आडवाणी के इस्तीफे का एक असर यह हुआ है कि जनता दल (यूनाइटेड) के नेताओं के कान नरेन्द्र मोदी को लेकर खड़े हो गए हैं और वे भाजपा से अपना संबंध तोड़ने के लिए सक्रिय दिख रहे हैं। यह सच है कि भाजपा से संबंध तोड़ना जनता दल (यू) के लिए आत्मघाती कदम होगा, पर नीतीश कुमार नरेन्द्र मोदी के खिलाफ उस हद तक बढ़ गए हैं कि अब उनके लिए मोदी का नेतृत्व स्वीकार करना लगभग असंभव हो गया है। यदि राजनैतिक विवशताओं के तहत नीतीश नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व स्वीकार भी कर लेते हैं, तो खतरा यह है कि कहीं नरेन्द्र मोदी खुद जद(यू) को लोकसभा चुनाव के पहले गठबंधन से बाहर न कर दें। यह डर आर नीतीश कुमार को सबसे ज्यादा सता रहा है और इसके कारण ही गठबंधन से हटाए जाने की फजीहत से बचने के लिए वे खुद अपने दल को गठबंधन से निकालने की घोषणा करने के लिए गंभीर हैं।
यदि आडवाणी ने इस्तीफा नही दिया होता, तो यह नौबत इतनी जल्दी नहीं आती। उनके इस्तीफे यह संदेश गया कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप मंे घोषणा महज औपचारिकता रह गई है। आडवाणी ने इस्तीफा वापस ले लिया। लेकिन उससे बात और भी बिगड़ गई। इसका कारण यह है कि इस्तीफा वापस लेने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के अंदर का सत्ता समीकरण ज्यों का त्यों रहा। नरेन्द्र मोदी अपने पद पर बने रहे और उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा, इसका कोई आश्वासन नहीं मिला। उलटे कहा गया कि आडवाणी ने संघ प्रमुख के कहने पर इस्तीफा वापस लिया है। यदि यह कहा जाता कि पार्टी नेताओं और कार्यकत्र्ताओं के आग्रह और दबाव के कारण आडवाणी ने अपना इस्तीफा वापस लिया है, तो इससे उनकी इज्जत बढ़ती, लेकिन इस्तीफा वापस लेने के पीछे संघ प्रमुख से उनकी फोन पर हुई बातचीत जिम्मेदार थी। और इस तथ्य के कारण जनता दल(यू) नेताओं की नजर में आडवाणी की स्थिति और भी कमजोर होकर उभरी, क्योंकि इससे यह स्थापित हो गया कि पूरी पार्टी ही नहीं, बल्कि आडवाणी भी वही करते हैं, जो संघ कहता है। हालांकि यह बात कोई नई नहीं है। संघ के कहने पर ही आडवाणी ने 2009 में लोकसभा में विपक्ष का नेता बनने से मना कर दिया था। लेकिन इस्तीफा देकर उन्होंने यह संकेत दिया कि वे संघ की सत्ता को भी चुनौती दे सकते हैं। पर दिखाई यह पड़ा कि संघ के सामने वे तो खुद नत मस्तक हैं।
इस क्रम में आडवाणी ने अपनी बची खुची प्रतिष्ठा को मिटा डाला। पिछले डेढ़ साल से नरेन्द्र मोदी के उभार का वह जिस तरह से विरोध कर रहे थे, उसे भी शालीन नहीं माना जा सकता। वे नीतीश कुमार को मोदी के खिलाफ भड़का रहे थे और भाजपा के नेताओं को नीतीश के ऊपर जवाबी हमला करने से रोक रहे थे। फिर पार्टी में अपने घटते महत्व को देखते हुए, वे अपनी पार्टी के बारे में ही अपनी कमजोर राय व्यक्त करने लगे थे। वे कहा करते थे कि लोग कांग्रेस से त्रस्त हैं, लेकिन भाजपा की हालत भी कोई अच्छी नहीं है। इसके अलावे उन्होंने यह भी कह दिया था कि अगली सरकार न तो कांग्रेस बनाएगी और न भाजपा, बल्कि कोई तीसरा दल इन दोनों में से किसी एक की सहायता से सरकार बनाएगा। वे नरेन्द्र मोदी की तो कम पर नीतीश की प्रशंसा ज्यादा किया करते थे। जब उनको लगा कि बिहार प्रदेश भाजपा के नेता नरेन्द्र मोदी के दीवाने हो रहे हैं और नीतीश के द्वारा नरेन्द्र मोदी को नियंत्रित नहीं किया जा सकता, तो फिर उन्होंने शिवराज सिंह चैहान को नरेन्द्र मोदी से बेहतर बताना शुरू कर दिया।
