चन्द्रशेखर राव के अनशन के दबाव मंे आकर उसने एकाएक तेलंगना राज्य के गठन का फेसला बिना यह सोचे कर लिया कि इसका आंध्र प्रदेश के अन्य हिस्सों में क्या असर होगा। उसने यह भी नहीं सोचा कि देश के अन्य हिस्सों में अलग राज्य की मांगे भी उठेंगी और उन मांगों को दबाना आसान नहीं होगा। अब जब तेलंगना की आंध्र में ही विरोध हो रहा है, तो केन्द्र सरकार इस मसले पर अपने का फंसी हुई महसूस कर रही है।
इस समस्या से बाहर निकलने के लिए कुछ लोग द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग के गठन का सुझाव दे रहे हैं। आयोग और जांच समितियों का गठन किसी समस्या का टालने के लिए हमारे देश में होता रहा है। इसकी एक लंबी परंपरा हमारे देश में बन गई है। इसलिए आयोग गठन के आजमाए नुस्खे के इस्तेमाल का एक रास्ता केन्द्र सरकार के पास है।
लेकिन इस तरह के आयोग का गठन समस्या को हल करने के बजाय और भी बढ़ा देगा। पहली बात तो यह है कि केन्द्र सरकार ने तेलंगना राज्य के गठन का फेसला पहले ही कर लिया है। अब यदि उसने राज्य के गठन का फेसला पहले ही कर लिया है, तो फिर उस मसले को किसी आयोग के सुपुर्द करने का कोई तुक ही नहीं है। हां, सरकार कह सकती है कि वह नये राज्य की सीमा के निर्धारण के लिए आयोग का गठन जरूरी समझती है। लेकिन तेलंगना राज्य की सीमा तांे पहले से ही तैयार है। आंध्र प्रदेश का जो हिस्सा हैदराबाद स्टेट का भाग था, उसी को वहां के लोग तेलंगना कहते हैं। उस भाग को आंध्र स्टेट और रायलसीमा के साथ मिलाकर आंध्र प्रदेश का गटन किया गया था। सच तो यह है कि वह हिस्सा पहले एक अलग राज्य था और प्रथम राज्य पुनर्गटन आयोग ने उसे अलग रखने की ही सिफारिश की थी। उस सिफारिश के खिलाफ जाकर केन्द्र सरकार ने हैदराबाद स्टेट को आंध्र और रायलसीमा के साथ मिलाकर आंध्र प्रदेश नाम का एक राज्य बना दिया था। इसलिए, राज्य पुनर्गठन के समय 1950 के दशक में केन्द्र सरकार ने जो निर्णय लिया था, उसे उलटने की मांग की जा रही है। इसलिए सीमा तो पहले से ही तैयार है।
इसलिए द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा केन्द्र सरकार तेलंगना की समस्या को टाल नहीं सकेगी। उस मसले का आयोग द्वारा टालने का उसका प्रयास उसे और भी हास्यास्पद बना देगा। तेलंगना के पक्ष में आंदोलन और भी तेज होंगे और कानून व्यवस्था की स्थिति वहां और भी खराब होगी।
राज्यों के गठन के लिए आयोग बनाने के बाद देश भर में क्षेत्रीयतावादी ताकतों को बढ़ावा मिलेगा और देश भर में कानून व्यवस्था की स्थिति बदतर हो सकती है। दूसरे आयोग के गठन का मतलब क्षेत्रीयतावादी ताकतें अलग राज्यों की अपनी मांग को पूरा होता लगाएंगे और जन दबाव डालने के लिए लोगों को और भी भड़काएंगे। कांग्रेस के कमजोर होने के कारण देश के अनेक हिस्सों मे क्षेत्रीयतावादी ताकतें खड़ी हो गई थीं। वे ताकतें अब धीरे धीरे कमजोर हो रही हैं। उनके कमजोर हाने के कारण ही कांग्रेस मजबूत हो रही है। पुनर्गठन आयोग नई क्षेत्रीयतावादी ताकतें पैदा करने की ताकत रखता है। इस तरह का क्षेत्रीयतावाद देश को कमजोर ही करेगा। यही नहीं, नये राज्य के गठन की मांग के साथ उन राज्यों के गठन के विरोध के लिए भी आंदोलन हो सकता है। इस तरह सह आयोग समाज को भी विभाजित करने का काम करेगा।
