सवाल उठता है कि क्या आम आदमी पार्टी अपनी दिल्ली की सफलता को देश भर में दुहरा सकती है? सफलता दुहराने के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि देश बहुत बड़ा है और इतने बड़े देश मे चुनाव प्रबंधन का काम करना आम आदमी पार्टी के लिए अभी संभव नहीं दिखाई पड़ रहा, लेकिन इतना तो सच है कि देश एक नई पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर स्वागत करने के लिए तैयार है।

आम आदमी पार्टी का जन्म एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कोख से हुआ है। इस आंदोलन की तीव्रता दिल्ली में सबसे ज्यादा थी। जाहिर है, इस पार्टी को लांच करने के लिए दिल्ली सबसे बेहतर जगह थी। सफलतापूर्वक यह पार्टी दिल्ली में अपने आपको स्थापित कर चुकी है और देश के जिन इलाकों में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तीव्रता ज्यादा थी, उन इलाकों मंे इसे ज्यादा सफलता मिलने के आसार हैं।

कहने की जरूरत नहीं कि भ्रष्टाचार विरोधी वह आंदोलन हिंदी प्रदेशों में सबसे ज्यादा तेज था। हिन्दी प्रदेशों के साथ पंजाब में भी इसकी तीव्रता अधिक थी। इसलिए हम उम्मीद कर सकते हैं कि इन राज्यों में इसकी सफलता के बेहतर आसार हैं। सफलता के बेहतर आसार होने का मतलब यह नहीं कि इन राज्यों में बहुत सारी सीटों पर आप के उम्मीदवार जीत जाएंगे, बल्कि इसका मतलब यह है कि इन राज्यों में पार्टी उम्मीदवारों को अच्छे वोट मिल सकते हैं और कुछ सांसद जीतकर लोकसभा में भी आ सकते हैं। यदि उनके सांसदों की संख्या लोकसभा मे 30 से 40 भी हुई तो त्रिशंकु लोकसभा में यह अपनी असरदार भूमिका निभा सकती है और जिस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से इसका जन्म हुआ, उसकी मांगों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। समाप्ति की ओर बढ़ रही कांग्रेस की जगह भी यह भविष्य में ले सकती है।

बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में इसके बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद की जा सकती है। ये राज्य जाति की राजनीति के लिए कुख्यात रहे हैं। पर जाति की राजनीति से लोगों का धीरे धीरे मोहभंग होना शुरू हो गया है। इसका एक कारण तो तेजी से हो रहा शहरीकरण है। दूसरा कारण जाति की राजनीति कर रहे नेताओं की अपनी जाति के प्रति प्रतिबद्धता भी सवालों के घेरे मे आ रही है। जाति के नाम पर चुनाव जीतने वाले नेता वंशवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। वंशवाद को बढ़ावा देने के कारण बदलाव की गति ठहर सी गई है। जातिवाद की राजनीति ने कुछ ही जातियों को लाभ पहुंचाया है। ओबीसी की राजनीति ने सैकड़ों जातियों में बंटे ओबीसी में दो या तीन को सशक्त बनाया है और अन्य जातियां अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रही हैं। उसी तरह दलित राजनीति ने भी एक या दो जातियों का ही सशक्तिकरण किया है। दलित और ओबीसी नेता जाति के खिलाफ मुहिम के साथ सत्ता में आए और अब खुद जाति को मजबूत करने में लगे हुए हैं। जाति व्यवस्था में अपनी जाति की स्थिति मजबूत करना और पहले से मजबूत जातियों के साथ गठबंधन की कोशिशों में लग गए हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम और मायावती द्वारा ब्राह्मण और ठाकुर सम्मेलन आयोजित किया जाना इसके प्रमाण हैं। बिहार में लालू और नीतीश भी कुछ वैसा ही काम कर रहे हैं।

ये नेता भारी भ्रष्टाचार मंे भी लिप्त हैं। भ्रष्टाचार में लिप्त होने और मुकदमे में फंसने के डर से दलित और ओबीसी के अनेक नेता अपनी उन प्रतिबद्धताओं से बहुत दूर हो गए हैं, जिनके बूते उन्होंने राजनीति में अपने आपको स्थापित किया था। जाहिर है, इन नेताओ से उनके समर्थक आधार का तेजी से मोह भंग हो रहा है। हालांकि यह भी सच है कि मोह भंग ऐसा भी नहीं है कि 100 फीसदी लोग इनके खिलाफ हो गए हैं, लेकिन यदि 25 फीसदी लोग भी इस मोह भंग के दायरे में आते हैं, तो यह किसी नई पार्टी के लिए उर्वर जमीन पैदा कर देता है।

आम आदमी पार्टी के लिए यह स्थिति उसे दिल्ली से बाहर भी अपने आपको स्थापित करने में सहायक साबित होगी। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत सबसे पाॅश नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र से तो हुई ही, जहां खुद अरविंद केजरीवाल ले शीला दीक्षित को करीब 26 हजार मतों से हराया, बल्कि उन अनेक इलाको में भी आप जीती, जहां के लोग भारी बदहाली की जिंदगी जी रहे हैं। दिल्ली में 12 विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं, उनमें से 9 में आम आदमी पार्टी की जीत हुई। 2008 के विधानसभा चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी को करीब 15 फीसदी मत मिले थे। इस बार उसे मात्र 5 फीसदी मत ही मिले। जाहिर है मायावती का जनाधार आम आदमी पार्टी की ओर खिसका है।

सवाल उठता है कि जो दिल्ली में संभव है, वह उत्तर प्रदेश में क्यों नहीं? वहां तो मायावती ही नहीं, बल्कि मुलायम की हालत भी डांवाडोल है। मुलायम की मुस्लिम राजनीति उनके गले की फांस बन गई है और उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में हर स्तर पर आरक्षण नहीं दे पाने के कारण उनकी अपनी जाति के लोग ही उनसे नाराज चल रहे हैं। उनके फूहड़ परिवारवाद ने भी उनके समर्थकों की नजर में उन्हें गिराने का काम किया है।

बिहार में लालू की हालत भी खराब है। जेल जाने के कारण कुछ तबकों में उनके प्रति सहानुभूति भले हो, लेकिन आमतौर पर सजा पाने का उनको नुकसान हो रहा है। राहुल गांधी की जयजयकार करना उनके समर्थकों को भी अच्छा नहीं लग रहा है। अपराधियों को अपनी पार्टी में शामिल करने मे मशगूल नीतीश कुमार की छवि भी अब खराब हो रही है। यानी वहां भी एक राजनैतिक शून्य पैदा हो रहा है और यह शून्य आम आदमी पार्टी के लिए अवसर प्रदान करता है।

दिल्ली हरियाणा से तीन ओर से घिरी हुई है। हरियाणा का जिम्मा योगेन्द्र यादव को दे दिया गया है। खुद अरविंद केजरीवाल भी मूल रूप से हरियाणा के ही हैं। इसलिए दिल्ली के बाद हरियाणा आप के लिए सबसे ज्यादा माकूल राज्य है। यहां के लोग जाट राजनीति के वर्चस्व को तोड़ना भी चाहते हैं। कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोकदल जाटों की पार्टियों के रूप में जाने जाते हैं। एक जाति का वर्चस्व तोड़ने में आम आदमी पार्टी कामयाब हो सकती है। (संवाद)