जयपुर चिंतन में राहुल ने जो भाषण दिया उसमें उन्होंने संगठन की अपनी जो कल्पना दी उससे हम असहमत हों सहमत हों, पर पार्टी के लिए संदेश था कि अगर उनके हाथों नेतृत्व आ रहा है तो फिर चेहरा भी उनकी सोच के अनुसार तय होगा। उनकी सोच यही थी कि भारत के आम लोगों की पार्टी बनाने के लिए कांग्रेस को अपना चेहरा और चरित्र व्यापक पैमाने पर बदलना होगा। ध्यान रखिए, राहुल गांधी ने जयपुर के भाषण में काम करने वालों की जगह पार्टी में पैराशूट से उतरे नेताओं को तरजीह देने की आलोचना करते हुए इसमें बदलाव की बात कही थी।

वर्तमान राजनीतिक धारा में किसी भी पार्टी संगठन की रचना करते समय नेतृत्व के प्रति विश्वसनीयता, संगठन और जनता के नब्ज की समझ, लोकप्रियता, सामाजिक समीकरण, छवि, प्रबंधन कौशल, अनुभव, उम्र आदि कई पहलुओं के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता होती है और यह कार्य आसान नहीं होता। भारत की ज्यादातर पार्टियों की स्थिति लगभग एक जैसी है। लंबे समय से पार्टी पर जो चेहरे काबिज हैं वे हटते नहीं, नए लोगों को स्थान मिलता नहीं और इस कारण व्यवहार के तौर तरीके तथा राजनीति, मुद्दों और घटनाओं पर एक ही नजरिया हमारे सामने आता है। राहुल गांधी ने पिछले एक साल से ज्यादा समय से सार्वजनिक तौर पर दलों की इन दूरवस्थाओं को स्वीकार कर इसमंे बदलाव के लिए काम करने की चाहत प्रकट की है। मौजूदा ढांचे में इस लक्ष्य का साकार होना अत्यंत कठिन है। फिर भी आप देखेंगे कि वर्तमान पुनर्रचना में इसकी शुरुआत हुई है। 21 सदस्यीय कार्यसमिति से 7 नेताओं की छुट्टी की गई है। अब कार्यसमिति की औसत आयु 52 वर्ष हो गई है। 12 महासचिव भी लंबे समय बाद बनाए गए हैं। काफी समय से आठ महासचिव होते थे और शेष को राज्यों का प्रभार देकर काम और अधिकार लगभग उतना ही दिया जाता था। इस परंपरा का अंत हो गया है। महासचिवों को संभवतः पहली बार क्षेत्रों का प्रभार दिया गया है। पहले उन्हें एक साथ कई राज्यों का प्रभार मिलता था जो अलग अलग क्षेत्रों में होते थे। इस कायम व्यवस्था का भी फिलहाल अंत हो गया है। जो 42 सचिव बनाए गए हैं उनमें पुराने चेहरे 7-8 ही हैं। यानी 34-35 बिल्कुल नए चेहरे राहुल ने लाए हैं। यह है संगठन का मोटा-मोटी खाका।

अगर व्यक्तियों के स्तर पर देखें तो ऑस्कर फर्नांडिस, विलास मुत्तेमवार, गुलाम नबी आजाद और बीरेंद्र सिंह को महासचिव की जिम्मेवारी से मुक्त करना बहुत बड़ा निर्णय है। आजाद और आॅस्कर लंबे समय से संगठन में थे ही, विलास और वीरेन्द्र भी ऐसा लगता था कि अपने पदों पर स्थापित हो चुके हैं। इस प्रकार केवल चार महासचिव ही पुराने हैं। जरा देखिए, जनार्दन द्विवेदी की जिम्मेवारी कितनी कम हो गई। आजाद को संगठन से लगभग अलग कर दिया जाएगा यह कौन सोच सकता था। अजय माकन को एक साथ संचार, प्रचार और प्रकाशन तीनों का दायित्व मिल जाएगा और सांसद प्रिया दत्त सचिव के तौर पर उनके साथ जुड़ेेंगे इसकी भी कल्पना नहीं थी। मीडिया विभाग अब संचार विभाग हो गया। इस तरह माकन के हाथों पार्टी के प्रचार प्रसार का पूरा दायित्व आ गया है। आगामी विधानसभा एवं फिर लोकसभा चुनाव को देखते हुए इस दायित्व के महत्व का अहसास हो जाता है। प्रकाशन का कार्य पहले महासचिव दिग्विजय सिंह के हाथों था। गुरुदास कामत को आम कांग्रेसी प्रतिक्रियावादी मानते थे। उनका चरित्र विरोध को सार्वजनिक तौर पर प्रकट करना एवं संतुष्ट न होने पर पद त्यागने का रहा है। बावजूद इसके उनको महासचिव बनाने का जोखिम राहुल ही ले सकते थे। तो क्या वे उनकी साफगोई, निर्भिकता और चापलूसी से परे व्यक्तित्व को पसंद करते हैं? उनको गुजरात का प्रभार देने का अर्थ नरेन्द्र मोदी को आक्रामक तरीके से जवाब देने की भावना हो सकती है। गुजरात के मधुसूदन मिस्त्री, राजस्थान के सीपीजोशी तथा मोहन प्रकाश को महत्वपूर्ण जिम्मेवारी देने का उल्लेख यहां आवश्यक है। मिस्त्री को एक साथ महासचिव बनाने के साथ उत्तरप्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य की जिम्मेवारी, चुनाव समिति में स्थान की भी अपेक्षा आम तौर पर नहीं थी। किंतु वे राहुल के विश्वसनीय हैं और बिना प्रचार काम करने के उनके तरीकों से वे बेहद प्रभावित रहे हैं। यही बात मोहन प्रकाश के साथ भी लागू होती है। पार्टी के कई नेता यद्यपि उन्हें पसंद नहीं करते और उत्तर प्रदेश चुनाव में पराजय के बाद उनको निशाना बनाने की कोशिश भी हुई, लेकिन राहुल ने उन्हें निकट से देखा है तथा उनके काम और तौर-तरीकों को पसंद किया।

