इधर भ्रष्टाचार के मामले बहुत ज्यादा बढ़ गए हैं और इनके खिलाफ बड़े बड़े आंदोलन भी हुए हैं, लेकिन इन आंदोलनो ंकी कितनी परवाह हमारे राजनैतिक शासक करते हैं, उसकी एक बानगी वह अध्यादेश था। यह वैसे समय में लाया गया, जब 5 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव सिर पर हैं और लोकसभा का चुनाव भी बहुत दूर नहीं है। लोग भ्रष्टाचार को लेकर कितने उत्तेजित हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है, हालांकि सच यह भी है कि लोगों के पास चुनाव के समय विकल्प बहुत सीमित हो जाते हैं, क्योंकि वे अपने सामने साफ पार्टियों और उम्मीदवारों का अकाल देखते हैं। फिर भी इतना तो होता ही है कि वे सत्ता बदल देते हैं यानी जो सत्ता में बैठा हुआ है, उसे सत्ता से बाहर कर देते हैं, भले जो चुनाव के बाद सत्ता में आया हो, वह भी ईमानदार न हो।
भ्रष्टाचार विरोध आंदोलन का सबसे बड़ा हमला कांग्रेस पर ही होता है, क्योंकि वह केन्द्र की यूपीए सरकार का नेतृत्व कर रही है। इसके कारण आगामी चुनावों में उसको ही सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ेगा। इसलिए उसके हक में यही है कि वह अपने आपपर भ्रष्टाचार के लग रहे आरोपों से पाकसाफ दिखाने की कोशिश करे, पर उस काले अध्यादेश का संदेश यही था कि चाहे लोग जो सोंचे, कांग्रेस को भ्रष्ट और भ्रष्टाचार पसंद है। पता नहीं राष्ट्रपति उस अध्यादेश पर दस्तखत करते या नहीं। पर यदि दस्तखत करते भी तो शायद उस अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त कर दिया जाता। आखिर, सुप्रीम कोर्ट द्वारा जन प्रतिनिधि कानून के कुछ प्रावधानों को निरस्त करने के बाद ही तो राजनैतिक शासक वर्ग के सामने यह समस्या खड़ी हुई है। जब कोर्ट 1951 के जनप्रतिनिधि कानून के कुछ प्रावघानों को असंवैधानिक मानते हुए निरस्त कर सकता है, तो फिर इस अध्यादेश को भी असंवैधानिक मानते हुए वह निरस्त कर सकती थी। कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति ने कानून के सलाहकारों से राय मशविरा की थी और उन्होंने उन्हे ंबताया था कि इस काले अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट खारिज कर सकता है। इसके कारण राष्ट्रपति खुद उस पर दस्तखत करने में अपनी झिझक दिखा रहे थे।
जाहिर है, वह काला अध्यादेश कांग्रेस के लिए और काल बनकर सामने आता, पर राहुल गांधी ने कांग्रेस को पूरी फजीहत से बचा लिया। उन्होंने सार्वजनिक रूप से उस अध्यादेश की जो बखिया उधेड़ी, वह भले ही लोकतांत्रिक मर्यादाओं क अनुकूल नहीं था, लेकिन उसके कारण कांग्रेस और सरकार सकते में आ गई। अच्छा तो यह होता कि राहुल प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी से मिलकर इस अध्यादेश के खिलाफ अपना मत व्यक्त करते। उन्हें अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं थी। आखिरकार वे विपक्ष के नेता नहीं हैं। इसलिए उन्हें मर्यादा का तो ख्याल रखना ही चाहिए था, लेकिन लगता है कि कांग्रेस के अंदर उनकी ज्यादा नहीं चलती। बड़े बड़े और संवेदनशील मसले पर कांग्रेस के घाघ नेता उनकी राय नहीं लेते अथवा उनकी राय की उपेक्षा कर देते हैं। खुद सोनिया गांधी भी उनकी बातों को नहंी मानती। यदि इसके कारण ही उन्हें सार्वजनिक रूप से कांग्रेस और सरकार को लताड़ लगानी पड़ी, तो बात समझ में आ सकती है, लेकिन विरोधी पार्टियों के लोग इसे कांग्रेस की इज्जत बचाने का राहुल गांधी का ड्रामा बता रहे हैं।
