कांग्रेस का इतिहास यही कहता है कि इसमें सत्ता के दो केन्द्र नहीं हो सकते हैं। कांग्रेस बहुत समय तक सत्ता में रही है, लेकिन सरकार का प्रधानमंत्री पद और कांग्रेस का अध्यक्ष पद लंबे समय तक एक ही व्यक्ति के हाथ में रहा है। आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू और सरदार बल्लभ भाई पटेल में प्रधानमंत्री पद के लिए प्रतिस्पर्धा हुई, लेकिन महात्मा गांधी का समर्थन होने के कारण नेहरू इसमें सफल रहे। बाद में गांधी जी की हत्या हो गई और सरदार पटेल की भी मौत हो गई। उसके बाद तो जवाहरलाल नेहरू को चुनौती देने वाला कोई नहीं रह गया था। कांग्रेस को चुनावी सफलता भी उन्हीं के कारण मिला करती थी। 1950 में जब पुरुषोत्तम दास टंडन को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था, तो जवाहरलाल नेहरू ने इसकी कार्य समित से इस्तीफा दे दिया था। उसके एक साल के बाद टंडन ने इस्तीफा दे दिया। उसके बाद नेहरू प्रधानमंत्री पद के साथ साथ कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर भी काबिज हो गए। 1955 में यू एन थेबर कुछ समय ने के लिए कांग्रेस के अध्यक्ष हुए और उनके बाद इन्दिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष हो गईं। फिर संजीवा रेड्डी अध्यक्ष बने। संजीवा रेड्डी के बाद कामराज कांग्रेस अध्यक्ष बने और उनके बाद निजलिंगप्पा पार्टी अध्यक्ष बने। 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया। विभाजन के बाद इन्दिरा गांधी ने जगजीवन राम और देवकांत बरुआ जैसे नेताओं के हाथ में कांग्रेस की कमान सौंपी, जो उनके विश्वस्त लोगों में शामिल थे और उनकी सत्ता को चुनौती नहीं दे सकते थे।

1978 में कांग्रेस का एक बार और विभाजन हुआ। उस विभाजन के बाद इन्दिरा गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष का पद अपने पास ही रखा। 1980 में प्रधानमंत्री बनने के बाद इन्दिरा दोनों पदों पर एक साथ काबिज रहीं। इन्दिरा के बाद राजीव गांधी भी दोनों पदों पर बने रहे। 1989 में कांग्रेस के हाथ से सत्ता चली गई, पर राजीव गांधी अपने अंतिम समय तक अध्यक्ष पद पर रहे और उनकी हत्या के बाद नरसिंह राव कांग्रेस अध्यक्ष के साथ साथ केन्द्र सरकार में प्रधानमंत्री भी बन बैठे।

जब सोनिया गांधी ने 1998 में कांग्रेस पर कब्जा किया, उस समय पार्टी विपक्ष में थी। यह सत्ता में 2004 में आई। उस समय सोनिया गांधी को ही प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस के अंदर से ही नहीं, बल्कि सहयोगियों की ओर से भी सहमति मिली थी, पर सोनिया ने प्रधानमंत्री पद पर मनमोहन सिंह को बैठा दिया।

मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर सोनिया गांधी ने एक नया अध्याय शुरू किया। सत्ता तो मुख्य रूप से उनके हाथ में ही सिमटी रही, लेकिन जवाबदेही मनमोहन सिंह के हाथों में रही। जवाबदेही रहित सत्ता का इस्तेमाल सोनिया गांधी करती रहीं। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर ही अपने आपको धन्य मानते रहे। उन्हें यह पता था कि प्रधानमंत्री उन्हें सोनिया गांधी ने बनाया है और वह जब चाहेंगी, उन्हें हटा देंगी। यह कारण है कि उन्होंने सोनिया गांधी से कभी टकराव मोल नहीं लिया। वे सोनिया गांधी के उन नीतिगत आदेशों को भी मानते रहे, जिन्हें वे पसंद नहीं करते थे। वे बाजारवादी हैं, लेकिन सोनिया गांधी के अनेक कथित समाजवादी नीतियों पर मुहर लगाने के लिए बाध्य होते रहे। सिर्फ अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार पर वे अड़े, लेकिन वहां भी वे राहुल गांधी के समर्थन के कारण ही सफल हो पाए। इसलिए यह कहना गलत होगा कि सत्ता का कभी दो केन्द्र भी था। सच तो यह है कि सोनिया गांधी सत्ता का एकमात्र केन्द्र बनी रहीं। (संवाद)