अन्ना को केजरीवाल की अतिशय महत्वाकांक्षा का उसी समय अहसास हो गया था, जब उन्होंने अपनी राजनैतिक पार्टी बनाने के लिए अपने गुरू का साथ छोड़ दिया। कुछ समय के लिए तो लगा था कि पार्टी बनाकर अरविंद ने सही किया है और उनका साथ नहीं देकर अन्ना ने गलत किया है, लेकिन अब साफ हो रहा है कि अन्ना सही थे, जबकि उनका चेला अरविंद गलत साबित हुआ है।

लोकसभा चुनाव में धूल चाटने के बाद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का बिखराव शुरू हो गया है। अनेक लोग इस पार्टी को छोड़ रहे हैं। छोड़ने वालों में अनेक महत्वपूर्ण लोग शामिल हैं। जिस तरह से पार्टी का विस्तार हुआ था और जिस तरह से इसके नेता अपने द्वारा बनाई गई एक झूठी दुनिया में रह रहे थे, उसे देखकर साफ लग रहा था कि इसका पतन अवश्यांभावी हैं।

केजरीवाल को लगता था कि सिर्फ वही सही हैं और बाकी सभी लोग गलत हैं। एक बार सीपीआई के नेता एबी बर्धन ने उन्हें कहा था कि वे यह नहीं समझें की सारे ज्ञान का भंडार उन्हीं के पास हैं। केजरीवाल लोगों से चांद लाने का वायदा करते रहे, लेकिन राजनीतिज्ञों के बीच वे अपने आपको सही ढंग से पेश नहीं कर पाए।

दिल्ली की सफलता पाने के बाद केजरीवाल को लगा कि उन्होंने आधी लड़ाई जीत ली है। लेकिन उन्हें यह अहसास नहीं हो सका कि अपने राजनैतिक विरोधियों को भी उन्हें गंभीरता से लेना चाहिए। वे उन पर ऐसे आरोप लगाने लगे, जिनका सबूत उनके पास नहीं था। इस नतीजा मुकदमेबाजी के रूप में हुआ। उन्हें लगा कि उन मुकदमों में जेल जाकर वे लोगों के हीरो बन जाएंगे। लेकिन जब वे जेल गए, तो उसके कुछ दिन पहले ही उनकी और उनकी पार्टी की भारी हार हुई थी, जिसके कारण जेल जाने पर उन्हीं का मजाक उड़ा।

केजरीवाल की समस्या यह थी कि जितनी जगह उनके मुह में है, उससे ज्यादा उसमें उन्होंने डाल लिया था। कांग्रेस के खिलाफ लोगों के गुस्से का गलत विश्लेषण करते हुए उन्होंने यह मान लिया था कि लोग पूरे राजनैतिक वर्ग के खिलाफ हैं। भाजपा और कांग्रेस को एक साथ रखकर उन्होंने सिर्फ उन्हीं लोगों को खुश किया, जो इन दोनों पार्टियों से ऊब चुके थे। उन्हें दिल्ली की सरकार बनाने के बाद धैर्य रखना चाहिए था, पर उन्होंने सोचा कि दिल्ली सरकार छोड़ने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर उनकी वाहवाही होगी और वे लोकसभा चुनाव में अच्छी जीत हासिल कर पाएंगे।

यदि आम आदमी पार्टी का पतन एकाएक हुआ है, तो सीपीएम ने धीरे धीरे अपनी जमीन खोई है। 2004 के लोकसभा चुनाव में उसे कुल 44 सीटें हासिल हुई थीं। 2009 के चुनाव में वह घटकर 16 हो गईं और पिछले चुनाव मंे 9 तक गिर गई। उसे मिले मतों का प्रतिशत भी काफी गिर गया है। 2009 में उसकी पराजय मनमोहन सिंह सरकार को दिए जा रहे समर्थन की वापसी के बाद हुई थी। उस समय सीपीएम को लगा था कि उसका अमेरिका विरोध उसे बहुत वोट दिलाएगा, लेकिन वैसा नहीं हो सका। अब भारत के लोगों के बीच अमेरिकी विरोध का स्वरूप् पहले जैसा नहीं रहा। सीपीएम ने तब मायावती को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश करने का भी संकेत दिया था, लेकिन इसने भी उसके पक्ष में काम नहीं किया। इस बार तो उसकी और भी भद्द पिट गई है। सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात की जिम्मेदारी पार्टी केा जिताने की थी, लेकिन वे भी विफल रहे। (संवाद)