इस तरह का भ्रम भाजपा नेता अरुण जेटली के एक बयान और कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला द्वारा आइपीएल के कमिश्नर पद से इस्तीफा देने के कारण हुआ था। जेटली ने एक बड़ी खबर आने की बात कह दी थी, जिसका संबंध श्रीनिवासन के संभावी इस्तीफे से जोड़ दिया गया था। राजीव शुक्ला द्वारा दिए गए इस्तीफे को श्रीनिवासन पद इस्तीफा देने के दबाव के रूप में देख लिया गया।

लेकिन जेटली ने जो कहा वह गलत नहीं था। 2 जून को खबर आई और वह खबर निश्चय ही बड़ी थी। खबर यह थी कि न तो जेटली ने और न ही राजीव शुक्ला ने श्रीनिवासन से इस्तीफे की मांग की। एक और भाजपा नेता अनुराग ठाकुर भी बैठक के पहले झूठ फैलाते रहे कि यदि इस बैठक मंे बात नहीं बनी, तो बोर्ड की जनरल बाॅडी की विशेष बैठक बुलाई जाएगी। लेकिन उन्होंने भी बैठक में श्रीनिवास से इस्तीफा नहीं मांगा।

बैठक के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि बीसीसीआई भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा अड्डा है। श्रीनिवास को हटाया इसलिए नहीं जा सका, क्योंकि जो लोग हटा सकते थे, वे खुद भी दूध के धुले हुए नहीं हैं। किस तरह का भ्रष्टाचार वहां व्याप्त है, यह उनको पहले से पता है और वे खुद भी उस भ्रष्ट बीसीसीआई का हिस्सा हैं। आइपीएल में फिक्सिंग का मामला भले लोगों के सामने देर से उजागर हुआ हो, लेकिन बीसीसीआई के लोगों को पहले से ही पता था कि फिक्सिंग हो रहा है। इसलिए यह मामला सार्वजनिक होने के बाद उनके सामने चुनौती इस समस्या को दूर करने की थी ही नहीं, उनके सामने चुनौती यह थी कि इस संकट से अपने को कैसे बचाया जा सके।

जब दिल्ली पुलिस ने स्पाॅट फिक्सिंग का भंडाफोड़ किया था, तो लग रहा था कि सिर्फ छोटी मछलियों को फंसाकर सनसनी पैदा की जा रही है और बड़ी मछलियों को जानबूझकर छोड़ा जा रहा है। दिल्ली पुलिस ने बिना किसी जांच के ही कर दिया था कि फिक्सिंग में सिर्फ राजस्थान राॅयल्स के वही तीन खिलाड़ी शामिल हैं, बाकी और कोई शामिल नहीं हैं। यह बड़ी मछली तक हाथ फैलाने की ताकत तो मुंबई पुिलस ने दिखाई और जिस सटोरिये को दिल्ली पुलिस ने छोड़ दिया था, उसे पकड़कर ही वह दारा सिंह के बेटे बिंदु तक पहुंच गई और उसके बाद श्रीनिवासन के दामाद मयप्पन तक। और उसके बाद ही बीसीसीआई का वास्तविक संकट शुरू हुआ। वह संकट यह था कि बोर्ड के 46 हजार करोड़ रुपयों का प्रबंधन करने वाले लोग अपनी अपनी स्थिति की रक्षा कैसे करें। उन्हें पता था कि वे डूबेंगे एक साथ और उबरेंगे एक साथ। भला वे डूबने का फैसला क्यों करते इसलिए एक साथ उबरने के लिए उस बैठक में उपस्थित हुए। कुछ सीधे वहां जा पहुंचे, तो कुछ वीडीयो कान्फ्रेंसिंग के जरिए। वहां विरोध का सिर्फ एक स्वर सुनाई पड़ा और वह था पंजाब क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष श्री बिंद्रा का।

