जी हां, 25 दिसंबर 1861 में इस धरा पर आए थे मदनमोहन मालवीय जी। 24 दिसंबर को दिल्ली विधानसभा में मालवीयजी की जन्मतिथि पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। उस कार्यक्रम में विधान सभा के 70 विधायकों में से मात्र 4 उपस्थित हुए। जिसमें मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी अनुपस्थित रहीं। उपस्थित रहने वाले विधायकों में कंवर करण सिंह, योगानंद शास्त्री, विजय कुमार मल्होत्रा और रमाकांत गोस्वामी शामिल थे। अब आप इसी कार्यक्रम की सफलता से इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि देश की आजादी के लिए अपना जीवन होम करने और आने वाली पीढ़ी को शिक्षा का चिराग थमाने वाले अग्रदूत को वही पीढ़ी कैसे भूल चुकी है जिनके चिराग तले ज्ञान अर्जित कर इस पीढ़ी ने सत्ता की सीढ़ियां चढ़ी। आज सत्ता के मद में यदि स्वतंत्रता सेनानियों को ही हमारे नेता भूलने लगे हैं तो जनता से क्या अपेक्षा की जा सकती है?

बहाने बनाने के लिए आज की पीढ़ी के पास तो पर्याप्त समय है लेकिन उन सपूतों को याद करने के लिए एक सेकेंड का समय नहीं है। सबसे चिंताजनक स्थिति उन नेताओं की है जो कम से कम आधुनिक पीढ़ी के तो नहीं ही कहे जा सकते, इन नेताओं, विधायकों में से कइयों की उम्र दूसरी पीढ़ी का है, जो संभव है अपने बचपन के दिनों में अंग्रेजों की दासता की दस्तां की धुंधली तस्वीरे अतीत के पन्नों में संजोए हों। लेकिन उनके लिए भी मदनमोहन मालवीय की जीवनी और कर्म से प्रेरणा लेने का कोई सवाल ही नहीं बचे हैं।

प्रेरणास्पद जीवनी: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसंबर 1861 में इलाहाबाद में एक शिक्षित किंतु गरीब ब्राम्हण परिवार में हुआ था। पांच वर्ष की अवस्था में मदनमोहन जी को ज्ञानार्जन के लिए पंडित हरदेव धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में भेज दिया गया था। 1879 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की तदुपरांत उन्होंने कानून की पढ़ाई भी पूरी की। लेकिन देश सेवा का धुन सवार होने के बाद उन्होंने वकालत करने से अच्छा देश को स्वतंत्र कराने का संकल्प लिया।

मदनमोहन जी ने मेयोर सेंट्रल कालेज कलकत्ता से 1884 में बीए की डिग्री हासिल की। स्नातक होने के बाद उन्हें अपने पुराने स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिली मासिक तनख्वाह थी चालीस रुपये। लगने के साथ शिक्षापाठ कराने के जुनून ने उन्हें शिष्यों में लोकप्रिय बना दिया। 1886 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने भाग लिया और देश की आजादी को लेकर अपना नजरिया पेश किया। उन दिनों ऐसा कोई नियम नहीं था कि सरकारी नौकर किसी राजनीतिक बैठकों में हिस्सा नहीं ले सकते। उनके अधिवेशन में दिए गए भाषण से तत्कालीन कांग्रेस महासचिव ए.ओ. ह्यूम बहुत ज्यादा प्रभावित हुए थे। मालवीय जी के कलकत्ता से लौटने के बाद उन्हें हिन्दुस्तान सप्ताहिक का संपादक नियुक्त कर दिया गया। इस कार्य को उन्होंने बखूबी अंजाम दिया। यह अलग बात थी कि वे एक अन्य मासिक पत्र का भी संपादन कर रहे थे जिसका नाम इंडियन यूनियन था। कांग्रेस के सम्मेलनों में हिस्सा लेने और देश समाज को जागृत करने के लिए अखबारों के संपादन के कार्य में उनका इतना मन रमता था कि उन्हें वकालत पेशे की चिंता ही नहीं रही। पंडित जी देश-समाज सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य घोषित कर लिया। 1891 में जब उन्होंने एलएलबी की डिग्री पाई तो उनके लिए वकालत का पेशा देश सेवा की तुलना में तुच्छ दिखा सो उन्होंने देश सेवा का व्रत ही ले लिया।

