उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले भी कांग्रेस ने इसी तरह का सांप्रदायिक कार्ड खेला था। उसने ओबीसी के 27 फीसदी को विभाजित कर हिंदु ओबीसी के लिए उसमें से साढ़े बाइस प्रतिशत और गैर हिंदु ओबीसी को साढ़े चार प्रतिशत देने की व्यवस्था करते हुए एक आदेश जारी कर दिए थे। उस आदेश के बावजूद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बुरी तरह पिट गई। 2009 के लोकसभा चुनाव में 100 से भी ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल करने वाली कांग्रेस को 2012 में उस आदेश के बाद हुए चुनाव में मात्र 28 सीटें ही हासिल हुईं। जाहिर है, मुस्लिम सांप्रदायिकता का खेला गया उसका कार्ड विफल हो गया। उसकी स्थ्तिि पहले से भी पतली हो गई, जबकि हिंदु ओबीसी का ज्यादा से ज्यादा वोट पाने के लिए उसने इस समुदाय से अनेक उम्मीदवार खड़े कर दिए थे। पर जब आपकी नीतियां ओबीसी विरोधी हो, तो ओबीसी उम्मीदवार आपकी जीत सुनिश्चित नहीं करा सकते। ओबीसी नेता किसी पार्टी को अपने समुदाय का वोट तभी दिला सकते हैं, जब उस पार्टी की नीति ओबीसी के खिलाफ नहीं हो। पर कांग्रेस के नीति निर्धारकों को इस छोटी सी बात की भी समझ नहीं।
देश की जाति राजनीति की अपनी समझ के दिवालिएपन का प्रमाण देते हुए कांग्रेस ने एक बार फिर वहीं भूल कर डाली है, जिसके कारण 2012 के विधानसभा चुनाव में उसे उत्तर प्रदेश में करारी शिकस्त खानी पड़ी। बल्कि इस बार उसने पहले से भी ज्यादा बड़ी गलती कर डाली है। इस बार उसने ओबीसी को ही नहीं, बल्कि हिंदु दलितों को भी अपने निर्णय से नाराज करने का काम किया है। गौरतलब है कि हिंदू दलित आरक्षण की फीसदी को बढ़ाए बिना नये समुदायों को अनुसूचित जाति के दायरे में लाए जाने का विरोध करते हैं। मायावती खुद मुस्लिम और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति के रूप में मान्यता दिए जाने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन इसके साथ वह आरक्षण का कोटा भी बढ़वाना चाहती हैं, जो संभव नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दे रखा है कि जाति आधारित कुल आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। आरक्षण की सीमा उस हद को छू रही है और 50 फीसदी की सीमा को तोड़े बिना न तो अनुसूचित जाति के लोगों का और न ही ओबीसी का आरक्षण प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है।
इसलिए मुस्लिम दलितों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने का विरोध होता है और इस विरोध में एक राजनैतिक पार्टी के रूप में भाजपा सबसे आगे रहती है। सच यह है कि दलित मुस्लिमों के अनुसूचित जाति के दायरे से बाहर रखने के लिए मुस्लिम नेता ही जिम्मेदार हैं। जब सूची बन रही थी, तो उन्होंने कहा था कि छुआछूत मुसलमानें में नहीं है, इसलिए किसी भी मुस्लिम को अछूत मानते हुए अनुसूचित जाति में नहीं रखा जा सकता। उन्होंने तो उस समय मुसलमानों में जाति व्यवस्था के होने का ही खंडन कर दिया था। गौरतलब है कि अनुसूचित जातियों में उन्हीं जातियों को शुमार किया जा रहा था, तो छुआछूत की सामाजिक बुराई से पीडि़त थे। विरोध करके दलित मुस्लिमों को आरक्षण के अधिकार से पहले तो मुस्लिम नेताओं ने वंचित कर दिया और अब उनके लिए अनुसूचित जाति के तहत आरक्षण की मांग कर रहे हैं।
