शिबू सोरेन के झारखंड मुक्ति मार्चाे को 18 स्थान प्राप्त होना चुनाव विश्लेषकों के लिए आश्चर्य में डालने वाला है। किसने कल्पना की थी भ्रष्टाचार एवं अपराध के मामले में केन्द्रीय मंत्री एवं मुख्यमंत्री की गद्दी गंवाने वाले तथा मीडिया की नजर में कलंकित हो चुके सोरेन को इतनी बड़ी सफलता हाथ लग जाएगी? भाजपा एवं झामुमो दोनों 18-18 सीटांे के साथ सबसे बड़ी पार्टी हैं। वास्तव में चुनाव परिणामों के साथ झारखंड की पूरी राजनीति फिर एक बार वहीं आ गई है जहां से झारखंड ने सरकारों के गठन और विघटन का नापाक और शर्मनाक खेल पिछले चार सालों में देखा है। आप देख लीजिए आठ निर्दलीय जीते हैं तो लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल पांच तथा ऑल झारखंड स्टुडेंट युनियन को भी इतना ही स्थान मिला है।
आजसू की सफलता बहुत हैरान करने वाली नहीं है, लेकिन लालू यादव स्वयं मान चुके थे झारखंड में उन्हें सफलता नहीं मिलने वाली। प्रश्न है कि ऐसा क्यों हुआ? क्या इसमें झारखंड जैसे आदिवासी बहुल गरीब प्रदेश के साथ देश की राजनीति के लिए भी संदेश निहित हैं? अगर हम परिणामों के अंकगणित के कुछ और विन्दुओं पर नजर दौड़ा लें तो उत्तर तलाशना आसान हो जाएगा। परिणाम ने इस नाते भी लोगों को चैंकाया कि प्रदेश में दिग्गज माने जाने वाले नेता पराजित हो गए। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप कुमार बालमुचू, विधानसभा अध्यक्ष आलमगीर आलम, पूर्व केन्द्रीय मंत्री रामेश्वर उरांव, पूर्व सांसद फुरकान अंसारी, पूर्व उपमुख्य मंत्री स्टीफन मरांडी, सुखेदव भगत, नीयेल तिर्की, जद-यू प्रदेश अध्यक्ष जलेश्वर महतो, भाजपा के सरयू राय, दिनेश षाडंगी, सत्यानंद भोक्ता, दिलीप सिंह नामधारी, राजद के प्रदेश अध्यक्ष गौतम सागर राणा...। राणा की तो जमानत तक जब्त हो गई।
ऐसा क्यों हुआ? दूसरी ओर अब सबसे ज्यादा राशि गबन के अरोपों वाले राजनीतिक भ्रष्टाचार में फंसे पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा की भारी मतांे से विजयी का अर्थ भी हमें समझना होगा। कोड़ा के साथ आय से अधिक संपत्ति के आरेपों में जेल में बंद पूर्व मंत्री एनोस एक्का और हरिनारायण राय को भी जनता ने विधानसभा पहुंचा दिया। हालांकि आय से अधिक संपत्ति के आरोपों में प्रवर्तन निदेशालय एवं निगरानी विभाग की जांच का सामना करने वाले राकांपा के प्रदेश अध्यक्ष कमलेश सिंह एवं भानुप्रताप शाही हार गए। परिणाम का एक अन्य रोचक पहलू भी है। कुल 81 स्थानों में से 57 स्थानों से नए चेहरे ने विजयश्री पाई है। केवल 23 सीटों से ही पूर्व विधायकों की वापसी हो सकी है। झामुमो के 13, भाजपा एवं कांग्रेस दोनों के 12-12 नए चेहरे जीते हैं।
अगर हम परिणाम के अंकगणित एवं भूगोल का विश्लेषण करें तो सबसे पहला निष्कर्ष यही आएगा कि कि मूल आदिवासी इलाकों में अभी भी शिबू सोरेन ऊर्फ गुरूजी सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं। इन क्षेत्रों से उन्होंने भाजपा को बड़ी पटकनी दी है। तो क्या अपने क्षेत्र में बाहरी धारणा के विपरीत शिबू को जिस प्रकार केन्द्र के मंत्रीपद से और फिर मुख्यमंत्री के पद से न चाहते हुए हटने को विवश होना पड़ा उससे उनके प्रति लोगों में सहानुभूति पैदा हुई? उनके पुत्र एवं पुत्रबधु तक का चुनाव जीतना तो पहली नजर में इसी बात को साबित करता है। किंतु ऐसा ही है तो फिर लोकसभा चुनाव में उन्हें ऐसी सफलता क्यों नहीं मिली? सोरेन एवं कोड़ा की पत्नी व भ्रष्टाचार में फंसे अन्य नेताओं की विजय से इतना तो साफ है कि यह उतना बड़ा मुद्दा नहीं था जितना बाहर से समझ में आ रहा था। वैसे भी भारत में धीरे-धीरे यह धारणा बन रही है कि कोई दल भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है। हमें झारखंड के बाहर भी ऐसे परिणाम बार-बार देखने को मिलते हैं। संसदीय लोकतंत्र में मतदाताओं का ऐसा मनोविज्ञान देश के लिए अत्यंत ही चिंताजनक संकेत है, हालांकि इसमें प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलांे की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल कितने सही और प्रभावी तरीके से भ्रष्टाचार के मुद्दों को उठाता है इस पर मतदाताओं की मनःस्थिति निर्मित होती है।
इस मायने में हम इसे मुख्य विरोधी दल भाजपा की रणनीतिक विफलता मान सकते हैं। इन सबकी सफलता भाजपा की रणनीतिक विफलता के कारण हुई। भाजपा को अगर 2005 के मुकाबले 12 स्थान कम मिले हैं। लोकसभा चुनाव में तगड़ा प्रदर्शन के आधार पर भाजपा प्रदेश में 2005 से बेहतर प्रदर्शन का सपना देख रही थी। उस समय उसे 39 स्थानों पर बढ़त मिली थी, तथा 24 पर वह बहुत कम अंतरों से दूसरे स्थान पर थी। पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा यदि माहौल किसी के पक्ष में होना चाहिए था वह भाजपा ही थी। मधु कोड़ा मामले में कांग्रेस सवालों के घेरे में थी। बाबूलाल मरांडी एवं कांग्रेस गठजोड़ पर सवाल खड़े हो रहे थे। भ्रष्टाचार का मुद्दा सबसे ऊपर दिख रहा था एवं इसमें झामुमो भी कटघरे में थी। लोकसभा चुनाव ने भाजपा के पक्ष में माहौल साबित भी किया। जाहिर है भाजपा नेतृत्व वहां अनुकूल माहौल को अपने पक्ष में करने में विफल हो गया। झारखंड मंें भाजपा की सफलता न मिलना वाकई रणनीतिक विफलता है। इस रणनीतिक विफलता ने ही दूसरे पक्षों की सफलता का आधार प्रदान किया। नए चेहरों की जीत का अर्थ ही है कि लोग बदलाव चाहते थे, पर भाजपा इसका लाभ नहीं उठा पाई। उसके केवल छः पूर्व विधायक ही वापस आ पाए। टिकट बांटने में गलतियों से लेकर आजसू से गठजोड़ न करना आदि कई कारण गिनाए जा सकते हैं। भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक अस्थिरता की जिम्मेवारी को केन्द्रीय मुद्दा बनानंे तो तो वह विफल रही ही। भाजपा के बड़े नेताओं जमशेदपुर से सरयू राय, सिमरिया से पूर्व मंत्री सत्यानंद भोक्ता, बहरागोड़ा से पूर्व मंत्री दिनेश कुमार षाडंगी, डाल्टेनगंज से इंदरसिंह नामधारी के पुत्र दिलीप सिंह नामधारी आदि की पराजय का यदि ईमानदार विश्लेषण किया जाए तो भाजपा नेतृत्व के सामने सब कुछ साफ हो जाएगा। किंतु ईमानदार विश्लेषण्ण करेगा कौन? उसके सहयोगी जद-यू ने पिछली बार से ज्यादा स्थानों पर चुनाव लड़ा लेकिन उसे करारा आघात लगा। पिछली बार उसे छः स्थानों पर सफलता मिली थी, जिसमें से चार उसने इस बार गंवा दिया।
बाबूलाल मरांडी के प्रबल कारक को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। भाजपा नेतृत्व निश्चय ही उस दिन को कोस रहा होगा जब उसने बाबूलाल मरांडी को पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर किया। पहली बार चुनाव में उतरकर उन्होंने 11 सीटें पा लीं। निश्चय ही यदि मरांडी भाजपा में होते तो इस समय परिणाम दूसरा होता। जिन 11 सीटों पर उन्होंने विजय पाई उसके अलावा उन्होंने इससे ज्यादा स्थानों पर भाजपा को सीधे नुकसान पहुंचाया है। मरांडी कारक ने झामुमो की सफलता में भी भूमिका निभाई है। मरांडी एवं झामुमो की सफलता का एक अर्थ क्षेत्रीय राजनीति की सफलता भी है। वास्तव में भाजपा-जद यू एवं कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय गठजोड़ को केवल 34 स्थान मिले एवं 47 अन्य को, जिसे एक हद तक झारखंड में राष्ट्रीय राजनीति पर क्षेत्रीय राजनीति के विजय का परिचायक माना जा सकता है। राजद की पांच सीटें निकाल दें तो भी 42 तो विशुद्ध झारखंड की राजनीति करने वालों की झोली में गया है। झामुमो एवं बाबूलाल मरांडी की सफलता आखिर किसी राष्ट्रीय धारा की सफलता तो नहीं हो सकती। किंतु यह भी राष्ट्रीय दलांे एवं गठजोड़ों की ही विफलता है। इस प्रकार झारखंड की राजनीति ने कई ऐसे गंभीर संदेश हमें दिया है जिसका अर्थ वाकई हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए डरावना है। (संवाद)
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झारखंड चुनाव परिणाम चौंकाने वाला नहीं, चिंतित करने वाला है
मरांडी भाजपा में होते तो परिणाम कुछ और होता
अवधेश कुमार - 2009-12-28 17:00
झारखंड चुनाव परिणामों को कई दृष्टियों से चैंकाने वाल माना गया है और सतही विश्लेषण में ऐसा निष्कर्ष आता भी है। आखिर यह परिणाम उम्मीदों और पूर्वानुमानों के विपरीत तो है ही, भाजपा-जनता दल (युनाइटेड) का 20 स्थानों के साथ दूसरे नंबर पर आना उनकी उम्मीदों पर तुषारापात था, तो कांग्रेस एवं झारखंड विकास मंच गठबंधन भी अपनी झोली में 25 सीटें पाकर किंकत्र्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में पहुंच गया। कौन सोचता था कि लोकसभा चुनाव में सफलता का झंडा गाड़ने वाली भाजपा पिछले चुनाव से भी नीचे चली जाएगी।