जिस तरह उन्होंने राज्यों की जिम्मेवारियां दी हैं साफ है कि वे वहां के संगठनों को भी इसी सोच के अनुरूप परिणत करना चाहते हैं। आगामी चुनाव में टिकट वितरण में भी हमें इसका असर देखने को मिलेगा। हालांकि परिवर्तन में विश्वसनीयता का भी ध्यान रखा गया है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा करते समय योग्यता को नजरअंदाज कर दिया गया है। अंबिका सोनी महासचिव बनने के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दफ्तर का प्रभार लेकर ताकतवर होकर उभरी हैं। अहमद पटेल को सोनिया गांधी का राजनीतिक सचिव तो बनाकर रखा गया है पर पार्टी में कहा जा रहा है कि अंबिका सोनी के आने के बाद सोनिया गांधी के दफ्तर में उनका एकछत्र राज नहीं रह जाएगा। लेकिन कांग्रेस नेताओं का तर्क है कि अहमद पटेल की भूमिका का इतना विस्तार हो गया है कि वहां एक समझ बूझ वाले अन्य विश्वसनीय नेता का लाया जाना आवश्यक हो गया था। अंबिका सोनी इन कसौटियों पर खरी उतरतीं हैं।

पुनर्रचना में कठिनाइयांें का अहसास कोई भी कर सकता था। उदाहरण के लिए पार्टी के अल्पसंख्यकों विशेषकर मुलसमान एवं ईसाइयों के इतने ज्यादा चेहरे नहीं थे कि उनके बीच से चयन किया जाए। मोहसिना किदवई, आजाद, सलमान खुर्शीद एवं शकील अहमद जैसे कुछ चेहरे ही सामने थे। सलमान को विदेश मंत्री बनाने के बाद समस्या व्यक्तित्व की थी और उनके सामने शकील अहमद ही एक जाना चेहरा बचता था। उन्होंने अभी तक की जिम्मेवारी में ऐसी कोई गलती नहीं की है जिससे उनकी छवि गलत बने। इसका लाभ उन्हें मिला है। सचिवों में इरशाद मिर्जा, शकील खान , मोइनुल हक जैसे चेहरे लाये गये है। यह बात अलग है कि सचिवों में शकील अंसारी के समय से एक पिछड़े यानी पसमांदा मुसलमान को रखे जाने की बात इसमें नहीं है। इसका भी कारण अनुपलब्धता ही है। सीपी जोशी को बिहार का प्रभार देने का अर्थ दलित अध्यक्ष के साथ ब्रहा्मण संतुलन। राज्य विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की छानबीन समिति के अध्यक्ष वी नारायणसामी को देख लीजिए या राज्यवार सदस्यों को मधुसूदन मिस्त्री, सीपी जोशी, मोहन प्रकाश, अजय माकन, शकील अहमद, गुरुदास कामत...जैसे ज्यादातर नाम वही है जिसे राहुल विश्वसनीय और बेहतर मानते हैं।

तो कुल मिलाकर कांग्रेस का नया चेहरा राहुल गांधी का चेहरा है। हालांकि जो सोच उन्होंने प्रकट की है उसके अनुरूप वे पूरी तरह इससे संतुष्ट होंगे ऐसा नहीं माना जा सकता। किंतु यह साफ है कि उन्होंने उसे साकार करने की कोशिश की है। सामान्य तौर पर भले बहुत परिवर्तन नहीं दिखता हो, किंतु देखें तो संगठन के चेहरे, कार्यस्वरूप और ढांचे में कुछ परिवर्तन हुआ है। यह राहुल की सोच की दिशा है और यदि पार्टी के सामने कोई बड़ा संकट नहीं आया तो इस दिशा में परिवर्तन आगे भी होगा।ये चेहरे उनकी कल्पनाओं पर कितना खरे उतरते हैं और पार्टी के चरित्र में बदलाव की उनकी शुरुआत कितना असरकारी होगा इस बारें अभी कुछ भी कहना उचित नहीं होगा। वास्तव में लोकसभा चुनाव की दृष्टि से गठित तीन समन्वय समितियों का नेतृत्व देने के साथ राहुल गांधी के हाथों कांग्रेस संगठन एवं चुनावी व्यवस्था की कमान सौंपने की ओर जो कदम बढ़ा वह उपाध्यक्ष पद एवं अब अपने अनुसार केन्द्रीय टीम गठिन करने के साथ तार्किक परिणति तक पहुच रहा है। (संवाद)