गोरखालैंड का ही उदाहरण ले लें। गोरखालैंड की मांग का पश्चिम बंगाल के शेष हिस्से में काफी विरोध होता है। पश्चिम बंगाल के लोगों ने बंगाल के विभाजन को अभी तक स्वीकार नहीं किसा है। गौरतलब है कि बंगाल का एक हिस्सा आज बांग्लादेश के रूप में एक अलग देश का रुतबा रखता है, लेकिन उस विभाजन का दर्द लोगों का इतना है कि वे अपने राज्य को बंगाल नहीं कहकर पश्चिम बंगाल कहते हैं, जबकि कोई पूर्वी बंगाल अब है ही नहीं। गोरखालैंड के रूप में अलग राज्य का गठन राज्य के शेष हिस्सों के लोगों को कभी स्वीकार्य नहीं होगा और अलग राज्य के गठन की संभावना का भी विरोध होगा।
कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी वापसी कर रही है। लोकसभा चुनाव में उसने अपनी स्थिति बेहतर कर ली। राजबब्बर की जीत ने उसके हौसले को बढ़ाया है और अब यह स्पष्ट हो गया है कि वहां की दो सबसे बड़ी राजनैतिक शक्ति बसपा और कांग्रेस है। पुनर्गठन आयोग उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल पैदा कर वहां अनेक प्रकार की क्षेत्रीयतावदी ताकतो को पैदा कर सकता है। मुलायम सिंह वहां की राजनीति के हाशिए पर जा रहे हैं। उनकी राजनीति को भी वहां पंख लग सकते हैं, क्योंकि वे उत्तर प्रदेश के विभाजन का विरोध करते हैं।
मुख्यमंत्री मायावती पहले ही उत्तर प्रदेश से बुंदेलखंड, पूर्वांचल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग करने की बात कर चुकी हैं। इन तीन प्रदेशों के गठन के साथ उत्तर प्रदेश के 4 टुकड़े करने की चिट्ठी मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को लिख डाली है। उत्तराखंड तो पहले ही उत्तर प्रदेश के गर्भ से निकल चुका है, यदि क्षेत्रीयतावादी ताकतें मजबूत हुईं तो उत्तर प्रदेश में अन्य अनेक राज्यों की मांगे उठ सकती हैं। यदि बुन्देलखंड के रूप में अलग राज्य बनने की संभावना बन रही हो, तो फिर बघेलखंड की मांग करने वाले क्यों पीछे रहेंगे? बघेलखंड की क्यों, उत्तर प्रदेश का एक हिस्सा रोहेलखंड के नाम से भी जाना जाता है। वहां के वासी रोहेलखंड राज्य के गठन की मांग करने लगेंगे।
यह समस्या सिर्फ उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं रहेगी। बुन्देलखंड का विस्तार मध्यप्रदेश तक है। और मध्यप्रदेश में उसके पक्ष और विरोध में आंदोलन हो सकता है। बिहार में भी पुनर्गठन आयोग समस्या पैदा करेगा। वहां कुछ लोग मिथिलांचल राज्य की मांग कर रहे हैं। सीमांचल की मांग अलग से हो रही है। भोजपुरा भाषी लोग भोजप्रदेश की मांग करने लगेंगे। बात वहां से आगे बढ़कर बंगप्रदेश तक जा सकती है। पूवोत्तर राज्य तो पहले से ही उग्रवाद से प्रभावित है, पुनर्गठन आयोग वहां फिरकापस्ती को और भी बढ़ावा देगा। महाराष्ट्र में भी इसके कारण समस्या पैदा होगी। इस तरह देश का आधा से भी ज्यादा हिस्सा क्षेत्रीयतावादी आंदोलन की चपेट में आ जाएगा। इसलिए हड़बड़ी में आकर तेलंगना राज्य की जिस मांग को केन्द्र सरकार ने बिना सोचे समझे मान लिया है, उस पर ठंढा पानी डालने के इरादे से गठित किया गया पुनर्गठन आयोग देश के अनेक हिस्सों में क्षेत्रीयतावाद की आग में घी डालने का काम करेगा। (संवाद)
भारत: आन्ध्र प्रदेश
तेलंगना विवाद पर संकट में सरकार
द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग से समस्या और भी बढ़ेगी
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-01-04 09:51
अपने पहले कार्यकाल में मनमोहन सिंह सरकार संभल संभल कर चलती थी। वाम मोर्चे का अंकुश उसे किसी भी बड़े निर्णय लेने के पहले एक बार से ज्यादा सोचने के लिए मजबूर करता था। लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल में यह ज्यादा निरंकुश हो गई है। इससे इसका ही नुकसान हों रहा है। तेलंगना की समस्या आज यदि इसके गले की हड्डी बनी हुई है, तो इसके लिए वह खुद ही जिम्मेदार है।