सच चाहे जो भी हो, सरकार ने वह काला अध्यादेश वापस ले लिया है और अब दो साल या उससे ज्यादा की सजा पाने वाले सांसद या विधायक अपनी सदस्यता तत्काल खो देंगे और आम आदमी की तरह अगला चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे। इसके कारण भ्रष्टाचार और अपराध में लिप्त होने से कुछ तो वे डरेंगे, हालांकि सजा देने की दर इतनी कम है कि एक दो सजाओं से ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला है। आज भ्रष्टाचार ही नियम बना हुआ है, जबकि भ्रष्ट लोगों को सजा मिलना अपवाद माना जा रहा है। बात तो तब बनेगी जब सजा मिलना भी नियम बन जाएगा। यानी भ्रष्टाचार करने वाले लोग यह समझने लगें कि उनकी वह हरकत उनको सजा दिलाकर छोड़ेगी, तभी वैसा करने से डरेंगे।
हमारी कानूनी प्रक्रिया इतनी सुस्त और लचर है कि फैसला जल्द आता ही नहीं। रशीद मसूद के मामले में ही देख लीजिए, उन्होंने अपराध 1990 में किया था और फैसला 2013 में आ रहा है। यानी 23 साल लग गए। लालू यादव के खिलाफ चारा घोटाला का आरोप 1996 में लगना शुरू हुआ था। सजा अब मिली है। उनपर मुकदमा 1997 में दर्ज हो गया था। यानी उनको सजा मिलने में भी 16 से 17 साल लग गए। इस बीच वे कई बार सांसद बने। वे 5 साल तक तो रेलमंत्री भी रहे। यानी जिस व्यक्ति ने बिहार में मुख्यमंत्री रहते हुए भ्रष्टाचार किया था और उसके लिए मुकदमें का सामना कर रहा था, वह 5 साल तक जेल में भी रहा। यह बहुत ही अटपटी बात है, लेकिन सचाई यही है। जबतक फैसला न आ जाए आप किसी को दोषी नहीं कह सकते और उसके कारण उसके अधिकारों को कम नहीं किया जा सकता।
इसलिए इस समस्या का समाधान यही है कि मुकदमे की गति तेज हो और जितनी जल्दी फैसला संभव हो सके, उसकी कोशिश होनी चाहिए पर हमारी कानून व्यवस्था के तहत फैसला आने में जितना विलंब संभव है, उतने ही विलंब से फैसला आता है। लेकिन कम से कम कानून बनाने वालों विधायकों और सांसदों के मुकदमे में तो विलंब न किया जाय।
फास्ट ट्रैक कोर्ट की व्यवस्था हमारे देश में है। उसके तहत जल्द फैसला आता है। 16 दिसंबर को दिल्ली में गैंपरेप के बाद हत्या की शिकार एक लड़की का मामला फास्ट ट्रैक कोर्ट मंे गया और एक साल के पहले ही फैसला गया। फास्ट ट्रैक कोर्ट के फैसले 2 दिन में भी आए हैं। इसलिए क्या यह संभव नहीं है कि सांसदों और विधायकों के सारे मामले फास्ट ट्रैक कोर्ट में ही चलाए जायं। यह संभव है, लेकिन राजनैतिक वर्ग ऐसा प्रावधान नहीं बनाएगा। यह सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता है। यदि इस तरह का प्रावधान किया गया, तो अपराधी चुनाव लड़ने में डरेंगे। उन्हें लगेगा कि विधायक या सांसद बनने के बाद उनका मामला अपने आप फास्ट ट्रैक कोर्ट मंे चला जाएगा और उनकी बहुत जल्द सजा भी मिल सकती है। इससे संसद और विधानसभाओं मंे अपराधियों का प्रवेश कम हो जाएगा। पर सवाल यह है कि क्या ऐसी व्यवस्था बनेगी? (संवाद)
काले अध्यादेश की वापसी और उसके बाद
विधायिका के सदस्यों के मुकदमे फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलें
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-10-03 10:50
दोषी सांसदों और विधायकों को बचाने वाले काले अध्यादेश को वापस लिए जाने के फैसले से सभ्य समाज राहत की सांस ले रहा है। आजादी के बाद का संभवतः यह सबसे काला अध्यादेश था, जिसका एक मात्र मकसद लोकतंत्र में आपराधिक तत्वों को बढ़ावा देना और भ्रष्टाचार के लिए सत्ता पर काबिज लोगों को प्रेरित करना था। हमारा राजनैतिक शासक वर्ग व्यवस्था की बुराइयों को दूर करने में तो दिलचस्पी नहीं लेता, पर जब न्यायपालिका द्वारा उन बुराइयों के खिलाफ कुछ आदेश जा जाते हैं, तो वह किस तरह बौखला जाता है, इसका ताजा उदाहरण वह अध्यादेश था।