इसकी पहली गलती थी अल्पमत में होने के बावजूद दिल्ली में सरकार बनाने का गठन। उसकी इस गलती के कारण पार्टी मंे ऐसे लोगों के आने की कतार लग गई, जिनका मतलब सत्ता से जुड़कर सिर्फ अपना स्वार्थ साधना था। ऐसे लोग भी भारी संख्या में आ गए, जिन्हें लगा कि नई पार्टी की पूछ पकड़कर वे लोकसभा का चुनाव जीतना। उन्हें लगा कि बिना किसी विशेष तैयारी के जब आम आदमी पार्टी दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीत सकती है, तो उसके टिकट पर लोकसभा का चुनाव क्यों नहीं जीता जा सकता। यदि आम आदमी पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है, तो लोकसभा चुनाव लड़ने का लोभ लेकर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए इन खास लोगों के कारण ही।

इन लोगों के पार्टी मे आने के कारण पार्टी का आम आदमी स्वरूप बाधित होने लगा। ऐसा लगने लगा कि यह सिर्फ नाम की आम आदमी पार्टी है। दिल्ली विधानसभा में सफलता पाने के बाद पार्टी को इसके आसपास के छोटे छोटे राज्यों मे ंअपने पैर फैलाने चाहिए थे, लेकिन एकाएक इसने अपने आपको राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभारने का फैसला कर लिया और जितनी सीटो ंसे संभव हो सके चुनाव लड़ने का मन बना लिया। इसके लिए पार्टी के पास किसी तरह की तैयारी नहीं थी। सच कहा जाय, तो उसका पास चुनाव लड़ने के लिए अपने लोग तक नही थे। फिर उसने उसकी पार्टी पर जो भी चुनाव लड़ना चाहे, उसे ही लड़ा डालने का फैसला कर लिय, बशर्ते उसका अतीत विवादास्पद न रहा हो। ऐसे लोग देश के सभी क्षेत्रों में होते हैं, जिनका अतीत आपत्तिजनक नहीं होता और वे भारी संख्या में चुनाव लड़ते हैं। चुनाव लड़ने का शौक उन्हें निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में ही खड़ा कर देता है। आम आदमी पार्टी द्वारा ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा के बाद ऐसे शौकिए चुनाव बाज भी उसके पास टिकट लेने के लिए आने लगे। वैसे अनेक केपियरिस्ट लोग तो दिल्ली में उसकी सरकार बनने के साथ ही उसके पास चुनाव लड़ने की उम्मीद से बाहर से आ टपके थे।

अपनी तैयारी को देखते हुए आम आदमी पार्टी को लोकसभा का चुनाव सीमित स्तर पर ही लड़ना चाहिए था। चुनाव लडने की लालसा मात्र से शामिल होने वाले लोगों का पार्टी में घुसने से रोकने के लिए उसे स्पष्ट कर देना चाहिए था कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे निकलने से पहले जो लोग पार्टी में शामिल हुए हैं, उन्हें ही लोकसभा में टिकट दिया जाएगा। उस यह साफ कर देना चाहिए था कि लोकसभा में सांकेतिक रूप से प्रतिनिधित्व करना ही आम आदमी पार्टी का उद्देश्य है, ताकि वह अपनी बात वहां रख सके। उसे लोकसभा चुनाव में दिल्ली और आसपास के छोटे राज्यों पर ही ध्यान देना चाहिए था और अन्य राज्यों में भी लोकसभा का टिकट उन्हीं लोगों को देना चाहिए था, जो या तो अन्ना के आंदोलन में किसी न किसी रूप में शिरकत कर रहे थे अथवा दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के पहले ही पार्टी की सदस्यता ले चुके थे। उन लोगों में से उम्मीदवार को चुनने में कठिनाई नहीं होती और चुनाव भी चुनिंदा क्षेत्रों से लड़े जाते, तो केजरीवाल जैसे नेताओं की चुनावी सभाओं का लाभ उन क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों को मिल सकता था।

लोकसभा चुनाव लड़ने और उसमें ज्यादा से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल करने के लिए केजरीवाल ने अपनी दिल्ली सरकार को ही कुर्बान कर देने की रणनीति बना डाली। अव्वल तो उन्हें सरकार बनाना ही नहीं चाहिए था और यदि सरकार बना लिया था, तो अंतिम समय तक उसे चलाना चाहिए था। चुनाव के पहले की गई घोषणाओं का दबाव निश्चित रूप से केजरीवाल सरकार पर था, लेकिन वे वायदे पूर्ण बहुमत पाने के बाद ही पूरे किए जा सकते थे। इसलिए कोशिश अधिकतम वायदों को पूरा करने की होनी चाहिए थी और उसके लिए अपनी तरफ से सरकार छोड़ना नहीं चाहिए था, लेकिन लोकसभा चुनाव में एक शहीद की छवि लेकर प्रवेश करने की इच्छा ने केजरीवाल से एक और बड़ी गलती करवा दी और वह गलती थी दिल्ली प्रदेश जनलोकपाल के मसले पर सरकार से इस्तीफा दे देने का।

तीसरी बड़ी गलती आम आदमी पार्टी की नरेन्द्र मोदी से टकरा जाने की थी। दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले उसके द्वारा किए गए अपने आंतरिक सर्वेक्षणों के अनुसार उसे मत देने वाले लोगों में से 31 फीसदी प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी के समर्थक थे। दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत का एक कारण आम आदमी पार्टी द्वारा नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोलने की रणनीति थी। उसके कारण ऐसे नरेन्द्र मोदी समर्थकों के मत भी आम आदमी पार्टी को मिले, जिनका भारतीय जनता पार्टी से कोई लेना देना नहीं था। लेकिन लोकसभा चुनाव में अन्य भाजपा विरोधी पार्टियों की तरह ही आम आदमी पार्टी ने मोदी विरोध का अपना मुख्य मुद्दा बना लिया। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की कोख से आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था, लेकिन केजरीवाल ने सांपद्रायिकता को भ्रष्टाचार से भी बड़ा खतरा बताना शुरू कर दिया। साम्प्रदायिकता वास्तव मे एक बड़ा खतरा है, लेकिन इस लोकसभा चुनाव के पहले साम्प्रदायिकता का मतलब ही बहुत सीमित हो गया था और वह मतलब लोगों के गले नहीं उतर पा रहा था। लोगों को लग रहा था कि देश में दंगों की हजारों घटनाएं आजादी के बाद से घटी है, लेकिन सिर्फ मोदी पर ही दंगे का दाग क्यों लगाया जाता है। आम आदमी पार्टी ने भी साम्प्रदायिकता के उसी मतलब को बढ़ावा दिया, जिसका मतलब मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन हासिल करना होता है। ऐसा करके आम आदमी पार्टी ने अपने आपको समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियों के रूप में बदल डाला। ऐसा करके आम आदमी पार्टी ने भाजपा विरोधी वोटों का ही विभाजन किया, जिसका लाभ भाजपा को ही हुआ।

सही या गलत, नरेन्द्र मोदी को लोगों ने लोकसभा चुनाव के बहुत पहले ही अपने दिलो दिमाग में बैठा लिया था। आम आदमी पार्टी को इस हकीकत को समझना चाहिए था और मोदी से लोगों के मोह के भंग होने का इंतजार करना चाहिए था, लेकिन घुसपैठियों ने वैसा होने नहीं दिया और उसका नतीजा सामने है। अब इन घुसपैठियों के पार्टी से बाहर जाने के बाद फिर से नई तैयारी करनी होगी, क्योंकि हार होने के बावजूद संभावनाओं का अंत नहीं हुआ है। (संवाद)