बिहार में जब 1991 के विधानसभा चुनाव में जनता दल के नेतृत्व वाले मोर्चे ने कुल 54 में से 48 सीटों पर विजय पा ली थी, तो उस समय भाजपा को 5 सीटें मिली थीं और वह सभी सीटें बिहार के उस हिस्से में मिली थीं, जिसे आज झारखंड कहा जाता है। बिहार के जब विभाजन हुआ था और इस प्रदेश क सजन हुआ था, तो प्रदेश का गठन होते ही भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आ गर्इ थी, क्योंकि 2000 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र से इसे अच्छी संख्या में सीटें मिली थी।

पर भारतीय जनता पार्टी का यह दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि झारखंड के गठन के बाद हुए किसी भी विधानसभा चुनाव में उसने 2000 के बिहार विधानसभा में झारखंड क्षेत्र में प्राप्त सफलता को दुहराने में यह विफल रही है। झारखंड को स्थायी सरकार बिहार विधानसभा चुनाव से गठित झारखंड की पहली विधानसभा में ही प्राप्त हुर्इ थी। उसके बाद लगातार असिथरता का दौर रहा, क्योंकि यहां की सबसे मजबूत समझी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। असिथरता के दौर में कुछ सालों तक तो एक निर्दलीय विधायक के नेतृत्व में सरकार रही, जो अपने आपमें भारतीय राजनीति के लिए एक अनूठी घटना थी।

ब्हरहाल लोकसभा चुनाव के लिए जोड़तोड़ करने और अभियान चलाने का समय है। देश भर में नरेन्द्र मोदी की हवा चल रही है। ऐसा मोदी के विरोधी भी कभी दबे स्वर में तो कभी खुलकर स्वीकार कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि मोदी की यह लहर झारखंड में ही है। पर सवाल उठता है कि क्या भारतीय जनता पार्टी मोदी लहर पर सवार होकर अपने बिहार के दिनों की सफलता यहां दुहरा पाएगी? झारखंड जब बिहार का हिस्सा था, तो सबसे अंतिम बार 1999 में यहां लोकसभा के चुनाव हुए थे और उस चुनाव में भाजपा को यहां की कुल 14 में से 13 सीटों पर विजय हासिल हुर्इ थी।

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को 14 में से 8 सीटें मिली थीं। इस प्रदर्शन के बाद उम्मीद की जा रही थी कि कुछ महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में उसकी सरकार बहुमत के साथ यहां बन जाएगी, पर उसे मात्र 18 सीटों पर ही विजय हासिल हो सकी और एक बार फिर झारखंड असिथरता का शिकार हो गया, जिसके कारण पहले भाजपा के समर्थन से शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने, फिर श्री सोरेन के समर्थन से भाजपा की सरकार बनी और अब कांग्रेस के समर्थन से हेमंत सोरने की सरकार चल रही है।

विधानसभा में भाजपा के खराब प्रदर्शन का एक बड़ा कारण नरेन्द्र मोदी का चुनाव अभियान में पूरा इस्तेमाल नहीं किया जाना था। लोकसभा चुनाव के दौरान यशवंत सिन्हा ने 2014 चुनाव में उनकी पार्टी की ओर से नरेन्द्र मोदी को पीएम बनाने का वायदा मतदाताओं से करना शुरू कर दिया था। मोदी मैजिक ने उस चुनाव में काम किया और भाजपा को 8 सीटें मिल गर्इं, जबकि विधानसभा चुनाव के दौरान मोदी लगभग नदारद रहे। आज जिस तरह मोदी की लहर है, वैसी लहर उस समय तक तो नहीं थी, लेकिन तब भी मोदी भाजपा के लिए सबसे बड़े वोट जुटाउ नेता यदि भाजपा के लिए साबित हुए, तो उसका कारण झारखंड की जाति राजनति थी। नरेन्द्र मोदी की जाति झारखंड की सबसे ज्यादा जनसख्या वाली जाति है। वहां ओबीसी आंदोलन पर खेतिहर जातियों के कब्जे के बाद व्यापारी और काश्तकार जातियों ने अपने आपको वैश्य के रूप में संगठित कर लिया है और मोदी इसी वर्ग से आते हैं। वैश्य जातियों की संख्या झारखंड की कुल आबादी की 40 फीसदी के आसपास है। जाहिर है, इन जातियों के लोगों के एक हिस्से ने लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के कारण भाजपा को पसंद किया था और उन्होंन यशवंत सिन्हा जैसे भाजपा उम्मीदवारों की जीत सुनिशिचत करा दी थी। इसका एक असर हुआ कि 2009 के लोकसभा चुनाव में एक भी ओबीसी का उम्मीदवार झारखंड से निर्वाचित नहीं हुआ। ज्यादातर वैश्य ओबीसी से खेतिहर ओबीसी उम्मीदवारों के खिलाफ मतदान किए, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि ओबीसी आंदोलन का सारा फायदा खेतिहर आोबीसी के लोग ही उठा रहे हैं।

