टीवी चैनलों, अखबारों और पत्रिकाओं की बाढ़ आ गई हैं और उनके द्वारा इस तरह के चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों के नतीजे प्रकाशित और प्रसारित करना चुनाव कवरेज का अंग बन चुका है। हालांकि सच यह भी है कि अधिकांश मामलों में ये नतीजे गलत साबित होते हैं। पिछले कुछ सालों से इस तरह के सर्वेक्षण कराने और उन्हें प्रकाशित व प्रसारित करने का फैशन कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है।
निर्वाचन आयोग का ताजा सुझाव एकाएक या कोई पहली बार नहीं आया है। 1984 से ही इस पर चर्चा चल रही है। उस समय अधिकांश पार्टियों ने निर्वाचन आयोग से यह गुहार लगाई थी कि चुनाव के पहले जारी किए जाने वाले सर्वे के ये नतीजे भ्रम पैदा करने वाले होते हैं। उस समय से ही इस तरह के सर्वे पर रोक लगाने की कोशिशें शुरू हो गई थीं। निर्वाचन आयोग ने सरकार को लिखा थ रोक लगाने के लिए उसे कानूनों में बदलाव करने चाहिए। सरकार ने निर्वाचन आयोग से कहा था कि वह इस मसले पर राजनैतिक पार्टियों के विचारों को पहले जान ले।
सबसे पहले 1824 में अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के पहले वहां के दो अखबारों ने लोगों का मूड जानने के लिए इस तरह का सर्वे किया था। 20वीं सदी तक दूसरे देशों ने भी इस तरीके को अपनाना शुरू कर दिया। ब्रिटेन ने इसकी शुरुआत 1937 में की थी और फ्रांस ने 1938 में। दोनों के नतीजे लगभग सटीक साबित हुए। दुनिया के अधिकांश देशों मंे इस पर प्रतिबंध नहीं है, जबकि कुछ देशों ने इस पर प्रतिबंध लगा रखा है। अर्जेंटीना, श्रीलंका, स्पेन, कनाडा और मेक्सिको ने इस तरह के सर्वे को प्रतिबंधित कर दिया है। भारत में 1957 के लोकसभा चुनाव के पहले इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ पब्लिक ओपीनियन इस तरह का सर्वे पहली बार किया था।
भारत के राजनैतिक दल इस मसले पर दो राय रखते हैं। इससे कुछ पार्टियों को फायदा होता है, पर जिन पार्टियों को इस तरह के सर्वेक्षणों में पराजित दिखाया जाता है, वे इसका विरोध करते हैं। इस बार हो रहे इस तरह के सर्वेक्षणों में कांग्रेस को पराजित दिखाया जा रहा है, इसलिए वह निर्वाचन आयोग के सुझाव का स्वागत कर रही है। वह भी अब यह मान रही है कि इस तरह के सर्वेक्षणों से निष्पक्ष और स्वच्छ चुनावों पर खतरा पैदा हो गया है। पार्टी यह भी मानती है कि उनके नतीजे गलत निकालकर बताए जाते हैं तथा ये वैज्ञानिक नहीं हैं।
अकाली दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, डीएमके, एआईएडीएमके और शिवसेना भी चाहती हैं कि इन पर प्रतिबंध लगे, जबकि सीपीआई और सीपीएम चाहती हैं कि इस तरह के सर्वेक्षण कुछ बंदिशों के साथ गलत नहीं है। अपने प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से उत्साहित भारतीय जनता पार्टी इस पर प्रतिबंध लगाए जाने के खिलाफ है, जबकि आम आदमी पार्टी भी इस पर किसी तरह की रोक लगाने के पक्ष में नहीं है। इसका एक कारण यह है कि आम आदमी पार्टी को भी इस तरह के सर्वेक्षणों में अच्छी रेटिंग मिल रही है।
सवाल उठता है कि इस तरह के सर्वेक्षणों पर रोक क्यों लगाई जाय? पहली बात तो यह है कि वे मतदाताओं को प्रभावित करते हैं, इसमें संदेह है। और यदि वे प्रभावित करते भी हैं, तो भी उन पर प्रतिबंध क्यों? भारत जैसे देश में जहां के 70 फीसदी लोग गांवों में रहते हैं और 65 फीसदी लोग झुग्गियों में रहते हैं, इस तरह के सर्वेक्षण कैसे प्रभावित कर सकते हैं? शायद इससे वही पढ़ा लिखा वर्ग प्रभावित हो सकता है, जो टीवी से चिपका रहता है। टीवी देखने वालों में भी 7 फीसदी लोग ही समाचार चैनलों को देखते हैं, जबकि ज्यादातर लोग तो मनोरंजन चैनलों को देखने में व्यस्त रहते हैं। इसलिए इस तरह के सर्वेक्षणों पर रोक की कोई जरूरत नहीं है। (संवाद)
चुनाव पूर्व सर्वेक्षण पर प्रतिबंध लगाने की जरूरत नहीं
कल्याणी शंकर - 2013-11-08 11:05
निर्वाचन आयोग के एक प्रस्ताव पर आजकल गर्मागर्म बहस चल रही है। वह प्रस्ताव चुनाव पूर्व मत सर्वेक्षणों से संबंधित है। निर्वाचन आयोग चाहता है कि चुनाव की तारीखें घोषित किए जाने के बाद चुनाव पूर्व मतदाता सर्वेक्षणों पर रोक लगा दी जानी चाहिए। यह रोक अंतिम मत पड़ जाने तक बरकरार रखी जानी चाहिए। इस समय इस तरह के सर्वेक्षणों के नतीजों के प्रकाशन और प्रसारण पर मतदान के 48 घंटे पहले से रोक लग जाती है।