यह फैसला इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार कौन हो इसके बारे में फैसला भाजपा के संसदीय बोर्ड को ही लेना है। जब कभी भी राजनाथ सिंह से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के नाम के बारे में पूछा जाता है, वे यही कहते हैं कि इसका फैसला भाजपा का संसदीय बोर्ड लेगा। वह कब ऐसा फैसला लेगा? इसके जवाब में वे कहते हैं कि यह फैसला उचित समय पर लिया जाएगा। इसके साथ वह यह कहना भी नहीं भूलते हैं कि नरेन्द्र मोदी आज के दिन में देश के सबसे अधिक लोकप्रिय नेता हैं।

यह सच है कि नरेन्द्र मोदी आज देश के सबसे अधिक लोकप्रिय नेता हैं। जितने भी सर्वेक्षण कराए जा रहे हैं, उन सबका निष्कर्ष यही है। कोई भी ऐसा सर्वेक्षण पिछले दिनों ऐसा नहीं आया है, जिसमें देश के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में नरेन्द्र मोदी के अलावा किसी और का नाम आया हो। सच तो यह है कि लोकप्रियता के लिहाज से कोई नेता नरेन्द्र मोदी के आसपास भी नहीं दिखाई देता है। दूरी पर दूसरे नंबर पर किसी सर्वेक्षण में राहुल गांधी दिखाई देते हैं, तो किसी में मनमोहन सिंह। भारतीय जनता पार्टी का कोई नेता तो कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता है।

लोकप्रियता के बाजजूद पार्टी के अंदर ही नरेन्द्र मोदी के नाम पर एकराय नहीं है। भाजपा के अधिकांश राष्ट्रीय नेता नरेन्द्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में नहीं लेते। राजनाथ सिंह के अलावा लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरूण जेटली जैसे नेता यह भी नहीं कहते कि मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। इसका कारण यह है कि भाजपा के अनेक वरिष्ठ नेता खुद प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। इनमें लालकृष्ण आडवाणी सबसे आगे हैं। नरेन्द्र मोदी को यदि किसी से सबसे ज्यादा चुनौती मिल रही है, तो वह लालकृष्ण आडवाणी ही हैं।

सच तो यह है कि भाजपा के आज के अधिकांश कथित राष्ट्रीय नेता वर्तमान पद पर और हैसियत में लालकृष्ण आडवाणी के कारण ही हैं। अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और वेंकैया नायडू यदि आज भाजपा के राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र मेे हैं, तो उसका कारण लालकृष्ण आडवाणी ही हैं। इसलिए वे लालकृष्ण आडवाणी के सामने खुद प्रधानमंत्री बनने का दावा भी नहीं कर सकते हालांकि वे सभी ऐसी स्थितियों को बनते देखना चाहते हैं, जिनमें वे खुद प्रधानमंत्री बन जायं।

बहरहाल अभी भाजपा की राजनीति को रामजेठमलानी के निष्कासन का मुद्दा गर्म कर रहा है। श्री जेठमलानी मोदी के ही नहीं आडवाणी के भी काफी नजदीकी रहे हैं। दोनों लगभह हमउम्र हैं और संसद में पहली बार 1977 में आए थे। आडवाणी और जेठमलानी दोनों मूलतः सिंध के हैं, जो अभी पाकिस्तान में हैं। बंटवारे के बाद दोनों भारत आए थे। जाहिर है, दोनों एक ही पृष्ठभूमि के नेता हैं। जेठमलानी ने हवाला केस मे लालकृष्ण आडवाणी का मुकदमा भी लड़ा था। दोनो वाजपेयी सरकार मे एक साथ मंत्री भी हुआ करते थे।

संसदीय बोर्ड में लालकृष्ण आडवाणी के समर्थक अच्छी संख्या में हैं। इसलिए यदि वे चाहते तो जेठमलानी पार्टी से बाहर नहीं किए जा सकते थे। जाहिर है, उन्हें बाहर करने में आडवाणी और उनके खेमे की भूमिका महत्वपूर्ण रही होगी। मोदी और आडवाणी एक साथ मिल जाते तो फिर उनके पार्टी से बाहर होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। यदि ऐसा हुआ है तो मानना पड़ेगा कि आडवाणी का विश्वास अब जेठमलानी के साथ नहीं रहा। इसका कारण यह है कि अब जेठमलानी नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने का पक्ष ले रहे हैं, जिससे लालकृष्ण आडवाणी को जरूर परेशानी हो रही होगी।

लिहाजा जेठमलानी का भाजपा से बाहर होना नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बोड का लिया गया फैसला माना जा सकता है। इसका कारण यह है कि जेठमलानी के पार्टी से बाहर जाने के बाद मोदी ने अपना एक मुखर समर्थक खो दिया है। इससे यह भी साफ हो गया है कि मोदी का चुनाव के पहले प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पा्रेजेक्ट होना और भी कठिन हो गया है।

राजनाथ सिंह द्वारा बार बार प्रधानमंत्री उम्मीदवार के बारे मे संसदीय बोर्ड का हवाला देना यह जाहिर करता है कि मोदी का नाम आना निश्चय ही कठिन है, क्योंकि संसदीय बोर्ड के अंदर जो सदस्य हैं, उनमें मोदी के समर्थकों को ढूृड़ पाना कठिन है। बोर्ड में 12 सदस्य हैं। इनमें एक तो वाजपेयी जी ही हैं, जो सकिय नहीं हैं। उन्हें छोड़ दिया जाय तो कुल 11 सदस्य बोर्ड में हैं, जिनमें एक तो खुद राजनाथ सिंह ही हैं। शेष 10 में 4 पूर्व अध्यक्ष हैं। वे हैं- आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, वेंकैया नायडू और नितिन गडकरी। अरुण जेटली और सुषमा स्वराज भी उनमें शामिल हैं। इनके अलावा रामलाल, अनंत कुमार और थावर चंद गहलौत हैं। नरेन्द्र मोदी भी सदस्यों मे ंसे एक हैं।

इसलिए जब संसदीय बोर्ड में संख्या बल के द्वारा मामला तय होगा, तो नरेंन्द्र मोदी पर तो सहमति हो ही नहीं सकती। मोदी के पास सबसे मजबूत आधार यह है कि वे आज के सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेता हैं और उनके प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनने से पार्टी को ज्यादा सीटों पर जीत हासिल होगी और यदि उन्हे ंउम्मीदवार के रूप में नहीं पेश किया जाता है, तो पार्टी को नुकसान भी हो सकता है। संघ का समर्थन भी मोदी के काम आ सकता है, लेकिन कहा जा रहा है कि संघ का एक बड़ा वर्ग उनसे असंतृष्ट है, लेकिन सच यह भी है कि आडवाणी से भी संघ के नेता नाराज रहते हैं। लेकिन राजनीति में पसंदगी कब नापसंदी में बदल जाय और नापसंदी कब पसींदगीमें कुछ कहा नहीं जा सकता। आखिर आडवाणी ने नितिन गडकरी को पार्टी के चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष बनाने के लिए सिफारिश की या नहीं? यही आडवाणी गडकरी को अध्यक्ष पद से हटाने की मांग कर रहे थे और उसमें सफल भी हुए, लेकिन अब वे फिर चुनाव अभियान का नेतृत्व उनके हाथ में देना चाहते हैं।

जाहिर है नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री की उम्मीदवार का काम आसान नहीं है। जेठमलानी को पार्टी से बाहर किया जाना निश्चय ही बोर्ड द्वारा उनके खिलाफ उठाया गया पहला कदम है।(संवाद)