इतने संकटों के बीच भी यदि प्रधानमंत्री आशावादी हैं और उन्हें लगता है कि 1991 के संकट को वापस नहीं आने दिया जाएगा, तो उनकी इस आशावादिता की दाद देनी होगी, पर क्या वास्तव में 1991 के संकट को फिर आने से प्रधानमंत्री रोक पाएंगे या देश उससे भी ज्यादा गंभीर संकट में फंस जाएगा? यह सवाल जवाब मांगता है, क्योंकि आज हमारे देश का संकट वास्तव में 1991 के संकट से ज्यादा व्यापकता प्राप्त कर रहा है। 1991 का संकट विदेशी मुद्रा भंडार का संकट था। तीन सप्ताह से ज्यादा आयात के बिल का भुगतान करने के लिए विदेशी मुद्रा हमारे पास उपलब्ध नहीं थी। विदेशी कर्ज की वापसी और आयात बिल की भरपाई करने में डिफाॅल्ट करने का खतरा पैदा हो गया था और डिफाॅल्ट से बचने के लिए देश के सोने को विदेशों में गिरवी रखना पड़ा था। यदि सोने को हम गिरवी नहीं रखते तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में हमारी भारी भद्द पिट जाती। खैर, सोना हमारे काम आया और उसी संकट के दौर में नरसिंह राव सरकार में मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने। वित्त मंत्री के रूप में उन्होंनंे नई आर्थिक नीतियों के तहत आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को शुरू किया। उसके कारण हमारी स्थिति सुधरी। गिरवी रखे सोने को हमने छुड़ाया और विदेशी मुद्रा का एक बड़ा भंडार तैयार कर हमने अंतरराष्ट्रीय बााजार में दिवालिया होने के खतरे को समाप्त कर दिया।
उस समय एक अमेरिकी डाॅलर की कीमत 12 रुपये हुआ करती थी। रुपये की विदेशी विनिमय दर सरकार तय करती थी। मनमोहन सिंह ने रुपये की कीमत दो झटके में करीब 50 फीसदी तक गिरा दिया और एक अमेरिकी डाॅलर करीब 18 रुपये का हो गया। बाद के समय में उन्होंने रुपये की विनिमय दर को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया। उसे बाजार के हवाले कर दिया गया। आज बाजार के हाथों रुपया गिरकर एक डाॅलर के 62 रुपये की सीमा को भी लांघ चुका है। 1991 में आर्थिक सुधारों की सफलता का एक कारण रुपये का सरकार द्वारा किया गया अवमूल्यन था। उस नीति ने हमारे निर्यात को प्रोत्साहित किया और विदेशी मुद्रा अर्जित करने की हमारी भूख को तेज किया। रुपया अंडर वैल्यूड था, इसलिए उसके अवमूल्यन में कोई परेशानी नहीं आई।
आज समस्या यह है कि रुपया बहुत तेजी से नीचे गिर रहा है और गिरते रूपये के कारण आयात बिल महंगा होता जा रहा है। हमारे ऊपर चढ़ा विदेशी कर्ज भी रुपये की ईकाई में और भी अपने आप ज्यादा हो जाता है। इसके कारण आयातित वस्तुएं महंगी होती हैं और आयातित इनपुट से बने उत्पाद भी महंगे हो रहे हैं। यानी रुपया के कमजोर होने से महंगाई और भी विकट रूप धारण कर रही है। यह देश की अर्थव्यव्यवस्था में अस्थिरता का भी संकेत है और इसके कारण भारत में किए गए वित्तीय निवेश को विदेशी वापस निकालना शुरू कर रहे हैं। इसका असर शेयर बाजार पर पड़ रहा है। शेयर बाजार धूल चाट रहा है। शेयर बाजार के कमजोर होने से देश का कार्पोरेट सेक्टर भी कमजोर होगा और उसकी मार्केट पूंजी कम होगी।
