शायद मनमोहन सिंह को भी पता है कि राहुल गांधी के विद्रोही बयानों से उनकी स्थिति खराब नहीं हुई है, इसलिए उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। जाहिर है उनकी स्थिति इतनी खराब हो गई है कि उससे ज्यादा और क्या खराब हो सकती है और वह नेहरू गांधी वंश की किसी भी बात का बुरा नहीं मान सकते। इस बार तो उनको पता है कि राहुल अपनी मां सोनिया गांधी के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा रहे थे।
सजायाफ्ता सांसदों और विधायकों को राहत देने वाले उस अध्यादेश को कांग्रेस कोर कमिटी की सहमति के बाद ही लाया गया था और उस कोर कमिटी की अध्यक्ष खुद सोनिया गांधी हैं। जिस बैठक में फैसला हुआ, उसमें वह मौजूद थी। जाहिर है, वह सरकार का फैसला बाद में था, वह कांग्रेस कोर कमिटी यानी सोनिया गांधी का फैसला पहले था। उस फैसले के खिलाफ जाकर राहुल गांधी ने यह संदेश दिया है कि उनकी मां हमेशा सही दिशा में नहीं फैसला करतीं। उन्होंने इसके द्वारा यह भी संदेश दे दिया है कि किसी भी विषय पर अंतिम फैसला करने वाला अंतिम व्यक्ति सोनिया गांधी नहीं हो सकती।
अब चापलूसी में महारत हासिल कर चुके कांग्रेस के लोग सत्ता समीकरण मंे आए इस बदलाव को ध्यान में रखेंगे। हालांकि अभी तक राहुल के हाथ में कांग्रेस की सत्ता पूरी तरह नहीं आई है, लेकिन अब युवराज उसे अपने कब्जे में करने के लिए तैयार हो गए हैं और उन्होंने यह दिखा दिया है कि जिस दिशा में उनकी मां चल रही हैं, उससे अलग दिशा में भी वे चलने के लिए तैयार हैं।
जहां जक कांग्रेस की बात है तो इसकी प्रतिष्ठा भी इस समय बहुत नीचे गिरी हुई है। सवा सौ साल के इसके इतिहास में इसकी प्रतिष्ठा अपने सबसे निचले स्तर पर है। सच कहा जाय, तो कांग्रेस की प्रतिष्ठा मनमोहन सिंह की प्रतिष्ठा से भी नीचे गिरी हुई है। राहुल गांधी के इस प्रकरण ने दिखा दिया है कि कांग्रेस में कैसे कैसे लोग हैं। अब उनका सिद्धांतों से कोई वास्ता नहीं रहा। उनकी दिलचस्पी सिर्फ ओर सिर्फ सत्ता में है। विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद कहते हैं कि पार्टी को सिद्धांत और व्यावहारिकता में एक को चुनना होता है, तो उसे सिद्धांतों को छोड़ना पड़ता है। जाहिर है कि कांग्रेस ने महात्मा गांधी के साध्य और साधन को बराबर महत्व दिए जाने के सिद्धांत का त्याग कर दिया है।
लालू यादव के इस सवाल का जवाब राहुल को देना होगा कि यदि वह ईमानदारी की बात करते हैं, तो पहले अपने बहनोई राबर्ट वाड्रा की ओर भी नजर डालें। इस सवाल का जवाब फिलहाल राहुल के पास नहीं है, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन की स्वच्छता की दिशा में राहुल ने पहला कदम बढ़ा दिया है।
राजनीति के अपराधीकरण के लिए देश की सभी पार्टियां जिम्मेदार हैं। किसी की दिलचस्पी राजनीति को अपराधियों से मुक्त करने में नहीं है। वामपंथी दल हों या ममता की तृणमूल कांग्रेस, अपराधियों को आगे बढ़ाने में कोई नहीं झिझकते। सोनिया गांधी भी इस मसले में अपवाद नहीं है। राहुल गांधी ने कुछ अलग रवेया दिखाया है। सोनिया के साथ अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर भी राहुल का मतभेद था। सोनिया वामपंथी दलों के दबाव में आकर इस करार को आगे बढ़ाने को तैयार नहीं थी। उनकी झिझक के पीछे कोई सिद्धांत नहीं था, बल्कि यह समझ थी कि इसके कारण वामपंथी दल समर्थन वापस ले सकते हैं और सरकार गिर सकती है। सोनिया सरकार को खोना नहीं चाहती थी। लेकिन राहुल गांधी ने पासा पलट दिया और सरकार गिरने के खतरे के बावजूद उन्होंने सरकार को परमाणु करार पर आगे बढ़ने को प्रेरित किया।
राहुल गांधी अपनी पार्टी के मंच से एक बार कह भी चुके हैं कि वे अपनी मां की तरह नरमवादी नहीं हैं, बल्कि कड़े फैसले करने में विश्वास करते हैं। उन्होंने अपना आदर्श अपनी दादी इन्दिरा गांधी को बताया। यदि बात ऐसी है, तो यह अच्छी बात नहीं है, क्योंकि इससे तानाशाही की झलक दिखाई देती है। प्रेस क्लब में राहुल गांधी ने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया वे अच्छे नहीं थे। भविष्य के नेता का यह कोई अच्छा गुण नहीं कहा जा सकता। (संवाद)
राहुल का विद्रोह: क्या निशाने पर सोनिया थी ?
अमूल्य गांगुली - 2013-10-09 16:43
मनमोहन सिंह की प्रतिष्ठा बहुत ही नीचे गिर गई है। एक समय उन्हें बहुत ईमानदार माना जाता था और उनकी इस छवि 2009 में कांग्रेस की जीत का एक बड़ा कारण थी। लेकिन उनकी प्रतिष्ठा राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले से जो गिरनी शुरू हुई कि उसने फिर रुकने का नाम ही नहीं लिया। कोयला घोटाला आते आते तो मनमोहन सिंह की छवि इतनी खराब हो गई है कि उससे और ज्यादा शायद हो ही नहीं सकती। इसलिए यह कहना गलत है कि राहुल गांधी सजायाफ्ता सांसदों और विधायकों को बचाने के लिए लाए जा रहे अध्यादेश के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा रहे थे, उस समय उन्होंने जो कहा उसके मुख्य निशोने पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे।