थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर तैयार की जाने वाली मुद्रास्फीति दर लंबे समय तक दहाई अंक या उसके आसपास रहा। आवश्यक वस्तुओं की खुदरा मूल्य सूचकांक के आधार पर तैयार होना वाली मुद्रास्फीति की दर की स्थिति तो उससे भी बदतर रही। अभी थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर कुछ कम हुई है। हमारे वित्तमंत्री पी चिदंबरम शायद इसे सुरक्षित दायरे में मानते हैं। इसलिए वह भारतीय रिजर्व बैंक पर दबाव बना रहे कि वह ब्याज दर कम करने वाली मुद्रानीति अपनाए।

पर इसी बीच भारतीय रुपये का अंतरराष्ट्रीय बाजार में कमजोर होते जाने हमारे लिए एक दुःस्वप्न से कम नहीं साबित नहीं हो रहा है। जब घरेलू बाजार में महंगाई बढ़ती है, तो इससे रुपया घरेलू बाजार में कमजोर हो जाता है, क्योंकि आपके रुपये की खरीदने की शक्ति कम हो जाती है, लेकिन जब विदेशी बाजार में रुपया कमजोर होता है, तो विदेशों से खरीदे गए सामान महंगे होने लगते हैं। आज हमारा रुपया घरेलू और विदेशी दोनों मोर्चों पर अपने का कमजोर पा रहा है। हमारे नीति निर्माताओं के लिए निश्चय ही यह परीक्षा की घड़ी है और हमारे देश के लोगों के लिए संकट की घड़ी।

व्यावहारिक रूप में अंतरराष्ट्रीय बाजार में रूपये की कीमत को डाॅलर की कीमत से जोड़ दिया गया है। हमारे देश का सारे आयात और निर्यात का सौदा डाॅलर की ईकाई में ही तय होता है। ज्यादातर भुगतान भी डाॅलर के द्वारा ही होता है। आज अंतरराष्ट्रीय बाजार में डाॅलर मजबूत हो रहा है। कुछ सालों से समस्याग्रस्त अमेरिका अब बेहतरी की ओर है, तो उसकी मुद्रा भी मजबूती प्राप्त कर रहा है। इसके कारण रुपया कमजोर हो रहा है। लेकिन जब डाॅलर के मुकाबले पिछले वर्षों दुनिया के अन्य राष्ट्रीय मुद्राएं मजबूत हो रही थीं, तो उस समय भी रुपया कमजोर हो रहा था। उस समय रुपया यदि अपनी मजबूती कायम करता तो आज इतनी खराब स्थिति नहीं देखनी पड़ती।

कारण चाहे जो भी रहा हो, कमजोर रुपया हमारे लिए घातक साबित हो रहा है। बढ़ती महंगाई को यह और भी भयंकर बना रहा है। हमारे देश में महंगाई का एक बड़ा कारण आयातित कच्चा तेल, पेट्रोल और डीजल हैं। हम अपनी गैस जरूरतों को पूरा करने के लिए भी आयात पर निर्भर हैं। सच कहा जाय, तो हम अपनी ऊर्जा जरूरतों का करीब 70 प्रतिशत आयात से ही पूरा करते हैं। खाद्य के बाद आज ऊर्जा हमारी सबसे बड़ी आवश्यक आवश्यकता बन गई है। विकास के साथ साथ ऊर्जा की खपत भी बढ़ती जा रही है। विकास की दर को बनाए रखने के लिए भी ऊर्जा की खपत के स्तर को लगातार बढ़ाए रखना पड़ता है। पर जब रुपया ही कमजोर हो रहा है, तो फिर आयात भी महंगा हो रहा है। महंगे आयात के बोझ को कंपनियां अपने सिर पर ज्यादा दिनों तक नहीं ढो सकती और उसे लोगों पर डालने का मतलब है महंगाई को और भी ईधन प्रदान करना।

पेट्रोल को तो केन्द्र सरकार ने पहले से ही नियंत्रण मुक्त कर रखा था, डीजल को भी उसी रास्ते पर डाल दिया गया है और कंपनियां प्रत्येक महीने तबतक 50 पैसे प्रति लीटर की दर से कीमत बढ़ा रही है, जबतक कि पूरी डीजल सब्सिडी समाप्त नहीं हो जाती। जनता के लिए सरकार का यह निर्णय कष्टकारी रहा है। पर जनता पर इसका बोझ डालने के बावजूद तेल की मार्केटिंग कंपनियों का घाटा समाप्त होना इसलिए कठिन हो रहा है, क्योंकि रुपये के कमजोर होने के साथ ही उनके द्वारा किया गया आयात महंगा होता जा रहा है। तो क्या तेल कंपनियां अपने उत्पादों की कीमतें और भी बढ़ाएंगी? इसका जवाब नकारात्मक तो हो नहीं सकता।

कमजोर हुए रुपये का पूरा प्रभाव अभी तक हमें देखने को नहीं मिला है। इसका कारण यह है कि भारत की तेल कंपनियों ने जो पहले आयात के आॅर्डर दे रखे थे, अभी उसी से वे काम चला रही हैं। इस समय वे खरीद के लिए जो सौदा कर रहे हैं, उसकी आपूर्ति आने वाले महीनों में जब होगी, तब उसकी बढ़ी कीमतों का दर्द उभरता दिखाई पड़ेगा। पता नही ंतब डीजल की कीमत क्या होगी और उसके कारण माल ढुलाई कितनी महंगी हो जाएगी?

केन्द्र सरकार खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लेकर आई है। कई प्रदेश सरकारों और राजनैतिक दलों द्वारा संदेह जाहिर किए जाने के बाद भी इसे लाया गया है, क्योंकि सरकार चाहती है कि जरूरतमंदों को कम कीमत पर अनाज मिल सके। इरादे नेक हैं, लेकिन जब रु्रपया इस कदर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कमजोर होगा, तो फिर हम न तो अपने ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित कर सकेंगे और न ही खाद्य सुरक्षा। इसका कारण यह है हमारे खाद उद्योग भी आयातित गैसों पर आश्रित है। खाद कंपनियों का ज्यादातर इनपुट आयातित होता है। गिरते रुपये के दौर में उसकी उत्पादन लागत बढ़ रही है। इसका बोझ किसान पर पड़ रहा है। जाहिर है अनाज का उत्पादन भी महंगा होगा, फिर सस्ती कीमत पर उसे उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराने के लिए सरकार के ऊपर खाद्य सब्सिडी का बोझ बढ़ता चला जाएगा। क्या सरकार सब्सिडी का उतना बड़ा बोझ सहने में सक्षम है?

उपभोक्ताओं के लिए महंगाई, आयात कंपनियों के लिए बढ़ते आयात बिल और सरकार के लिए बड़ी सब्सिडी का सबब बना रुपये के मूल्य में हो रहा यह ह्रास अपने अंदर ऐसी तबाही मचाने की शक्ति रखता हे, जिसे तीन दशक पहले लैटिन अमेरिकी देशों में देखा गया था। वहां की घरेलू मुद्रा इतनी कमजोर हो गई थी, कोई उसे पूछ तक नहीं रहा था और उन देशों की घरेलू मुद्रा का स्थान डाॅलर ने ले लिया था। 1991-92 में जब मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक नीतियों की शुरूआत की थी, तो कुछ अर्थशास्त्री भारत में भी उसी समस्या की आशंका जता रहे थे, जहां भारी मुद्रस्फीति (घरेलू बाजार में ) और मुद्राह्रास (अंतरराष्ट्रीय बाजार में) का दुष्चक्र रुपये को ही अप्रसांगिक बना दे और लोग रुपयों की जगह डाॅलर रखने की चाहत पालने लगे। फिलहाल हमारे देश के सामने उस तरह की समस्या तो नहीं है, क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी अंदरूनी रूप से मजबूत है और अंतरराष्ट्रीय सेक्टर में होने वाली उथल पुथल का सामना करने की शक्ति रखती है, पर इसके बावजूद रुपया का लगातार कमजोर होता जाना निश्चय ही देश के लिए अशुभ है और इसके परिणाम खतरनाक साबित होने वाले हैं। क्या वित्तमंत्री पी चिदंबरम रुपये के मूल्यहा्रस की सुनामी को रोक पाएंगे? (संवाद)