कांग्रेस के साथ मिलकर देशसेवा और कांग्रेस की सेवा ने उन्हें चार बार कांग्रेस अध्यक्ष बनने का मौका दिया। हांलांकि कई राष्ट्रवादी इस बात के नाक भौं सिकोड़ते हैं। इसका कारण यह रहा कि उन्होंने ही 1906 में हिन्दू महासभा की नींव रखी थी। इसके बावजूद भी उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्ता साबित की और सभी बड़े नेताओं का आशीर्वाद भी पाते रहे। यहां तक कि उन्हें 1931 में हुए गोलमेज सम्मेलन में भी आमंत्रित किया गया था। अपनी गिरफ्तारी की घोषणा के बावजूद उन्होंने देश सेवा के लिए अपने क्रियाकलापों को जारी रखा जो उन्हें उंचाई प्रदान करता है।

हिन्दू महासभा का गठन करने के बावजूद भी मालवीय जी कांग्रेस के कट्टर समर्थक बने रहे। पंडित जी मुस्लिम विरोधी कतई नहीं थे वे तो अंग्रेजों के बांटो और राज करो की नीति का भंडाफोड़ करने के लिए एकरूप समाज निर्माण के कार्य में जुटे रहे। 1893 में उन्होेंने हाइकोर्ट में वकालत प्रारंभ की इसके बावजूद वे समाज सेवा के कार्यों में ज्यादा रूचि लेते रहे। मदनमोहन मालवीय जी ने 1909 में स्थाई रूप से वकालत के पेशे को छोड़ दिया लेकिन 1922 में अपवादस्वरूप उन्होंने वकालत इसलिए की क्योंकि चैरीचैरा कांड में फंसे 225 आंदोलनकारियों को बचाने के लिए जिरह करनी पड़ी थी। इसमें से 153 को बरी कराने में वे सफल भी रहे। मालवीय जी की मान्यता थी कि देश सेवा और समाज को जागृत करने के लिए जरूरी है कि हिन्दी के अखबार निकाले जाएं। इस काम को उन्होंने बखूबी अंजाम भी दिया। उन्होंने 1907 में अभ्युदय नाम से हिंदी साप्ताहिक अखबार शुरू की जो 1915 में दैनिक अखबार के रूप में जनसेवा को समर्पित रहा। पंडितजी ने 1910 में मर्यादा हिंदी मासिक का प्रकाशन भी प्रारंभ किया था इसके अलावा 1921 में भी एक अन्य हिंदी मासिक पत्र निकाले। यही नहीं अक्तूबर 1909 में उन्होंने एक अंग्रेजी दैनिक लीडर भी प्रकाशित की थी। देश की आजादी के लिए उनके योगदान में आम जन को शिक्षित करने का अभियान सर्वोपरि रहा। उनका मानना था कि यदि आम जनता को देश की दशा से परिचित करा दिया जाए तो हमारा आंदोलन तेजी से लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगा। बाद में पंडित जी 1924 से लेकर 1946 तक हिन्दुस्तान टाइम्स के बोर्ड आॅफ डायरेक्टर और चेयरमैन भी रहे।

सक्रिय राजनीति में रहकर उन्होंने इलाहाबाद नगरनिगम में वरिष्ठ उपाध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया। 1902 में वे प्रोविंसियल विधान परिषद में चुने गए। 1924 से लेकर 1930 तक वे विधान सभा के सदस्य रहे। इस दौरान महात्मा गांधी द्वारा सत्याग्रह आंदोलन की शुरूआत करने पर विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। पंडित जी देश के औद्योगिक विकास के भी हिमायती रहे और भारतीय औद्योगिक आयोग के सदस्य भी रहे। वे तकनीकी विकास के भी पक्षधर थे।

मालवीय जी सामाजिक मामलों में समग्रसोची थे और वे वर्णव्यवस्था में विश्वास रखते थे फिर भी उनकी इच्छा थी कि हिन्दू समाज में परिवर्तन आए और यह समाज में एक अग्रदूत की भूमिका का निर्वहन करे। इस कार्य में उनके साथ बनारस के पंडित भी थे। पंडितजी दलितों के मंदिर प्रवेश के हिमायती थे और उन्होंने इसके लिए 1936 में प्रयास भी किया था कि दलितों को मंदिर में प्रवेश दिया जाए। मदनमोहन मालवीय हिन्दू महिलाओं के उत्थान के पक्षधर थे उनकी इच्छा थी कि महिलाओं को समाज में बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए। #