सच कहा जाय तो कांग्रेस छत्तीसगढ़ के समूचे नेतृत्व को ही खत्म कर देने वाला वह हमला था। माओवादियों द्वारा इस तरह घात लगाकर किया गया हमला कोई पहली घटना नहीं थी। इसके पहले भी उन्होने अनेक बार इस तरह के हमलों को अंजाम दिया है। लेकिन पहले उनके हमलों के शिकार पुलिस बल हुआ करते थे। इस मायने में यह पहली घटना है कि किसी राजनैतिक यात्रा पर यह हमला हुआ और लक्ष्य था राजनीतिज्ञों को मौत के घाट उतार देना।
महेन्द्र कर्मा माओवादियों के दुश्मन नंबर एक थे। वे उनकी हिट लिस्ट पर बहुत लंबे समय से थे। कांग्रेस के उस कारवां पर हमला करने का सबसे बड़ा कारण यही बताया जा रहा है। उसमें कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नन्द लाल पटेल और उनका एक बेटा था। माओवादियों को यात्रा के रास्ते की जानकारी थी और उन्हें यह भी पता था कि उसमे कर्मा भी हैं और पटेल भी।
कर्मा ने बस्तर के इलाके में नक्सलवादियों के खिलाफ दो बार अभियान चलाया था। 1990 के दशक के मध्य में उन्होंने नक्सलवादियों के खिलाफ एक जन जागरण अभियान चलाया था। उसके बाद 2005 में उन्होंने सलवा जुडुम नाम का अभियान चलाया। यह अभियान काफी खौफनाक था। इस अभियान को भाजपा की प्रदेश सरकार का समर्थन हासिल था। अंत में सुप्रीमा कोर्ट के एक आदेश के बाद यह अभियान बंद किया गया।
गरीब और सरल आदिवासियों का शोषण बहुत लंबे समय से हो रहा है। आधुनिकता के साथ साथ यह शोषण और भी अमानवीय होता जा रहा है। उसके कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं। बस्तर में 76 किस्म के वन उत्पाद हैं। वहां महुआ फूल और इमली को आदिवासी चुनते हैं। वहां के इन दोनों उत्पादों की गुणवत्ता बहुत ही श्रेष्ठ है। आदिवासी महुआ का इस्तेमाल शराब बनाने के लिए भी करते हैं। वे उसे खाते भी हैं। वे उन व्यापारियों को महुआ बेचते हैं, जो उनसे तेल निकालते हैं। महुआ से साबुन भी बनाया जाता है। महुआ को बहुत की कम कीमत पर खरीदा जाता है। इमली का भी यही हाल है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में उस इमली की कीमत 400 रुपये प्रति किलो है, जबकि वहां के आदिवासियों से इसे एक रुपये प्रति किलो की दर से भी कम पर खरीदा जाता है।
सीधे सादे आदिवासी उन व्यापारियों द्वारा ठगे जाते हैं, जो उनके इलाकों में शहरों से आते हैं। एक किलो नमक के बदले में आदिवासियों से 8 किलो जवार लिया जाता है और एक किलो नमक का विनिमय एक किलो सूखे मेवे से हो जाता है। आदिवासी कागज का उत्पादन करने वाले बांस के डंडे को भी इकट्ठा करते हैं। वे बीड़ी बनाने वाले तेंदू पत्ते को भी चुनते हैं। उन दोनो को बहुत ही सस्ती कीमत पर खरीदा जाता है। 100 तेंदू पत्ते के बंडल के बदले उन्हें 5 पैसे मिलते हैं। बांस के 120 डंडे के बदले उन्हें मात्र एक रुपया मिलता है। आदिवासी लड़कियों का यौन शोषण भी किया जाता है और कभी कभी तो उन्हें वेश्यावृति के पेशे में धकेल दिया जाता है।
दशकों से हो रहे शोषण ने वहां के युवकों को व्यवस्था का विरोधी बना दिया है। इसके कारण वे नक्सलवादी आंदोलन में शामिल हो गए हैं। माओवादियों को युवकों और युवतियों की आपूर्ति काफी पैमाने पर हो जाती है। राज्य व्यवस्था की उपेक्षा के शिकार वे आदिवासी उस आंदोलन से जुड़ जाते हैं, जहां उन्हें अपना हमदर्द दिखाई पड़ता है।
बस्तर में माओवादियों के प्रवेश ने ठेकेदारों की मनमानी को समाप्त कर दिया है। पुलिस द्वारा उनपर किए जा रहे अत्याचार भी खत्म हुए हैं। आज वहां की आदिवासी महिलाएं जंगलों में अकेले घूम सकती हैं। माओवादी इलाकों में भूख से मौत नहीं होती। नरबलि की प्रथा भी बंद हो गई है और वेश्यावृति भी अतीत की चीज बन गई है। माओवादियों ने आदिवासियों की सहायता से बरसात का पानी रोकने के लिए बांध का निर्माण करवाया है। आम, अमरूद और नींबे के बगीचे लगवाए हैं। चावल के मिलों को भी लगाया गया है, जहां कम कीमत पर आदिवासी धान से चावल निकलवा सकते हैं। आदिवासियों को प्राथमिक शिक्षा भी दी जा रही है। उन्हें दवाइयां भी दी जाती हैं।
इन सबके कारण माओवादियों ने उन आदिवासियों के दिल में जगह बना ली है। राज्य व्यवस्था से मिले तिरस्कार और माओवादियो से मिल प्यार ने उन्हें उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है, जहां वे राज्य व्यवस्था के खिलाफ खड़े दिखाई दे रहे हैं।(संवाद)
बस्तर के खून खराबे का सच
दशकों की उपेक्षा ने माओवाद पैदा किया है
हरिहर स्वरूप - 2013-06-04 10:14
बस्तर के आदिवासियों के दशकों से हो रहे शोषण ने आज वहां वह समस्या पैदा की है, जिसे हम माओवादी उग्रवाद कहते हैं। कुछ दिन पहले इस उग्रवाद के शिकार 29 लोग हुए, जिनमें कांग्रेस के नेता महेन्द्र कर्मा, छत्तीसगढ़ के कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नन्द कुमार पटेल और उनके एक बेटे मारे गए। एक अन्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेता विद्या चरण शुक्ल उस हमले में बुरी तरह घायल हुए हैं और जिंदगी व मौत के बीच गुड़गांव के एक अस्पताल में जूझ रहे हैं।