उसकी सिफारिश को दरकिनार करके नवगठित आंध्र प्रदेश में इस क्षेत्र को भी शामिल कर दिया गया और उस समय से ही उस निर्णय का विरोध किया जा रहा है। पिछले 6 दशकों में अलग राज्य के लिए लगातार आंदोलन होते रहे। कभी आंदोलन धीमा हो जाता था, तो कभी यह तेजी पकड़ लेता था, पर कभी भी वहां के लोगों ने अलग राज्य की मांग नहीं छोड़ी।

अब उनकी 6 दशक पुरानी मांग पूरी होने जा रही है, हालांकि तेलंगाना आंदोलन से जुड़े हुए अनेक नेता अभी भी संशय व्यक्त कर रहे हैं। उनका संशय गैरवाजिब भी नहीं है। अलग राज्य का निर्माण एक प्रक्रिया के तहत होता है। वह प्रक्रिया केन्द्र सरकार शुरू करती है और उस प्रक्रिया का अंत भी वही करती है। इसके लिए संविधान में संशोधन करना पड़ता है और संविधान संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों में इससे संबंधित विधेयक को दो तिहाई सदस्यों का समर्थन होना चाहिए। केन्द्र सरकार नये राज्य के गठन का प्रस्ताव उस राज्य की विधानसभा में भेजती है, जिस राज्य के हिस्से से नया राज्य का निर्माण होना है। उस विधानसभा को अपनी राय देनी होती है। वह या तो इस प्रस्ताव को स्वीकार करे या अस्वीकार, इससे राज्य के गठन की प्रक्रिया में कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि केन्द्र सरकार राज्य विधान सभा के प्रस्ताव को मानने के लिए बाध्य नहीं है। यानी यदि विधानसभा राज्य के विभाजन और अलग राज्य के गठन को अपनी अनुमति देने से मना कर दे, तब भी केन्द्र सरकार संसद के दो तिहाई बहुमत से संबंधित विधेयक को पास कराकर अलग राज्य का गठन कर सकती है।

इस प्रक्रिया में कुछ समय तो लगेगा ही। केन्द्र सरकार के नुमाइंदे ही कह रहे हैं कि इसमें 4 से 5 महीने तक लग सकते हैं। और राजनीति का कुछ भी पता नहीं कि कब क्या हो जाय? केन्द्र सरकार कह रही है कि आगामी मानसून सत्र में संसद में इससे संबंधित विधेयक को पेश नहीं किया जाएगा, बल्कि उसके बाद वाले शीतकालीन सत्र में इसे पेश किया जाएगा। शीतकालीन सत्र का समय दिसंबर का महीना है। इधर आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भी तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। अनेक विपक्षी नेता मान रहे हैं कि लोकसभा का चुनाव 2013 में भी हो सकता है। भाजपा के नेता ही नहीं, बल्कि यूपीए सरकार को सहयोग दे रहे कुछ दल भी इसी तरह की राय रखते हैं। और यदि उनकी बात सच निकली तो फिर शीतकालीन सत्र वर्तमान लोकसभा देख ही नहीं पाएगी। फिर वर्तमान लोकसभा के कार्यकाल में इससे संबंधित विधेयक पेश ही नहीं हो पाएगा। चुनाव के बाद फिर कांग्रेस की ही सरकार आएगी, इसमें बहुत ही संदेह है।

यही कारण है कि कांग्रेस, यूपीए और केन्द्र सरकार द्वारा निर्णय ले लिए जाने के बाद भी अलग तेलंगाना के गठन को लेकर कुछ लोग अभी भी संशय कर रहे हैं। पर यह मानना चाहिए कि वर्तमान सरकार समय से पहले लोकसभा चुनाव में नहीं जाना चाहेगी और दिसंबर या ज्यादा से ज्यादा जनवरी महीने तक अलग तेलंगाना राज्य का गठन हो जाएगा।

