अभी उच्च न्यायपालिका में जजों की बहाली एक काॅलेजियम के द्वारा होती है, जिसमें जज ही शामिल होते हैं। कार्यपालिका का जजों की बहाली में फिलहान कोई भूमिका नहीं। लेकिन प्रस्तावित विधेयक में एक आयोग के गठन का प्रस्ताव है, जो जजों की बहाली के साथ साथ उनके स्थानांतरण और पदस्थापन का काम भी करेगा। उसके अतिरिक्त जजों के खिलाफ कोई आरोप लगे, तो उसकी जांच भी वह आयोग करेगा। उस आयोग में केन्द्रीय कानून मंत्री, केन्द्र सरकार का एक प्रतिनिधि, विपक्ष का नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के दो अन्य जज रहेंगे। यह आयोग कालेजियम व्यवस्था का स्थान ले लेगा।

यह सच है कि कालेजियम सिस्टम में कुछ खामियां है। यह भी सच है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आते रहे हैं और न्याय में अच्छा खासा विलंब होता है। लेकिन इन खामियों को न्यायिक व्यवस्था में सुधार कर समाप्त या कम किया जा सकता है। इन खामियों को बहाना बनाकर न्यायपालिका को कार्यपालिका के नियंत्रण में लाना गलत है। कालेजियम सिस्टम ने अपने को अभी तक सही साबित किया है। इसलिए इसे जारी रखा जाना चाहिए। हां, इसे ज्यादा दुरुस्त बनाने के लिए एक सलाहकार समिति का गठन किया जा सकता है, जिसमें नामी वकील, वरिष्ठ सांसद, नौकरशाह और सिविल सोसाइटी के लोग रखे जा सकते हैं। सलाहकारी समिति कालेजियम के गठन से संबंधित सुझाव भी दे सकती है, लेकिन जजों की बहाली का मामला पूरी तरह से न्यायपालिका पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए।

न्यायपालिका ने कार्यपालिका की त्रुटियों को दूर करने का काम कई बार किया है। इसने राजनैतिक व्यवस्था को भी दुरुस्त करने का प्रयास किया है। यह दूसरी बात है कि अनेक लोगों को इस तरह का अदालती हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं होता और वे इसे न्यायिक सक्रियता का नाम देते हैं। लेकिन लोकतंत्र में न्यायपालिका का अपना स्थान है और एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका के बिना लोकतंत्र अधूरा माना जाएगा।

दरअसल पिछले दिनों कुछ ऐसे अदालती आदेश आए हैं, जिन्होंने राजनीतिज्ञों की नींद उड़ा दी है। एक आदेश तो सजा पाए सांसदों और विधायकों को चुनाव लड़ने से वंचित किए जाने का है। अभी तक सांसद और विधायक सजा पाने और उस सजा पर अपील में जाने के बाद चुनाव लड़ सकते थे, जबकि अन्य लोगों को इस प्रकार की सुविधा उपलब्ध नहीं है, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि वे चुनाव नहीं लड़ सकते। इसके अलावा सजा पाने के बाद भी सांसद और विधायक अपने पद पर बने रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि सजा सुनाए जाने के साथ ही उनकी संसद या विधायिका की सदस्यता अपने आप समाप्त समझी जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट का एक अन्य आदेश चुनाव के पहले राजनैतिक पार्टियों द्वारा किए जाने वाले वे वायदे हैं, जो घूस जैसे लगते हैं। मुफ्त का भोजन, लैपटाॅप और कम्प्यूटर जैसे चुनावी वायदों को लेकर भी अदालत ने आपत्ति की है और इस तरह के वायदों पर रोक लगाने की मांग की है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक अंतरिम आदेश में राजनैतिक दलों द्वारा जातीय रैलियों के आयोजन पर रोक लगा दी है। राजनैतिक दल चुनावों के लिए जातीय आधार पर समर्थन हासिल करते हैं और इसके लिए वे समाज में जातीय वैमनस्य पैदा करते हैं और भेदभाव वाली घोषणाएं भी करते हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इसे गलत मानते हुए, इस पर अस्थाई तौर पर उत्तर प्रदेश में रोक लगा दी है।

मुख्य सूचना आयुक्त ने अपने एक फैसले में राजनैतिक दलों को भी सूचना कानून के दायरे में माना है और छह राजनैतिक दलों को आदेश दिया है कि वे लोगांे द्वारा मांगी गई सूचनाएं उन्हें उपलब्ध कराएं। इस फैसले पर पार्टियां सबसे ज्यादा उग्र हो रही हैं। और एक विधेयक अलग से पेश कर रखा है, जिसमें पार्टियों को सूचना के कानून के दायरे से बाहर रखने का प्रस्ताव है।

जाहिर है राजनेता अदालती आदेशों से तिलमिलाए हुए हैं और उनके पंख कतरना चाहते हैं। प्रस्ताविक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग उसी दिशा में उठाया गया एक कदम है। (संवाद)