भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में मिली बढ़त से प्रधानमंत्री पद के प्रदेश से तीनों दावेदारों को अपनी अगली रणनीतियों के बारे में सोचना पड़ेगा। गौरतलब है कि मुलायम सिंह यादव, मायावती और राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के दावेदार बने हुए हैं। मुलायम सिंह यादव तो अपने समर्थकों को बार बार कहा करते थे कि उनकी पार्टी को यदि 50 से ज्यादा सीटें आ जाए, तो वे देश के अगले प्रधानमंत्री बन सकते हैं। मायावती भी लगातार अपने समर्थकों से बसपा उम्मीदवारों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में जिताने की अपील कर रही थीं, ताकि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में वे देश के प्रधानमंत्री बन सकें। राहुल गांधी को औपचारिक रूप से कांग्रेस ने अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार नहीं घोषित किया था, लेकिन राहुल खुद अपने को प्रधानमंत्री दावेदार के रूप में पेश कर रहे थे और कह रहे थे कि यदि लोकसभा चुनाव के बाद सांसदों ने चाहा, तो वे प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं। अब प्रधानमंत्री पद के इन तीनों दावेदारों को सोचना होगा कि उनसे गलती कहां हुई और वे जनता के साथ क्यों नहीं जुड़ पाए।

अखिलेश सरकार सत्ता में अपने दो साल पूरे कर चुकी है। समाजवादी पार्टी को सोचना होगा कि उसकी सरकार ने ऐसा क्या किया, जिसके कारण वह पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों को भी दुहरा नहीं पाई। 2012 के विधानसभा चुनाव क्या, वह तो 2009 से लोकसभा चुनाव के नतीजों को भी दुहरा नहीं पा रही है।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के लोगों ने 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को अभूतपूर्व जनादेश दिए थे। उस समय 224 सीटों पर सपा के उम्मीदवार जीते थे। प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में 5 विधानसभा क्षेत्र होते हैं। इसलिए यदि इस सफलता को लोकसभा सीटों की सफलता में बदला जाए, तो करीब 45 लोकसभा सीटों पर समाजवादी पार्टी को बढ़त हासिल हुई थी।

लेकिन अखिलेश सरकार ने जनता की आशाओं को पूरा नहीं किया। कानून व्यवस्था की स्थिति लगातार बद स बदतर होती रही और नौकरशाही में भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ता रहा। अब वहां के लोग बोलने लगे हैं कि उम्मीद की साइकिल पंक्चर हो चुकी है। गौरतलब है कि साइकिल समाजवादी पार्टी को चुनाव चिन्ह है। पिछले विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने अपनी पानी को उम्मीद की साइकिल बताई थी।

अखिलेश यादव सरकार पर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने का आरोप भी लगता रहा। प्रदेश भर में सांप्रदायिक हिंसा और तनाव की 100 से भी ज्यादा घटनाएं घटित हुईं, जिनमें मुजफ्फरनगर के दंगे सबसे ज्यादा हिंसक थे। उस दंगे के लिए सरकार को सीधा जिम्मेदार माना जा रहा था, क्योंकि एक मंत्री द्वारा पुलिस के कामों में हस्तक्षेप के कारण ही लोग भड़क गए थे।

मुलायम सिंह यादव ने मुस्लिम कार्ड को बहुत ही आक्रामकता के साथ खेला। खासकर आजमगढ़ से पर्चा भरने के बाद उनका मुस्लिम कार्ड देखने लायक था। उसके कारण हिदु ध्रुवीकरण को पूरे पूर्वांचल में बढ़ावा मिला। उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री आजम खान ने भी अपने बयानों से सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया और उसके कारण हिंदुओं का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष मे होता चला गया।

राजनैतिक विश्लेषकों का कहना है कि मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री तो बना दिया था, लेकिन उन्हें सरकार चलाने की पूरी आजादी नहीं दे रखी थी। सरकार चलाने का रिमोट उन्होंने अपने हाथ में ही रखा और उसके कारण ही उत्तर प्रदेश प्रशासन अच्छी तरह काम करने में विफल रहा।

अब अनुमान लगाए जा रहे हैं कि मुलायम सिंह खुद मुख्यमंत्री का पद संभाल लेंगे और बेटे अखिलेश को संगठन मजबूत करने का जिम्मा सौंप देंगे। (संवाद)