अब सीमान्ध्र्रा जल रहा है। इसे देखकर 1960 के दशक के अंतिम और 1970 के दशक के शुरुआती सालों की यादव ताजा हो जाती है। सार्वजनिक संपत्ति का भारी नुकसान हो रहा है और लोगों की जानें भी जा रही हैं। मुख्यमंत्री खुद अलग तेलंगाना नहीं चाहते, इसलिए इन आंदोलनों के खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई करने के आदेश भी जारी नहीं कर पा रहे हैं। इसके कारण निहित स्वार्थी तत्व सक्रिय हो गए हैं और इस स्थिति का फायदा उठा रहे हैं।

तेलंगाना हैदराबाद के निजाम के राज्य का हिस्सा हुआ करता था, जबकि शेष आंध्र प्रदेश मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा था। पहले राज्य पुनर्गठन आयोग ने सिफारिश की थी कि तेलंगाना को एक अलग राज्य बनाया जाना चाहिए और इसका आंध्र प्रदेश में विलय 1961 के चुनावों के बाद किया जा सकता है। लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू ने अपनी समझ का इस्तेमाल करते हुए आंध्र और तेलंगाना को उसी समय मिला दिया। उसके बाद से तो अलग तेलंगाना की मांग समय समय पर उठती रही- कभी धीरे से तो कभी जोर शोर से। तेलंगाना प्रजा समिति आंदोलन के द्वारा एम चेन्ना रेड्डी ने इस मांग के पक्ष में कभी हंगामा खड़ा कर दिया था, लेकिन श्री रेड्डी खुद बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए। उस समय इन्दिरा गांधी ने उस आंदोलन के साथ सख्ती दिखाई थी और अलग तेलंगाना की मांग को साफ इनकार कर दिया था। उसके बाद से आंध्र प्रदेश के तीन मुख्यमंत्री तेलंगाना क्षेत्र से बने। वे थे खुद चेन्ना रेड्डी, पीवी नरसिंह राव और वेंगल राव। एनटीआर और उनके दामाद चन्द्रबाबू नायडू भी अलग तेलंगाना के समर्थन में नहीं थे। राजशेखर रेड्डी ने भी अलग तेलंगाना राज्य का विरोध किया था।

2001 में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का गठन उस समय हुआ, जब चन्द्र बाबू नायडू ने अपनी पाटी्र से के चन्द्रशेखर राव को निकाल दिया था। 2004 में कांग्रेस ने टीआरएस से समझौता किया और दोनो मिलकर चुनाव लड़े। उसी चुनाव के पहले कांग्रेस ने अलग तेलंगाना राज्य के गठन के वायदे को अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल कर लिया था। 2004 के बाद कांग्रेस की सरकार बनी। उस सरकार में राव की पार्टी भी शामिल हुई थी। अलग राज्य नहीं बना और 2009 में राव की पार्टी का लगभग सफाया हो गया। उसमें राजशेखर रेड्डी की बहुत बड़ी भूमिका थी।

शुरू से ही अलग तेलंगाना राज्य का गठन वहां के लोगों का सपना रहा है। यदि नेहरू ने तेलंगाना को आंध्र प्रदेश का हिस्सा नहीं बनाया होता, तो उसी समय से तेलंगाना एक अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में रहता। यदि इन्दिरा ने आंदोलन के आगे झुककर 1970 के दशक में ही अलग राज्य बना दिया होता, तब भी यह उसी समय अस्तित्व में आ जाता। यदि चेन्ना रेड्डी कांग्रेस में शामिल नहीं होते और उनका आंदोलन जारी रहता, तब भी शायद तेलंगाना का निर्माण बहुत पहले हो गया होता।

यदि राजशेखर रेड्डी की अकाल मौत नहीं होती, तब भी इस तरह की स्थिति पैदा नहीं होती और केन्द्र सरकार को इस समय भी अलग तेलंगाना राज्य के गठन के लिए विवश नहीं होना पड़ता। अभी इस समय मुख्य मसला हैदराबाद को लेकर है, जहां आंध्र प्रदेश के लोगों ने अरबों खरबों रुपये का निवेश कर डाला है। यदि हैदराबाद को तेलंगाना को देने की घोषणा नही होती, तो शायद शेष आंध्र प्रदेश में अलग तेलंगाना के खिलाफ इतना बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा हुआ होता।

सवाल उठता है कि जब देश भर में अलग राज्यों के लिए अनेक जगहों से आवाज उठ रही है, तो फिर सिर्फ तेलंगाना का ही गठन क्यों किया जा रहा है? इस मसले पर आंध्र की ही सभी पार्टियों में दोफाड़ की स्थिति भी बनी हुई थी। सीपीएम इसका एकमात्र अपवाद है। सच कहा जाय, तो सभी पार्टियां चुनावी गोटी सेट करने पर लगी हुई हैं।

केन्द्र ने यह समस्या खड़ी की है। इसलिए यह उसकी ही जिम्मेदारी है कि इस मसले को संभाले। पर केन्द्र ने इससे अपना पल्ला झाड़ रखा है और राज्य सरकार के ऊपर सारा दारोमदार छोड़ रखा है। राज्य सरकार से कुछ हो नहीं पा रहा है, क्योंकि मुख्यमंत्री खुद अलग तेलंगाना के खिलाफ हैं। केन्द्र के पास एक विकल्प तो वहां राष्ट्रपति शासन लगाने का है। इस समय केन्द्र सरकार के नेताओं की नेतृत्व क्षमता कसौटी पर है। (संवाद)