पर ये प्रतिक्रियावादी ताकतें, जिनका नेतृत्व जमात ए इस्लामी जैसे संगठन करते हैं, सिर्फ प्रतिक्रियावादी ताकते ही नहीं हैं, बल्कि उनके नेताओं ने क्रांति के समय जघन्य अपराध किए थे। पाकिसतनी सेना के साथ मिलकर इन्होंने हरसंभव अत्याचार और एक से बढ़कर एक अपराध किए थे। उन्होने नर संहारों मंे हिस्सा लिया। महिलाओं क साथ बलात्कार किए। यही कारण है कि बांग्लादेश में उनको सजा दिलाने की मांग कभी भी बंद नहीं हुई। हां उसकी आवाज जब तक धीमी जरूर होती रही, लेकिन कभी भी आवाज शांत नहीं थी।
उन युद्ध अपराधियों को सजा दिलाने की मांग उस समय बहुत तेज हो गई, जब 1971 के एक शहीद की मां जहानारा इमाम ने उन अपराधियों के खिलाफ मुदकमा चलाने की मांग करते हुए लाखों लोगों को खड़ा कर दिया। 2007-8 में यह मांग फ्रीडम फाइटर फोरम ने फिर उठाई। आवामी लीग ने इस मांग को अपने चुनाव घोषणा पत्र में शामिल कर दिया। उसकी भारी जीत हुई। उसे तीन चैथाई बहुमत हासिल हुआ। इस जीत ने 1971 के युद्ध अपराधियों की गिरफ्तारी और उनके खिलाफ मुकदमा चलाने का रास्ता साफ कर दिया। जमात के अनेक नेता गिरफ्तार किए गए। एक दो नेता मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनल पार्टी के भी थे।
मुकदमा शुरू करने में सरकार को कुछ ज्यादा ही समय लग गया। अब उन मुकदमों के नतीजे सामने आ रहे हैं। इस बीच शाहबाग चैक पर एक आंदोलन भी हुआ। उस आंदोलन को प्रतिक्रियावादियों ने गलत रूप से पेश करना शुरू किया। वे कहने लगे कि शाहबाग आंदोलनकारी इस्लाम और कुरान विरोधी हैं। जबकि वैसी कोई बात नहीं थी। वे तो बस युद्ध अपराधियों को मौत की सजा देने की मांग कर रहे थे। उनकी प्रतिक्रिया में कुछ इस्लामी संगठनों ने अपनी तरफ से आंदोलन शुरू कर दिया और उस आंदोलन में कुछ विपक्षी तत्व भी शामिल थे।
शाहबाग के आंदोलनकारियों पर आरोप लगाया कि वे अनीश्वरवादी हैं। हालांकि उनमें से कुछ अनीश्वरवादी भी थे, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी। फिर भी उसी को आधार बनाकर सांप्रदायिक आधार पर लोगों को गोलबंद करने का काम प्रतिक्रियावादियों ने करना शुरू किया। जिसमें वे सफल भी रहे। स्थिति खतरनाक हो रही थी, पर किसी तरह प्रशासन ने उस पर काबू पाने में सफलता पाई।
उधर कुछ अपराधियों को सजा भी सुनाई गई। उस सजा के खिलाफ जमात ए इस्लामी ओर उसके छात्र संगठन ने हिंसक विरोध किए। सार्वजनिक और निजी संपत्तियों पर हमले किए गए। पुलिस पर भी हमले हुए। उनकी संख्या ज्यादा नहीं है और चुनाव के दौरान उनको बहुत ही कम मिलता है, लेकिन वे काफी संगठित हैं और इसके कारण हंगामा मचाने की उनकी क्षमता बहुत बड़ी है। उनके संगठन का आधार आस्था है और लोकतांत्रिक मूल्यों से उनका कोई वास्ता नहीं। पर वे लोकतांत्रिक होने की ढोंग करते हैं।
बांग्लादेश के लिए यह आवश्यक है कि वह 1971 के बोझ को अब उतार फेंके। उस समय और उसके बाद जिन लोगों ने क्रंांति के खिलाफ काम किया, उनको सजा मिलना जरूरी है। इसकी शुरुआत हो भी गई है। सबसे पहले तो शेख मुजीब के हत्यारों के खिलाफ मुकदमा नतीजे पर पहुंचा। उसके बाद कुछ और मुकदमो में भी फैसले आए है। यह जरूरी है कि सभी अपराधियो ंको जल्द से जल्द उनके सही मुकाम तक पहुंचा दिया जाय।
कुछ ही महीनो में नया चुनाव होना है। उसके बाद नई सरकार का गठन होगा। क्या शेख हसीना वाजेद की सरकार फिर से बन पाएगी? इसको लेकर संदेह बना हुआ है, क्योंकि उसकी लोकप्रियता का ग्राफ गिरा हुआ है, क्योंकि लोगों की अपेक्षाओं पर वह खरी नहीं उतरी है। इसका लाभ चुनाव में उसके विरोधी उठाएंगे। और यदि कट्टरपंथियों की सरकार बन गई, तो युद्ध अपराधियों को सजा मिलने के साथ जो उम्मीदें बंधी हैं, वह टूट भी सकती है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि बांग्लादेश किस रास्ते पर जाएगा? (संवाद)
क्या सिक्युलर बांग्लादेश आगे बढ़ सकता है?
1971 के बोझ को उसे उतार फेंकना होगा
सरवर जहां चौधरी - 2013-07-24 07:51
किसी भी आधुनिक राष्ट्र के इतिहास में हम यह देख सकते हैं कि पहले क्रांति होती है और उसके बाद प्रतिक्रियावादी ताकतें अपना सिर उठाती हैं। बांग्लादेश में भी यही हुआ। 1970 के दशक की शुरुआत में हुई क्रांति को बाद की घटनाओं ने पीछे धकेल दिया। 1971 में बांग्लादेश का सृजन हुआ। वह एक क्रांतिकारी घटना थी। लेकिन उसके बाद से ही प्रतिक्रियावादी ताकतें सक्रिय हो गईं। 1975 में तो उन ताकतों ने क्रांति के नायक को ही खत्म कर दिया। उसके बाद के दो दशक तक उन ताकतों ने सेना और एक दक्षिणपंथी पार्टी के बल पर बांग्लादेश पर शासन भी किया।