पर सवाल उठता है कि क्या यह राष्ट्र के हित में है? नये राज्य के गठन के बाद देश के अनेक हिस्सों में अलग राज्य की मांग के लिए आंदोलन उठ खड़े होंगे। कुछ क्षेत्रों के आंदोलन तो बहुत ही हिंसक होते हैं। पश्चिम बंगाल को विभाजित कर गोरखालैंड की मांग दशकों से हो रही है। वहां का आंदोलन बहुत ही हिंसक होता है। वे अभी से अलग राज्य की मांग के लिए सक्रिय भी हो गए हैं। असम को विभाजित कर बोडोलैंड की मांग भी की जाती रही है। हालांकि वहां के उग्रवादी तत्व अलग बोडोलैंड देश की मांग ही करते रहे हैं, पर अब वे संविधान के दायरे में बातचीत करने को राजी हो रहे हैं। इसका मतलब है कि अब वे अलग देश को छोड़कर अलग बोडोलैंड राज्य की मांग करेंगे। महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में भी अलग राज्य के लिए आंदोलन हो रहा है और उत्तर प्रदेश के बिहारी भाषी जिलों में पूर्वांचल राज्य की मांग होती है। बुंदेलखंड और बघेलखंड राज्य की मांग भी उत्तर प्रदेश मंे होती रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग हरित प्रदेश की मांग करते हैं। आंध्र प्रदेश में ही रायलसीमा नाम के प्रांत की मांग होती है, जिसमें कर्नाटक के बेलारी को भी शामिल करने की बात की जाती है।

यानी अलग तेलंगाना के गठन के साथ देश भर में अलग राज्यों की मांग तेज हो जाएगी। इस तरह भानुमति का पिटारा खुल जाएगा और देश भर में अलगाववादी शक्तियों को अपने स्वार्थ की रोटी संेकने का मौका मिल सकता है।

आंदोलन की बात तो अपनी जगह है, असल सवाल यह है कि क्या छोटे राज्यों से फायदा होता भी है? हमारे सामने तीन नये उदाहरण हैं- उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़। इनके गठन को 11 या 12 साल हो चुके हैं। इन तीनों राज्यों को देखा जाय, तो अलग छोटे राज्य बनने से उनका नुकसान ही हुआ है। उत्तराखंड मे नये राज्य के गठन के साथ विकास के नाम पर पर्यावरण को जिस तरह से क्ष्तिग्रस्त किया गया, उसका दुष्परिणाम हम देख चुके हैं। संकट की घड़ी में राज्य सरकार के पास न तो पर्याप्त संख्याबल था और न ही अन्य संसाधन। इसके कारण विनाशलीला की वीभीषिका और भी गंभीर हुई। यदि उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा होता, तो जानमाल को हुए नुकसान को रोका जा सकता था।

झारखंड का उदाहरण भी हमारे सामने है। जब से उसका गठन हुआ है, वह राजनैतिक अस्थिरता का शिकार है और वहां प्राकृतिक संसाधनों की लूट तेज हो गई है। बिहार की स्थिति उससे बहुत बेहतर है। नये राज्य झारखंड के लोगों की स्थिति बद से बदतर हुई और उसका विकास बाधित हुआ है। नक्सल गतिविधियां भी वहां तेज हुई है। छत्तीसगढ़ में भी नया राज्य बनने के बाद माओवादी तत्व मजबूत हुए हैं। वे मजबूत हुए हैं, क्योंकि वहां के लोगों की बदहाली बढ़ी है। संयुक्त मध्यप्रदेश के पास माओवादी चुनौतियों का सामना करने के लिए ज्यादा संसाधन थे, पर छोटे राज्य के पास उतने संसाधन नहीं हैं। तेलंगाना में भी माओवाद की समस्या है। खतरा है कि नये राज्य के गठन के बाद पूरा राज्य की माओवादियों की समानान्तर सरकार के गिरफ्त में आ सकता है। (संवाद)