इस तरह आडवाणी प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की अपनी इच्छा को दबा नहीं सके और हताशा मे आकर ऐसे ऐसे बयान देने लगे, जिनसे पार्टी के अंदर उनकी स्थिति मजबूत तो नहीं हो रही थी, उलटे उसके कारण नरेन्द्र मोदी को मजबूती प्राप्त हो रही थी। उन्हें चुनाव अभियान समिति के चेयरमैन के रूप में नरेन्द्र मोदी की नियुक्ति को रोकने के लिए नितिन गडकरी का नाम आग बढ़ा दिया। वहां उन्हें विफलता मिली, तो उन्होंने गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का ही बहिष्कार कर दिया। वे वहां जाकर नरेन्द्र मोदी के उत्साही समर्थकों का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए और यह सोच लिया कि उनकी अनुपस्थिति के कारण नरेन्द्र मोदी पर होने वाला वह फैसला टल जाएगा। पर भाजपा नेतृत्व ने वैसा नहीं किया, क्योंकि उसे डर था कि उसके कारण मनमोहन सिंह की तरह भाजपा नेतृत्व पर भी आरोप लगेगा कि उसके पास निर्णय करने की क्षमता नहीं है।
नरेन्द्र मोदी को पार्टी के केन्द्र में लाने के विरोध में आडवाणी ने को कुछ किया, उसके बाद नीतीश कुमार के जल्द ही राजग से बाहर जाने का खतरा पैदा हो गया है। यदि वे बाहर चले गए, तो फिर भाजपा के पास नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार साफ साफ घोषित करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं रह जाएगा, क्योंकि नीतीश के भाजपा का साथ छोड़ने के कारण बिहार में भाजपा को जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करके ही की जा सकती है, क्योंकि नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार की सामाजिक पृष्ठभूमि एक ही है और जाति आधारित बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार भाजपा का जो उद्देश्य पूरा कर रहे थे, वह उद्देश्य नरेन्द्र मोदी ही पूरा कर सकते हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति के कारण भी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पर का उम्मीदवार घोषित करना जरूरी है। इस बात को राजनाथ सिंह अच्छी तरह समझते हैं। सच तो यह है कि राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश के ही हैं और यूपी व बिहार की राजनीति की समझ उनमें आडवाणी अथवा संघ के किसी भी नेता की अपेक्षा ज्यादा है। राजनाथ सिंह के लिए उत्तर प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन जरूरी है। यह उनके भविष्य से जुड़ा हुआ है। पिछले लोकसभा चुनाव में वे ही पार्टी के अध्यक्ष थे और तक पार्टी के मात्र 10 उम्मीदवार लोकसभा में चुनकर आए थे। यही कारण है कि राजनाथ सिंह नरेन्द्र मोदी को किसी भी हद तक प्रोजेक्ट करने को तैयार हैं। आडवाणी के अब और भी कमजोर होने के बाद वे अब वे मोदी का और भी बेहतर इस्तेमाल अपनी पार्टी की बेहतर जीत को सुनिश्चित करने के लिए कर सकते हैं। जाहिर हे, नरेन्द्र मोदी आडवाणी प्रकरण के बाद और भी मजबूत होकर उभरे हैं और उनके ऊपर पार्टी की निर्भरता और भी बढ़ गई है। (संवाद)
आडवाणी का विद्रोह और आत्मसमर्पण
नरेन्द्र मोदी और भी मजबूत हो गए हैं
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-06-13 09:52
गोवा में नरेन्द्र मोदी को पार्टी चुनाव अभियान समिति का चेयरमैन बनाए जाने के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने बागी तेवर अपनाते हुए जिस तरह से इस्तीफा दिया था, उससे यही लग रहा था कि भाजपा के अंदर कोई संकट आ खड़ा हुआ है और मोदी के लिए आने वाले समय में समस्या खड़ी हो सकती है। पर उन्होंने जिस तरह से इस्तीफा वापस लिया, उससे नरेन्द्र मोदी और भी मजबूत हो गए हैं।