1984 का लोकसभा चुनाव इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद राहुल गांधी के प्रति उपजी सहानुभूति लहर पर लड़ी गई थी। उसमें श्रीमती गांधी की हत्या मुख्य मसला थी न कि कोई व्यक्ति। 1989 का लोकसभा चुनाव भ्रष्टाचार के मसले पर लड़ा गया था। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, जाहिर है वे भ्रष्टाचार मसले पर गैर कांग्रेसी पार्टियों के निशाने पर थे।

1991 का चुनाव मंडल और मंदिर के मुद्दे पर लड़ा जा रहा था और चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गई थी। उस हत्या ने चुनाव का एजेंडा ही बदल डाला और हत्या के बाद हुए चुनावों में हत्या से उपजी सहानुभूति लहर ने चुनाव को प्रभावित कर डाला। 1996 का चुनाव कांग्रेस, भाजपा और गैरकांग्रेस गैरभाजपा गठबंधन के बीच हुआ था। उसमें भी कोई व्यक्ति मसला नहीं बना था। 1998 के चुनाव में एक बार फिर 1996 वाला ही माहौल था। उस बीच तीसरे मोर्चे का मुख्य दल जनता दल का विभाजन हो गया था। लालू यादव राष्ट्रीय जनता दल बनाकर बिहार में अलग लड़ रहे थे, तो नवीन पटनायक बीजू जनता दल बनाकर आडिसा में अलग लड़ रहे थे। मूल जनता दल बहुत कमजोर हो चुका था और उसके कारण तीसरा मोर्चा लगभग समाप्त हो चुका था। जनता दल के बिखराव का लाभ भारतीय जनता पार्टी को हुआ और उसने 1998 के लोकसभा चुनाव में अपनी स्थिति और भी मजबूत कर ली। फिर 1999 में चुनाव चुनाव हुआ। उस समय भी व्यक्ति कोई मुद्दा नहीं बना था, हालांकि भारतीय जनता पार्टी के नेता अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्री जनतांत्रिक गठबंधन लगभग दो दर्जन पार्टियों को लेकर चुनाव मैदान में था। सोनिया गांधी का विदेशी मूल एक मुद्दा जरूर था, लेकिन वह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं था। उसे यदि बड़ा मुद्दा मान भी लें, तो वह मूल मुद्दा नहीं था।

2004 में हुए लोकसभा चुनाव में भी कोई व्यक्ति मुद्दा नहीं बना था। यही हाल 2009 के लोकसभा चुनाव का था। पर 2014 का यह लोकसभा चुनाव एक व्यक्ति को मुद्दा बनाकर लड़ा जा रहा है और वह भी तब, जब वह व्यक्ति खुद प्रधानमंत्री के पद पर नहीं है, बल्कि उन्हें भारतीय जनता पार्टी ने अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर रखा है। सवाल उठता है कि आखिरकार यह चुनाव इतना व्यक्ति केन्द्रित क्यों है और भाजपा विरोधी पार्टियां अब एक व्यक्ति पर ही हमले तेज कर अपनी चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश क्यों कर रही है?

तो इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि देश की अधिकांश पार्टियां अब मुद्दों की राजनीति से भटक गई हैं। वे पिछले कई दशकों से एक से बढ़कर एक मुद्दे उछालती रही हैं। कोई समाजवाद की बात करता था, तो कोई सामाजिक न्याय की तो कोई धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की। कभी मंडल मुद्दा बनता था, तो कभी कमंडम मुद्दा बनता था। कोई मन्दिर की बात करता था, तो कोई मस्जिद की बात करता था। भ्रष्टाचार का मसला तो हर किसी की जुबान पर रहता था। पर पिछले दो ढाई दशकों के दौरान वर्तमान पीढ़ी के राजनेता मुददों के आइने में अपना चेहरा बदरंग कर चुके हैं। मुद्दों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की पोल खुल चुकी है। सत्ता पाकर सत्ता का उपभोग करना उनका स्थायी भाव बन चुका है। समाजवाद और सामाजिक न्याय बंजर नारे साबित हुए हैं और धर्मनिरपेक्षता पाखंड बनकर सामने आई है। भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके मुह से कुछ सुनना तो लोगों को भद्दा मजाक लगता है। ऐसी परिस्थिति में वे इन मुद्दों पर बोलकर अपना मुह और सुनने वालों के मिजाज ही खराब करेंगे। अब मुलायम सिंह यादव भला समाजवादी की बात कैसे कर सकते, जबकि वे वंशवादी की राजनीति में देश के अन्य पारिवारिक घरानों का नेतृत्व कर रहे हैं? लालू यादव सामाजिक न्याय की बात कैसे कर सकते हैं, जबकि उन्होंने सत्ता में रहते अपनी ही जाति और परिवार के बारे में सोचा और मुसलमानों मे सांप्रदायिकता को उभारकर उनके साथ जातिवादी सांप्रदायिक गठबंधन बनाते रहे। वे खुद भी सजायाफ्ता हैं और जमानत पर जेल से बाहर हैं। वे कोई बड़ी बड़ी बातें करें, तो भला कोई उनका गंभीरता से क्यों लेगा? मायावती पिछले 5 सालों से केन्द्र की यूपीए सरकार को समर्थन दे रही हैं। फिर उनके पास केन्द्र के खिलाफ बोलने के लिए क्या रह जाता है? वे अनुसूचित वर्गों की प्रोन्नति में आरक्षण के मुद्दे को कैसे उठा सकती, क्योंकि जिस सरकार के पास इस पर संविधान संशोधन की पहल की जिम्मेदारी थी, वह माया के समर्थन से ही चल रही थी।

मुस्लिमपरस्ती का दंभ भरने वाले रामविलास पासवान खुद भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से लोकसभा में प्रवेश का सपना देख रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी को ब्राह्मणवादी मानने वाले अनेक दलित नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं। जाहिर है, चारों और वैचारिक अफरातफरी मची हुई है। लोकसभा का यह चुनाव दरअसल वैचारिक लड़ाई नहीं, बल्कि सत्ता की छीन झपट की लड़ाई बन कर रह गई है। और छीन झपट हो रही है, तो फिर यह तो व्यक्तियों से ही छीना जाना है। इसके कारण देश की पूरी राजनीति ही वैयक्तिक हो गई है।

और इस वैयक्तिक लड़ाई के केन्द्र में नरेन्द्र मोदी आ गए हैं। वे देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। लोकप्रियता की दहलीज पर वे क्यों पहुंचे यह, तो अलग शोध का मुद्दा है, लेकिन आज देश की पूरी राजनीति के केन्द में वे ही हैं। भाजपा विरोधी पार्टियों के लिए भाजपा उतनी खतरनाक नहीं, जितने खतरनाक नरेन्द्र मोदी हैं। उनका मुख्य मकसद अब भाजपा को सत्ता में आने से रोकना नहीं है बल्कि नरेन्द्र मोदी को सत्ता में आने से रोकना है। जब राजनीति मुद्दाविहीन हो जाती है, तो इसी तरह यह व्यक्ति केन्द्रित हो जाती है। (संवाद)