यदि इस क्रम को नहीं रोका गया, तो स्थिति 1991 से भी भयावह होगी, क्योंकि उस समय तो सरकार के पास विदेशी मुद्रा दर के अवमूल्यन का एक उपकरण मौजूद था, पर आज तो रुपया ही संकटमय हो गया है। उस समय संकट विदेशी मुद्रा की कमी से शुरू हुआ था। इस बार विदेश मुद्रा का पर्याप्त भंडार होने के बावजूद रुपया संकटग्रस्त है और जरूरत इसके पतन को रोकने की है। यदि यह पतन नहीं रुका तो हमारे पास जो भी विदशी मुद्रा भंडार है, वह खाली हो जाएगा और फिर हम 1991 की तरह अंतरराष्ट्रीय बाजार में दिवालिया होने की कगार पर पहुंच सकते हैं।
लेकिन लगता नहीं है कि मनमोहन सिंह इस आर्थिक संकट को दूर करने के लिए सही दिशा में सोच रहे हैं। यह सबकुछ देश की आर्थिक नीतियों का ही नतीजा है। इस तरह के खतरे की आशंका 1991 से ही व्यक्त की जा रही है। यह तो कृषि आधाारित भारतीय अर्थव्यवस्था की अंदरूनी शक्ति और बचत करने की भारतीयों की स्वाभाविक प्रवृति का नतीजा है कि मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों ने 20 साल तक काम किया और देश को उच्च विकास दर पर ले जाने में सफलता पाई, लेकिन उन नीतियों की अंतर्निहित कमजोरियों को कभी न कभी तो रंग दिखाना ही था और पिछले दो साल से वह रंग दिखा रही है।
इसलिए अब समय आ गया है कि केन्द्र सरकार अपनी आर्थिक नीतियों की दिशा को बदले। ये नीतियां देश में भ्रष्टाचार बढ़ा रही हैं और दलालों के एक बड़े तबके को तैयार कर रही हैं। आर्थिक सुधार के पहले प्रशासनिक सुधार किया जाना चाहिए था, लेकिन वह सुधार किया ही नहीं गया। इसका असर यह हुआ है कि आज का प्रशासनतंत्र दलालतंत्र में तब्इील हो चुका है। प्रधानमंत्री खुद भी एक बार यह स्वीकार कर चुके हैं कि नई आर्थिक नीतियों के कारण भ्रष्टाचार बढ़ा है। जब वे खुद इस बात को स्वीकार कर रहे हैं, तो उन्हें यह भी समझना चाहिए कि नीतियों की दिशा को बदले बिना हम भ्रष्टाचार समाप्त नहीं कर सकते। भ्रष्टाचार काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था को पैदा करता है और यह समानान्तर अर्थव्यवस्था अब सफेद धन वाली अर्थव्यवस्था से भी बड़ा हो चुका है। ऐसा कुछ अर्थशास्त्री मानने लगे हैं। वह समानान्तर अर्थव्यवस्था सरकार के नियंत्रण से बाहर है और वर्तमान आर्थिक नीतियों के परिवेश में सरकार न तो उसपर नियंत्रण कर सकती और न ही उसका नियमन कर सकती है। इसलिए वर्तमान संकट हमारे नीति निर्माताओं के लिए जागने की घंटी जैसा है। उन्हें नीतियों की दिशा को बदलने पर गंभीर होना ही पड़ेगा, अन्यथा वर्तमान अर्थसंकट गंभीर से गंभीरतर होती जाएगी। (संवाद)
आर्थिक विनाश की ओर बढ़ रहा है भारत
कब चेतेंगे हमारे नीति निर्माता
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-08-21 08:04
देश की अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही है। आजादी के बाद इस तरह की भयावह तस्वीर आज तक कभी नहीं दिखी थी। मुद्रास्फीति की दर और तेज हो रही है और खासकर खाने की आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में और भी तेजी आ रही है। इसके साथ अर्थ व्यवस्था की विकास दर गिरती जा रही है। यानी देश के सामने चौतरफा आर्थिक संकट है। हम किसी भी दिशा में अपने आपको संकट से मुक्त नहीं पा रहे हैं। यदि अनाज के रिकार्ड उत्पादन की बात को मान भी लें, तो उस रिकार्ड उत्पादन का लाभ न तो उत्पादक किसानों को मिल रहा है और न उपभोक्ताओं को। यानी कृषि क्षेत्र की विकास दर का फायदा भी आम लोगों को नहीं मिल पा रहा है।