लालू को यह सजा ऐसे समय में मिली है, जब वह बिहार में अपनी खोई हुई जमीन हासिल कर रहे थे। बिहार के महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र से उनके दल के उम्मीदवार को शानदार जीत हासिल हुई थी औ उसके बाद भाजपा और जद(यू) के अलग हो जाने से भी उनका काम आसान लग रहा था। सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के बाद हालांकि केन्द्र सरकार ने एक अध्यादेश के द्वारा उसके प्रभाव को समाप्त करने की कोशिश की, लेकिन उसमें वह विफल हो गई। खुद राहुल गांधी ने उस अध्यादेश को बकवास कह डाला और सरकार ने उसे वापस भी ले लिया।

अब लोग इस पर अटकलबाजी कर रहे हैं कि क्या लालू के दिन लद गए। गौरतलब हो कि लालू और उनकी पत्नी राबड़ी ने बिहार सरकार का 15 सालों तक नेतृत्व किया। लालू 2004 2009 के बीच केन्द्र सरकार में रेलमंत्री भी रहे। अपने राष्ट्रीय जनता दल का गठन उन्होंने 1997 में किया। उस समय से अभी तक वे उसके अध्यक्ष बने हुए हैं। किसी दल के अध्यक्ष सबसे ज्यादा लंबा समय तक बने रहने का रिकार्ड उन्हीं के नाम है। उसके पहले वे जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे।

भारतीय जनता पार्टी ने नीतीश कुमार की सहायता से लालू को बिहार की राजनीति में कमजोर किया। 2005 में लालू की पार्टी बिहार की सत्ता से बाहर हो गई। 2009 के लोकसभा चुनाव में भी उनके दल की बुरी गत हुई। लालू एक लोकसभा क्षेत्र से खुद अपना चुनाव भी हार गए थे। 2010 के विधानसभा चुनाव में तो उनकी और भी दुर्गति हुई। उनकी पत्नी राबडी दोनों क्षेत्रों से चुनाव हार गईं। उनकी पार्टी को मात्र 22 सीटें मिली थी। इसके बावजूद उनके दल को 20 फीसदी के आसपास मत मिले थे।

मुस्लिम बिहार की राजनीति का एक बड़ा फैक्टर है। लालू और नीतीश के दलों के बीच मुस्लिम मतों के लिए मारामारी हो रही है। कुछ हिस्सों में वामपंथी दलों का भी असर है। लेकिन वामदल वहां की राजनीति में चुनावी दृष्टिकोण से बहुत मायने नहीं रखते। इसलिए लालू के जेल जाने के बाद प्रदेश की राजनीति में कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है। सिर्फ यह देखना दिलचस्प होगा कि जातीय समीकरण कौन सा रूप लेते हैं।

लालू के दल के सामने असली समस्या आज यह है कि उसका नेतृत्व अब कौन करता है। लालू फिलहाल जेल में हैं, लेकिन हाईकोर्ट द्वारा उनकी अपील स्वीकृत होने के बाद उन्हें जमानत भी मिल सकती है। एक राय तो यह है कि दल के अध्यक्ष पद पर वे खुद बने रह सकते हैं और किसी और व्यक्ति को सामने कर अपने दल का संचालन कर सकते हैं। यदि वे अपने दल को अपने परिवार के हाथों में पूरी तरह सौंप देते हैं, तो उनके दल के वरिष्ठ नेता बगावत भी कर सकते हैं। कुछ लोगों के तो जनता दल (यू) में शामिल हो जाने की भी संभावना है। पर वे यदि सामूहिक नेतृत्व का रास्ता अपनाते हैं तो उनके लिए ज्यादा अच्छा रहेगा। रघुवंश सिंह जैसे नेता के तहत सामूहिक नेत्त्व की स्थिति में लालू पार्टी पर अपना नियंत्रण भी बनाए रख सकते हैं और टिकट वितरण जैसे महत्वपूर्ण काम को खुद अंजाम दे सकते हैं।

यदि लालू जमानत पर जेल से जल्द आ जाते हैं, तो फिर उनके लिए ज्यादा समस्या नहीं आएगी। यह सच है कि वह चुनाव नहीं लड़ सकते, पर चुनाव तो बाल ठाकरे भी नहीं लड़ते थे, पर अंत अंत तक शिवसेना उन्हीं के इशारे पर चलती रही। लालू यादव भी उसी तरह अपनी पार्टी पर पकड़ रखते हुए उसका संचालन कर सकते हैं। इस तरह वे बिहार की राजनीति में अपना असर बनाए रख सकते हैं और उनके दल की वहां अभी भी वापसी हो सकती है। (संवाद)