इस तरह की जातीय अविश्वास के माहौल में हो रहे लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में झारखंड के लगभग सभी सीटों पर चुनाव जीत सकती है, लेकिन वर्तमान माहौल में ऐसा होता नहीं दिखार्इ देता। 2009 में वैश्य ओबीसी ने खेतिहर ओबीसी के खिलाफ मतदान किया, क्योंकि उन्हें शिकायत थी कि ओबीसी का सारा फायदा वे लोग ही उठा लेते हैं। जाहिर है, वे प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाने के कारण नाराज थे। अब भारतीय जनता पार्टी भी वहां वही गलती कर रही है। 14 सीटों में से 8 सामान्य सीटें हैं। उन्हीं पर भाजपा वैश्य ओबीसी को उम्मीदवार बना सकती है, लेकिन अभी तक जो संकेत मिल रहे हैं, उससे लगता है कि शायद वह एक भी ऐसे उम्मीदवार को खड़ा नहीं करे। इसकी जबर्दस्त प्रतिकि्रया मतदान के दौरान हो सकती है।

भाजपा की परेशानी है कि उसके पास झारखंड ओबीसी का कोर्इ बड़ा चेहरा नहीं है। रघुबर दास का इस्तेमाल वह चुनाव के पहले पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर कर लिया करती थी, लेकिन इस समय प्रदेश अध्यक्ष कोर्इ और है। नरेन्द्र मोदी का इस्तेमाल वह वैश्य औबीसी मतों को आकर्षितत करने के लिए जरूर करेगी, लेकिन यदि वैश्य ओबीसी को उम्मीदवार नहीं बनाया गया, तो भाजपा का सारा खेल बिगड़ सकता है।

बिहार में तो भाजपा ने अपना जातीय गणित ठीक करने के लिए पहले उपेन्द्र कुशवाहा और बाद में रामविलास पासवान की पार्टियों से गठबंधन कर लिया, पर झारखंड में वह ऐसा नहीं कर रही है। इसके पीछे उसका यह गलत विश्वास काम कर रहा है कि वैश्य वोट वह नरेन्द्र मोदी के कारण थोक भाव में प्राप्त करेगी। उधर सूरज मंडल झारखंड की अधिकांश सीटों पर वैश्य उम्मीदवार खड़ा कर भाजपा का खेल बिगाड़ने के लिए कमर कस रहे हैं। वे उपेन्द्र कुशवाहा और रामविलास पासवान की तर्ज पर झारखंड में भाजपा के साथ गठबंधन करना चाह रहे थे, लेकिन भाजपा ने इनकार कर दिया। अब यदि श्री मंडल सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर देते हैं और वैश्य ओबीसी की उपेक्षा और झारखंड के क्षेत्रवाद के मुददा बनाकर चुनाव लड़ते हैं तो भाजपा का खेल झारखंड में खराब हो सकता है। (संवाद)