वाजपेयी की 1999 में वापसी केवल एक साल कार्यकाल के बाद सरकार के पतन के गर्भ से हुई थी और 2004 मंें समय पूर्व चुनाव में पराजित हो गई। राजीव गांधी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चुनाव के पूर्व महज दो महीने ही प्रधानमंत्री पद पर कायम रहे थे। इस तरह संप्रग सरकार एवं प्रधानमंत्री मनमोहन ंिसह का नाम कई कारणों से आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में दर्ज हो चुका है। किंतु, क्या इस सरकार की महिमा भी ऐसी ही चमकदार हैं जिन्हें बेहतर रिकाॅर्ड के रुप में याद रखी जा सके?
नौ साल पूरा होने पर सरकार की ओर से भारी भरकम खर्च करके जो इंडिया स्टोरी विज्ञापन बनी है, उसके अनुसार तो सरकार के नाम जन सेवा और देश को आर्थिक-सामजिक क्षेत्र में उंचाइयांें तक ले जाने, विदेश नीति में भारत की धाक जमाने का गर्व करने योग्य कीर्तिमान ही है। पर हकीकत तो स्वयं संप्रग के नेताओं के चेहरे पर उभरती चिंता की लकीरों और जनता के प्रश्नों का जवाब देने में हकलाहट से पता चल जाता है। सरकार ने क्या किया क्या नहीं किया या क्या करना चाहिए था जो नहीं किया .....आदि प्रश्नों पर मतभेद की गुंजाइश है। सबसे मूल तत्व किसी सरकार के नेतृत्व की महिमा है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग के साथ पहले दिन से प्रधानमंत्री की आॅथोरिटी यानी सत्ताधिकार प्रश्नों के घेरे में रहा है। पूरे देश की सोच यही है कि कांगे्रस और संप्रग की अध्यक्षा होने के नाते चाहे-अनचाहे सत्ता की बागडोर सोनिया गांधी के हाथों है। हालांकि कांग्रेस का कहना है कि सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को काम करने की पूरी आजादी दी, लेकिन देश एवं स्वयं कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता भी असली सत्ताधिकार सोनिया में ही निहित मानते हैं। हाल मंे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के लिए दिग्विजय सिंह ने यही दलील दी कि दो सत्ता केन्द्र होने से लगातार समस्याएं उत्पन्न होती रहीं हैं। जिस सरकार के नेतृत्व की महिमा कमजोर है उसका सम्मान कितना हो सकता है! सच यह भी है कि अगर मनमोहन सिंह को काम की जो भी आजादी है वह सोनिया गांधी द्वारा प्रदत्त। संविधान में कहा गया है कि प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत ही पद पर बने रहे सकते हैं, किंतु संप्रग सरकार में स्थिति दूसरी है। गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री पर दबाव साथी एवं समर्थक दलों का होता है और हमने देखा कि संप्रग प्रथम में वामदलांे एवं दूसरे में साथी दलों के दबाव में मनमोहन सिंह अनगिणत बार पशोपेश में आए। लेकिन यहां गठबंधन और समर्थक दलों के दबाव के अलावा हर समय एक प्रत्यक्ष या परोक्ष दबाव प्रधानमंत्री एवं कांग्रेस के सारे मंत्रियों के मनोविज्ञान में और रहता है। सोनिया गांधी दबाव बनाएं या नहीं पर मनोविज्ञान पर उसका हावी रहना निश्चित है। परोक्ष दबाव इस मायने में कि सोनिया गांधी कुछ न कहें तो भी यह भय कि पता नहीं इस निर्णय पर वे क्या सोचेंगी....आदि आदि। फिर कांग्रेस की राजनीति में सोनिया जी के नाम पर सरकार को दबाव में लाने में दूसरे नेता तो कोशिश करते ही रहते हैं।
इसे सामान्यतः दलीय राजनीतिक आरोप या प्रश्न मानकर खारिज कर दिया जाता है। किंतु हमारे लोकतंत्र की विचारधारा, उसके भविष्य एवं देश की नियति का महत्वपूर्ण प्रश्न इससे नत्थी है। प्रधानमंत्री केवल सरकार का मुखिया नहीं, देश का नेता भी है। वह करीब सवा अरब लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके पूर्व देश के पहले गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई भी लोकसभा का चुनाव जीतकर जनता के बीच से और सांसदों के बहुमत से पद तक पहुंचे। चरण सिंह भी चाहे जितने दिन रहें, जनता के बीच से आए और निर्वाचित नेता थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस से निकलकर जनता के बीच अभियान चलाया, अपने नेतृत्व की धाक जमाकर ही सरकार बनाई और चन्द्रशेखर भले कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने, पर वे भी जनता के बीच से आए थे। अटलबिहारी वाजपेयी के बारे में तो बताने की आवश्यकता भी नहीं। इन सारे नेताओं की अपनी महिमा थी, और शासन की आॅथोरिटी भी। संयुक्त मोर्चा के डेढ़ वर्ष के कार्यकाल के दोनों प्रधानमंत्रियों एच. डी. देवेगौड़ा एवं इन्दरकुमार गुजराल अवश्य गठबंधन के साथियों खासकर वाममोर्चे द्वारा प्रायोजित थे, लेकिन देवेगौड़ा कम से कम कर्नाटक में अपनी बदौलत विजीत और निर्वाचित सरकार के मुखिया थे तथा गुजराल भी लोकसभा चुनाव लड़कर जीते। मनममोहन सिंह पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने एक नेता के रुप में कभी जनता के बीच काम ही नहीं किया। वे न लोकसभा में संसदीय दल के नेता हैं और न संसदीय दल के अध्यक्ष ही। कांग्रेस संसदीय दल ने भी 18 मई 2004 को नेता के रुप में सोनिया गांधी को ही निर्वाचित किया था, मनमोहन सिंह को नहीं। जनता के बीच नेता के रुप में उनकी कोई पहचान ही नहीं है और नौ सालों में उन्होंने जमीन पर अपनी कोई छाप छोड़ी भी नहीं है। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी में भी उनके सम्मान का कारण सोनिया गांधी हैं। यानी मनमोहन सिंह की पूरी शक्ति और सम्मान का स्रोत सोनिया गांधी हैं।
किसी सरकार पर पार्टी का नियंत्रण होना उचित है और आवश्यक भी। किंतु पार्टी का नियंत्रण वैचारिक और सैद्धांतिक नैतिकता तक ही सीमित हो सकती है। यानी यदि सरकार पार्टी के सिद्धांतों से परे काम करती है तो पार्टी का दबाव उस पर होना चाहिए। किंतु यह यथेष्ट नहीं हो सकता कि सरकार का मुखिया ऐसा व्यक्ति हों, जिनकी जन नेतृत्व की पृष्ठभूमि ही नहीं हो। किसी भी चुनाव आधारित स्वस्थ लोकतंत्र वाले देश में यह स्थिति असह्य होनी चाहिए। जाहिर है, यदि भारत इसे सहन कर रहा है तो यह हमारे स्वस्थ राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रणाली का प्रमाण नहीं हो सकता है। स्वयं कांगे्रस पार्टी, जिसकी जड़ आजादी के आंदोलन में निहित है, जिसके नेता आजादी के लिए जेल गए, लाठियां गोलियां खाईं, उसकी दशा ऐसी हो गई है कि इतने बड़े देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए सही जन नेतृत्व की कसौटी पर खरा उतरने वाला कोई एक नेतृत्व योग्य व्यक्ति नहीं है। प्रधानमंत्री की शक्ति का स्रोत उसकी नेतृत्व क्षमता में होनी चाहिए। अपने दल और साथी दलों पर उसकी महिमा कायम होने का आधार उसकी नेतृत्व क्षमता ही होती है। मोरारजी और वाजपेयी की नेतृत्व क्षमता ही साथी दलों और देश में उसकी महिमा का आधार था। मनमोहन सिंह भले निजी तौर पर भाग्यशाली हो सकते हैं, व्यक्ति आचरण भी उनका शालीन और ईमादार हो सकता है, पर उनका जनता का नेतृत्व करने की क्षमता से विहीन होना उनकी ऐसी दुर्बलता है जिसके कारण प्रधानमंत्री के रुप में उनकी भूमिका विरोधियों की ही नहीं, पार्टी एवं गठजोड़ के अंदर भी प्रश्नों के घेरे मे आई है।(संवाद)
संप्रग के नौ साल: नेतृत्व की महिमा कहां है?
अवधेश कुमार - 2013-05-25 15:20
जब मनमोहन सिंह को पी. वी. नरसिंह राव ने 1991 में वित्त मंत्री बनाया था, तो उस समय इन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि आने वाले दिनों में वे प्रधानमंत्री बनेंगे और जवाहरलाल नेहरु तथा इंदिरा गांधी के बाद लगातार सबसे लंबे समय तक पद पर रहने का रिकार्ड भी बना लेंगे। जी, हां, देख लीजिए, उन्होंने नौ साल का कार्यकाल पूरा किया और यदि कांगेस ने बीच में चुनाव कराने का निर्णय नहीं लिया तथा सपा का साथ जारी रहा तो वे दस वर्ष भी पूरा कर लेंगे।