सच तो यह है कि बीसीसीआई का असली प्रबंधन तीन लोगों के हाथ मंे है। वे हैं- श्रीनिवासन, जेटली और शुक्ला। बीसीसीआई में जो कुछ भी अच्छा या खराब हो रहा है, उनमें ये तीनों समान रूप से शामिल हैं। इसलिए एक दूसरे को बचाना इन तीनों के लिए अतिआवश्यक है। इन तीनों ने ही मिलकर वह फाॅर्मूला तैयार किया था, जिसका अनुसार श्रीनिवासन को अपना पद बरकरार रखते हुए दिखावे के लिए उससे दूर हा जाना था। राजीव शुक्ल ने कुछ दिन पहले ही कहा था कि उन्होंने और जेटली ने मिलकर श्रीनिवासन को कहा है कि बीसीसीआई के काम से वे कुछ दिनों तक दूर रहें। गलतफहमी में पत्रकारों ने कहना शुरू कर दिया कि शुक्ल ने श्रीनिवासन का इस्तीफा मांगा है। शुक्ल ने मीडिया की उस गलतफहमी का खंडन भी नहीं किया। बैठक के एक दिन पहले उनका आइपीएल से इस्तीफा आया। उन्होंने कुछ ऐसा संदेश दिया कि श्रीनिवासन की जिद के खिलाफ उन्होने इस्तीफा दिया है। लेकिन ऐसा करके शुक्ल एक बार फिर मीडिया और देश के लोगों को गुमराह कर रहे थे। यदि वे वास्तव में फिक्सिंग घोटाले को लेकर चिंतित थे, तो कहते कि घोटाले की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्होनंे वह इस्तीफा दिया है। ऐसा करने पर ही श्रीनिवासन पर भी नैतिक जिम्मेदारी के तहत इस्तीफा का दबाव पड़ता। पर राजीव शुक्ल का खेल तो एक तरफ श्रीनिवासन की रक्षा करना था और दूसरी तरफ खुद को आइपीएल विवाद से दूर करना, ताकि कांग्रेस के अंदर उनकी स्थिति कमजोर नहीं हो। गौरतलब है कि उन्हें मंत्रिपरिषद से हटाए जाने की खबर मीडिया में आने लगी थी। प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि खेल से राजनीति को दूर रहना चाहिए। उनका सम्मान करते हुए शुक्ल ने बीसीसीआई से तो नहीं, पर आइपीएल से अपने आपको इस तरह दूर किया, जिससे श्रीनिवासन की स्थिति और भी मजबूत होती हो।

आइपीएल के संस्थापक ललित मोदी का कहना है कि बीसीसीआई में असली रणनीति तैयार अरुण जेटली करते हैं। स्टेप डाउन की जगह स्टेप एसाइड जुमले का इस्तेमाल अरुण जेटली जैसा वकील ही कर सकता है। जाहिर है, इस नापाक खेल के मुख्य रणनीतिकार अरुण जेटली ही हो सकते हैं। राजीव शुक्ल जैसे मीडियाॅकर पत्रकार से नेता बने व्यक्ति इस तरह का शातिराना फाॅर्मूला तैयार नहीं कर सकते।

जाहिर है कि भारतीय क्रिकेट के सामने विश्वसनीयता का जो संकट खड़ा हुआ है उसका निदान बीसीसीआई के पास नहीं है, क्यांेकि वह पूरा का पूरा भ्रष्टाचार के दलदल में गले तक धंस चुका है। उसकी इतनी ताकत नहीं िवह इस दलदल से खुद को बाहर निकाल सके। ऐसा करने के लिए सरकार को ही दखल देना होगा। पूर्व क्रिकेटर और भाजपा के सांसद कीर्ति झा आजाद शुरू से ही इस ओर सरकार का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं।

सरकार के पास अनेक विकल्प हैं। एक विकल्प को बीसीसीआई को ही भंग कर देने का हो सकता है। दूसरा विकल्प उसे खेल मंत्रालय का हिस्सा बना देने का हो सकता है। तीसरा विकल्प बोर्ड में एक प्रशासक बैठा देने का हो सकता है, जो उसके खर्च और कामकाज पर नजर रख सके। बीसीसीआई की कैग से आॅडिटिंग भी कराई जा सकती है और इसे राइट टू इन्फाॅर्मेशन कानून के तहत भी लाया जा सकता। है।

विकल्प बहुत सारे हैं, पर सवाल उठता है कि क्या सरकार भारतीय क्रिकेट को बचाने के लिए कुछ करेगी? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि इससे अनेक राजनेताओं का व्यक्तिगत हित मारा जाएगा।(संवाद)