श्री नायडु नरेन्द्र मोदी के प्रोटोटाइप कहे जा सकते हैं। वे आजकल अलग थलग दिखाई पड़ रहे हैं। सच कहा जाय, तो आज जो नरेन्द्र मोदी हैं, कभी नायडु वैसे ही हुआ करते थे। आज जिस तकनीकी का सहारा मोदी ले रहे हैं, उस तकनीकी को अपनाकर ही नायडु ने अपनी एक खास पहचान बनाई थी। दोनों में फर्क यह है कि मोदी के पास साथ देने के लिए एक बड़ी पार्टी है, जबकि नायडु की अपनी पार्टी भी आन्ध्रप्रदेश के चुनावों मे दो बार से हारती रही है।

आज नरेन्द्र मोदी ने भले ही मीडिया में अपने को प्रोजेक्ट करने मे महारत हासिल कर रखी हो, लेकिन इसी तरह की महारत 1990 के दशक मे श्री नायडु ने दिखाई थी। इसके लिए उन्होंने अपने ऊपर करोड़ों रुपये खर्च किए थे। उन्होंने विदेशों से धन प्राप्त कर हैदराबाद को वैसा बनाया, जैसा वह आज दिख रहा है। राष्ट्रीय मोर्चा के दिनों से ही वे देश की राजनीति को पीछे से देख रहे थे और 1996 में संयुक्त मोर्चा के तो वे संयोजक ही बन गए। फिर 1998 से 2004 तक वे राजग के महत्वपूर्ण समर्थक बन गए। उस दौरान मीडिया की सुर्खियां बटोरने मे उनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता था। वह सबसे माॅडर्न नेता के रूप में देश भर मंे अपनी पहचान रखते थे। आन्ध््राप्रदेश को उन्होंने अच्छा प्रशासन दिया और केन्द्र सरकार से अपने अच्छे रिश्तों के बूते राज्य की विकास की गतिविधियों को बढ़ावा दिया।

लेकिन इस सबका फायदा उन्हें 2004 और 2009 के चुनावों में उन्हें नहीं मिला। पिछले 10 सालों से उनके राजनैतिक कदम सही काम नहीं कर पा रहे हैं। 2009 में उन्होंने तेलंगाना मे वाम दलों और टीआरएस के साथ चुनावी गठबंधन कर डाला था, लेकिन तब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी ने फिल्म स्टार चिरंजीवी की प्रजा राज्यम पार्टी का इस्तेमाल कर उन्हें पटखनी दे डाली। सीमान्ध्र्रा में उन्होंने विभाजन के खिलाफ उन्माद पैदा कर नायडु का काम तमाम कर दिया, क्यांेकि उस समय वे तेलंगाना के अलग राज्य का आंदोलन चलाने वाले टीआरएस के साथ खड़े थे।

लेकिन 2009 में ही राजशेखर रेड्डी की मौत हो गई। तब बाबू को लगा कि अब शायद वे राजनीति मे प्रासंगिक हो जाएंगे, लेकिन राजशेखर के बेटे जगनमोहन ने अब राजनीति पर अपनी पकड़ बना ली है और इसके कारण बाबू का काम और भी कठिन हो गया है। अब तो जगनमोहन जेल से बाहर भी आ गए हैं। उनके जेल से उनके बाहर आने के बाद तो बाबू अब और भी परेशान हो रहे होंगे।

अभी जो राजनैतिक परिदृश्य दिखाई पड़ रहा है, उसके अनुसार तेलंगाना में टीआरएस और कांग्रेस का गठबंधन लगभग सारी सीटो ंपर जीत हासिल कर लेगा और सीमान्ध्रा मंे जगन की तूती बोलेगी। चुनाव के बाद जगन और कांग्रेस के बीच तालमेल की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता। इसलिए बाबू के लिए राजनीति में जगह ज्यादा नहीं दिखाई दे रही है।

इसलिए बाबू को अब तीसरी लगातार हार दिखाई पड़ रही है। तेलंगाना के मामले पर उनकी ढुलमुल रवैया उनकी सहायता नहीं कर रहा है। वे इस मसले पर साफ साफ रवैया नहीं अपना रहे हैं और लगातार केन्द्र से यह मांग करते रहे हैं कि वह अपनी स्थिति स्पष्ट करे। 2009 में उन्होंने अलग तेलंगाना के निर्माण के पक्ष मे एक पत्र लिखा था, उसे उन्होंने अभी वापस नहीं लिया है। इसके कारण भी सीमान्ध्रा में उनके प्रति संशय बना हुआ है।

अब नायडु अपने लिए वैकल्पिक जगह की तलाश में लगे हुए हैं। वे किसी तरह अपने को प्रासंगिक बनाना चाहते हैं। जब तीसरे मोर्चे का विकल्प सामने आया था, तो उन्होंने इसका स्वागत किया था। वे वाम दलों के नेताओ से भी मिले, लेकिन वाम दलों के नेताओ ने इसमे दिलचस्पी नहीं दिखाई। उनका कहना था कि क्षेत्रीय पार्टियां चुनाव के बाद के राजनैतिक समीकरण में ज्यादा दिलचस्पी ले रही हैं, चुनाव पूर्व गठबंधन मे ंनहीं। जब ममता बनर्जी से संघीय मोर्चे का प्रस्ताव रखा था, तब भी बाबू उत्साहित दिखे थे, पर ममता उस पर आगे नहीं बढ़ पाईं।

अब नायडु के पास एक विकल्प राजग में फिर वापस आने का है, जिसे वे 2004 में छोड़ चुके थे। 2004 की अपनी हार के लिए भाजपा के साथ अपने संबंधों को उन्होंने जिम्मेदार ठहराया था। पर लगता है कि अब वे मोदी लहर पर सवार होकर अपने आपको एक बार फिर राजनीति मे प्रासंगिक बनाना चाहते हैं। (संवाद)