पर एकाएक रामविलास पासवान द्वारा लालू को छोड़कर मोदी के पाले मे ंजाने से बिहार का राजनैतिक संतुलन ही बिगड़ गया। रामविलास पासवान मोदी विरोधी रहे हैं। गोधरा में रेल के डब्बे जलने के बाद हुए गुजरात के दंगों का हवाला देते हुए उन्होंने 2002 में वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दिया था और मोदी को हत्यारा व दंगाई कहने का कोई मौका वे पिछले 12 साल से कभी नहीं चूकते थे। एकाएक एक मोदी विरोधी के मोदी के पाले में जाने से बिहार की राजनीति ही बदलने लगी।
इस घटना ने एक साथ दो काम किए। पहला काम तो यह किया कि इससे लालू कमजोर दिखाई पड़ने लगे। वे अपनी जीत के लिए मुस्लिम, यादव, पासवान और राजपूत समीकरण बना रहे थे। राजनाथ सिंह के राजपूत होने के कारण हालांकि कुछ लोगों को संदेह हो रहा था कि राजपूत पूरी तरह उनके साथ जुट पाएंगे भी या नहीं, लेकिन लालू इसको लेकर आशावादी थे। पर पासवान के गठबंधन से बाहर निकलने के बाद लालू का समीकरण ध्वस्त होता दिखा।
पासवान द्वारा मोदी की गोद में आने का दूसरा असर यह हुआ कि इससे भाजपा भी वहां कमजोर हो गई। नरेन्द्र मोदी के कारण भाजपा के पक्ष में तेज हवा चल रही थी और जाति की राजनीति से त्रस्त लोग उसमें एक संभावना देख रहे थे। मोदी के पक्ष में हवा चलने का एक कारण यह भी था कि लालू, नीतीश और रामविलास पासवान की जातिवादी राजनीति से अनेक लोग तंग आने लगे थे। लेकिन पासवान के भाजपा के साथ जुड़ने से वैसे तत्वों को झटका लगा। रामविलास पासवान की छवि बिहार में बेहद खराब हो चुकी है। उनकी छवि अपराधियों को खुलेआम प्रश्रय देने वाले एक नेता की बनी है और वंशवाद की राजनीति में उन्होंने लालू यादव को भी पछाड दिया है। उससे भी बड़ी बात रामविलास को लेकर यह है कि नीतीश की दलित और महादलित राजनीति ने उन्हें अपनी जाति तक ही सीमित कर डाला है। बिहार के महादलित, जो कुल दलितों के दो तिहाई से भी ज्यादा है, रामविलास पासवान को पसंद नहीं करते। सच तो यह है कि बिहार के दलितों के बीच दलित और महादलित की विभाजन रेखा बन गई है। और इसके कारण बिहार के महादलितों का एकाएका भाजपा से मोह भंग होने लगा। दो फीसदी मतों के लिए भाजपा ने 10 फीसदी महादलित मतदाताओं को एकाएक नाखुश कर दिया।
भाजपा ने रामविलास पासवान की पार्टी को 7 सीटें भी दे दीं। इसके कारण भी उसे नुकसान हुआ। इन सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करके भाजपा समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों से अपने को जोड़ने का काम कर सकती थी, लेकिन उसने ये 7 सीटें ही नहीं, बल्कि 3 अन्य सीटें भी एक ऐसे व्यक्ति को दे दी, जो जद(यू) लहर के बावजूद उस दल के उम्मीदवार के रूप में लगातार दो बार विधानसभा चुनाव हार चुका था। इन 10 सीटों का नुकसान भारतीय जनता पार्टी पर भारी पड़ने लगा। पासवान और कुशवाहा दोनों को कुल मिलाकी दी गई 10 सीटें जातिवादी राजनीति के तहत ही दी गई थीं। जाहिर है भाजपा के जातिवादी राजनीति के विरोध की हवा कम से कम बिहार में निकल गई।
और इसके साथ ही नीतीश कुमार एक मजबूत नेता के रूप में उभरने लगे। दलित और महादलित राजनीति का द्वंद्व उनका ही खड़ा किया हुआ था। लेकिन मोदी लहर में यह द्वंद्व कहीं खोग गया था, पर भाजपा ने रामविलास पासवान को 7 सीटे देकर इस द्वंद्व को फिर जिंदा कर दिया। महादलितों का झुकाव नीतीश की तरफ होने लगा। नीतीश ने ओबीसी और एमबीसी का भी द्वंद्व खड़ा किया था। कुशवाहा को सीटें दिए जाने के कारण यह द्वंद्व भी जिंदा हो गया। बिहार की जाति राजनीति आज उस मोड़ पर पहुंची है, जहां हाशिए पर पहंुची ओबीसी जातियां खेतिहर जातियों से अलगाव महसूस कर रही हैं। इस अलगाव के कारण नरेन्द्र मोदी की ओर उनका झुकाव हो रहा था, लेकिन कुशवाहा एक खेतिहर जाति है और उसके एक नेता को तीन सीटें देकर भाजपा ने हाशिए पर चली गई ओबीसी जातियों के घाव का हरा कर दिया। नीतीश कुमार से भी उनकी नाराजगी है, लेकिन नीतीश ने हाशिए पर चली गई जातियों के लिए ग्राम पंचायतों में आरक्षण दिया था। हालांकि इसे वे लोग नरेन्द्र मोदी की लहर में भूलने लगे थे। पर कुशवाहा को सम्मानित कर भाजपा ने उनके एक हिस्से को भी नीतीश की ओर धकेल दिया।
इस तरह से नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में एक बार फिर मजबूती की ओर बढ़ रहे हैं। उन्होंने मुसलमानों में भी अगड़े और पिछड़े का भेद खड़ा किया था। लोगों को लग रहा था कि मुसलमानों को इस तरह से जातियों में बांटकर राजनीति नहीं की जा सकती, पर लालू के कमजोर पड़ते ही, नीतीश की यह राजनीति भी काम करने लगी है। राष्ट्रीय जनता दल को छोड़कर कुछ ओबीसी मुस्लिम नेता नीतीश का दामन थाम चुके हैं और वे लालू के ऊपर ओबीसी मुसलमानों की उपेक्षा का आरोप लगा रहे हैं। ऐसे कम से कम तीन मुस्लिम नेताओं को नीतीश ने अपनी पार्टी का टिकट भी दे दिया है। जाहिर है अब मुस्लिम मतों का एक हिस्सा नीतीश के दल को भी मिलने वाला है।
इस तरह भारतीय जनता पार्टी ने गलत रणनीति अपनाकर नीतीश कुमार की राजनीति को जिंदा कर दिया है। इससे उसको सीटों का नुकसान होना लाजिमी है। रामविलास और कुशवाहा के लिए छोड़ी गई 10 सीटों में अधिकांश पर भाजपा गठबंधन के उम्मीदवार हारेंगे। उन सीटों पर नरेन्द्र मोदी की लहर का फायदा पूरी तरह से गठबंधन के उम्मीदवार उठा भी नहीं पाएंगे। भारतीय जनता पार्टी सीधे मुकाबले मे ंलालू के उम्मीदवारों को पराजित करने में बेहतर स्थिति में थी, लेकिन त्रिकोणीय मुकाबला उसके लिए कठिन साबित होने वाला है, क्योंकि नीतीश के उम्मीदवार उन्हीं मतों की हिस्सेदारी करेंगे, जो सीधे मुकाबले में भाजपा को मिलते। इस तरह भाजपा ने गठबंधन कर बिहार में अपना नुकसान कर दिया है। (संवाद)
लोक सभा चुनाव 2014: बिहार में त्रिकोणीय मुकाबला
गठबंधन कर भाजपा ने किया अपना नुकसान
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-03-22 10:55
लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों के बीच बिहार का राजनैतिक संग्राम अब त्रिकोणात्कम हो चुका है। पिछले एक महीने में घटी राजनैतिक घटनाओं ने संघर्ष की दिशा और दशा दोनों को बदल डाला है। एक समय था, जब लग रहा था कि बिहार में नरेन्द्र मोदी और लालू यादव के बीच सीधा मुकाबला होने जा रहा है। मोदी विरोधी लोग लालू के पाले में और लालू विरोधी मोदी के पाले में जाएंगे और इस तरह के ध्रुवीकरण में नीतीश कुमार का कहीं अता पता भी नहीं रह पाएगा। बिहार की राजनीति का नब्ज टटोलने वालों को यही लग रहा था और इन पंक्तियों के लेखक को भी कुछ वैसा ही लग रहा था।