ये दलित मुस्लिम ओबीसी में शामिल हैं। ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण के दायरे में ये पहले से ही आते हैं। अनेक मुस्लिम जातियां 27 फीसदी आरक्षण का फायदा उठा रही हैं। आरोप तो यह भी लगता है कि मुस्लिमों की अगड़ी जातियां भी ओबीसी का गलत प्रमाणपत्र बनवाकर इसका लाभ उठा रही हैं। यह एक अलग मामला है, लेकिन असली समस्या मुस्लिम नेताओं की वह मांग है, जिसके तहत वे ओबीसी कोटे कें अंदर आने वाले मुस्लिम ओबीसी का अलग कोटा चाहते हैं। जिस तरह देश को धर्म के आधार पर भारत और पाकिस्तान में बांट दिया गया, उसी तर्ज पर मुस्लिम नेता ओबीसी कोटे को हिंदु ओबीसी कोटा और मुस्लिम ओबीसी कोटे के रूप में बांटना चाहते हैं। यह निश्चय ही बहुत खतरनाक मांग है। ओबीसी के 27 फीसदी कोटे को पिछड़ेपन के आधार पर दो या अधिक श्रेणियों में बांटा जा सकता है, लेकिन धर्म के आधार इसे बांटना असंवैधानिक भी है। कोर्ट इस तरह की कोशिशों को कई बार खारिज कर चुकी है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले संप्रदाय के आधार पर 27 फीसदी कोटे के हुए विभाजन को अदालत निरस्त कर चुकी है। अब कांग्रेस ने चुनावी वायदा किया है कि वह इसे संभव बनाने के लिए रास्ता तलाशेगी। रास्ता तलाशने का मतलब है संविधान में संशोधन कर मजहब के आधार आरक्षण की व्यवस्था को संभव बनाना। पर क्या इस तरह का संविधान संशोधन करने के लिए संसद सक्षम है? संविधान के मूल ढांचे में संशोधन संसद भी नहीं कर सकती और धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल में है। धर्म के आधार पर निर्णय लेने का कोई भी संशोधित प्रावधान संविधान की धर्मनिरपेक्षता पर ही चोट करेगा। क्या सुप्रीम कोर्ट संसद को ऐसा करने देगा?
जहिर है, कांग्रेस मुसलमानों से वह वायदा कर रही है, जिसे वह पूरा कर ही नहीं सकती, क्योंकि संविधान उसे वैसा करने की इजाजत नहीं देता। पर फिलहाल उसकी नजर मुस्लिम वोटों पर है। आधी से ज्यादा सीटों पर चुनाव हो चुके हैं। उसके बाद इस तरह का निर्णय लेना मुस्लिम वोटों के लिए उसकी बेचैनी का ही इजहार करता है। पर सवाल उठता है कि सिर्फ मुस्लिम वोट ही चुनाव नहीं जिताते। अन्य समुदायों का वोट भी उतना ही जरूरी है। सभी मतों के मान बराबर हैं। फिर कांग्रेस को इस तरह के निर्णय लेने की क्यों सूझी? यह समझ से बाहर की बात है। बस इतना ही कहा जा सकता है कि जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। हिंदू ओबीसी और दलितों के बीच कांग्रेस के इस चुनावी वायदो को ले जाकर भाजपा और भी अपने को मजबूत करने की कोशिश करेगी और इससे अंततः फायदा उसे ही होगा। (संवाद)
भारत
कांग्रेस ने फिर खेला सांप्रदायिक कार्ड
लाभ से ज्यादा नुकसान ही होगा
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-04-26 10:24
संस्कृत में एक कहावत है, ’’विनाशकाले विपरीत बुद्धि’’। यह कहावत कांग्रेस पर सटीक साबित हो रही है। चुनावी घमासान के बीच उसने अपने घोषणापत्र में कुछ और जोड़ करते हुए सांपद्रायिक राजनीति का खेल खेल डाला है। सांप्रदायिक राजनीति का यह खेल मुसलमानों का वोट पाने के लिए है। उसने उन्हें खुश करने के लिए उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने का वायदा कर डाला है। वायदे के अनुसार कांग्रेस दलित अल्पसंख्यकों यानी मुसलमानों को अनुसूचित जाति का दर्जा देगी और ओबीसी कोटे के 27 प्रतिशत को हिंदू और मुस्लिम के लिए बंटवारा कर देगी।