केजरीवाल का उदाहरण लें। उन्होंने कुछ समय पहले ही दिल्ली की गद्दी संभाली है। अब उनकी पार्टी लोकसभा चुनावों में भी बड़े पैमाने पर उम्मीदवार खड़ा करना चाहती है। अब यदि केजरीवाल अपने आपको दिल्ली सरकार चलाने तक ही सीमित रखते हैं, तो फिर देश भर में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए चुनाव प्रचार करने का उन्हें समय नही नहीं मिलेगा। उन्हें यह भी पता चल गया है कि दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में उनकी ताकत बहुत ही सीमित है। न तो दिल्ली पुलिस उनके पास है और न ही डीडीए। एमसीडी पर भी भारतीय जनता पार्टी का कब्जा है। पिछले एक महीने में उन्होंने कई बार इस्तीफा देने की धमकी दे डाली है। उनके विरोधी कहते हैं कि जनता से किए गए बड़े बड़े वायदों को वह पूरा नहीं कर सकेंगे। इसलिए वे दिल्ली की सरकार से बाहर आना चाहते हैं।
पहले तो वे सरकार बनाना ही नहीं चाहते थे। सरकार बनाने के बाद उन्होंने रेल भवन के सामने धरना पर बैठकर और अपनी रात वहीं बिताकर कांग्रेस को भड़काना चाहा। लग रहा था कि वे आर पार की लड़ाई लड़ रहे हैं। पर उप राज्यपाल ने बीच बचाव कर एक फार्मूला निकाला, जिससे अपने चेहरे का बचाते हुए केजरीवाल अपने पद पर बने रहे। उसके बाद अब वे जनलोकपाल के विवाद को खड़ा कर रहे हैं। नियमों के मुताबिक इस विधेयक को विधानसभा में पेश करने के पहले उपराज्यपाल की सहमति लेना जरूरी है। उपराज्यपाल अपनी सहमति देने के पहले राष्ट्रपति की सहमति लेते हैं। लेकिन केजरीवाल इस नियमों को मानने के लिए तैयार नहीं और कह रहे हैं कि जिस तरीके को अपनाकर वे इस विधेयक को पारित कराना चाहते हैं वहीं सही है ओर यदि विधेयक पारित नहीं हुआ, तो वह इस्तीफा दे देंगे।
जहां तक किरण रेड्डी का सवाल है कि तो वह कोई भारी भरकम नेता नहीं हैं पर वे अलग तेलंगाना राज्य के गठन का विरोध कर रहे हैं। उन्होंने कांग्रेस आलाकमान के आदेश की अवहेलना करते हुए विधानसभा मे तेलंगाना विधेयक को पराजित करवा दिया। कांग्रेस उनके खिलाफ कार्रवाई करने में संकोच कर रही है, लेकिन वे खुद अपनी एक अलग पार्टी बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि तेलंगाना का गठन हो जाता है तो किरण की पार्टी को सीमांध्रा मे थोड़ा समर्थन भी हासिल हो सकता है। उन्हें पता है कि यदि वे कांग्रेस में रह गए तो वे अपनी सीट भी नहीं जीत सकते हैं। यही कारण है कि अखंड आंध्र प्रदेश की रक्षा करते हुए वे शहीद हो जाना ज्यादा पसंद कर रहे है। कांग्रेस की समस्या यह है कि आंध्र के कांगेसी सांसदों के विरोध के बाद इसके पास इतने वोट नहीं है कि वह तेलंगाना विधेयक को संसद से पारित करवा दे। इसके लिए उसे भाजपा के समर्थन की जरूरत पड़ेगी। भाजपा की अलग तेलंगाना के गठन का पक्ष ले रही है, लेकिन उसकी अपनी शर्ते हैं। वह प्रस्तावित विधेयक में 10 संशोधन कराना चाहती हैं। अब यदि कांग्रेस को उसके समर्थन से यह विधेयक पारित करवाना है, तो उसे उसकी शर्ते भी माननी पड़ेगी। यदि संसद के इस सत्र में यह विधेयक पास नहीं हुआ, तो कांग्रेस पूरे प्रदेश में साफ हो जाएगी। यदि तेलंगाना बन जाता है तो पार्टी कम से कम 15 सीटों पर जीत की उम्मीद कर सकती है, यदि अपने वायदे के मुताबिक टीआरएस अपना विलय कांग्रेस मे कर दे। सीमांध्र्र्रा में जगनमोहन के नेतृत्व वाली पार्टी की स्थिति मजबूत है और तेलुगू देशम पार्टी भी भाजपा के साथ गठबंधन कर मजबूती की ओर बढ़ सकती है। (संवाद)
कांग्रेस आलाकमान की बढ़ रही है परेशानियां
केजरीवाल और किरण रेड्डी बढ़ा रहे हैं उसका सिरदर्द
कल्याणी शंकर - 2014-02-14 11:35
लोकसभा चुनाव सिर पर आ गए हैं और दिल्ली व आंध्र प्रदेश राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री अपने पद छोड़ने के मूड में हैं। दोनों का व्यक्तित्च अलग अलग है और इसलिए दोनों को एक साथ रखकर देखना उचित नहीं होगा। दोनो की बीच तुलना करने का मतलब होगा संतरे की तुलना सेब से करना। दोनो की परिस्थितियां भी अलग हैं, लेकिन दोनों मे एक बात साझा है और वह यह है कि दोनों के दोनों अपने आपको शहीद दिखलाना चाहते हैं। केजरीवाल धमकी दे रहे हैं कि यदि उनका लोकपाल विधेयक पारित नहीं हुआ तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे, जबकि किरण रेड्डी कह रहे हैं कि यदि तेलंगाना विधेयक पारित हुआ तो वे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे।