इस चुनाव के पहले तक कांग्रेस को मुख्य चुनौती असम गण परिषद से मिला करती थी, पर उसका तो इस बार खाता तक नहीं खुल पाया। असम गण परिषद को बार असम की सत्ता में रह चुकी है। उसका गठन 1979 से 1985 तक चले छात्रों और युवाओं के एक आंदोलन की कोख से हुआ था। वह आंदोलन बांग्लादेशियों को असम से निकालने की मांग करता था। आल असम स्टूडेंट्स यूनियन और आल असम गण संग्राम परिषद नाम के दो संगठन उस आंदोलन को आयोजित कर रहे थे। राजीव गांधी के साथ आंदोलनकारियों का एक समझौता हुआ और उसके बाद वह आंदोलन समाप्त कर दिया गया और उसके नेताओं ने असम गण परिषद नाम की एक पार्टी बनाई, जिसने अपने जन्म के कुछ समय बाद ही हुए विधानसभा चुनाव में सफलता पाकर अपनी सरकार बना ली।

लेकिन असम गण परिषद का जनाधार समाप्त होता जा रहा है और वह अब भाजपा की ओर खिसक गया है। उसके अनेक नेता भाजपा में आ गए हैं। इसके दो कारण हैं। पहला कारण तो असम गण परिषद के नेताओं का भ्रष्ट होना है। अपने कार्यकाल में उनके नेताओं ने भ्रष्टाचार के मामलें में कांग्रेसियों को मात दे दी थी। सत्ता से बाहर होने के बाद भी उनकी छवि नहीं बदली। इसके कारण उनके समर्थक उनसे दूर होते गए।

दूसरा कारण बांग्लादेशियों से संबंधित उसके मसले भारतीय जनता पार्टी का भी मसला है। भाजपा भी बांग्लादेशी शरणार्थियों को देश से बाहर करने की मांग करती रहती है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी उसने इस मसले को उठाया था। भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र में सरकार बनने की बढ़ती संभावना के बीच असम गण परिषद का जनाधार तेजी से भाजपा की ओर खिसकता गया, जिसका नतीजा भाजपा की शानदार जीत के रूप में सामने आया और असम गण परिषद का एक भी उम्मीदवार चुनाव जीत नहीं सका।

केन्द्र में सत्ता में आने के बाद भाजपा ने असम में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को वापस जाने के मुद्दे को तूल देना शुरू कर दिया है। भाजपा का युवा संगठन उन्हें कह रहा है कि वे 15 दिनों के अंदर खुद अपने देश वापस चले जाएं और यदि वे वापस नहीं गए जो भाजपा के युवा कार्यकत्र्ता घर घर घूमघूमकर उनकी पहचान करेंगे और उन्हें उनके देश वापस भेज देंगे।

इस तरह के अल्टीमेटम से असम के बांग्लाभाषी मुसलमानों में तनाव पैदा हो गया है। सभी बांग्लाभाषी मुसलमान बांग्लादेशी शरणार्थी नहीं है। ब्रिटिश इंडिया कंपनी के समय से ही प्रशासन पूर्वी बंगाल के लोगों को असम में अनाज पैदा करने के लिए भेज रहा था। पूरे ब्रिटिश काल के दौरान खेती के लिए बाहर से लोगों को वहां लाया गया और अधिकांश बांग्लाभाषी मुस्लिम वहां पीढियों से रह रहे हैं। बांग्लादेश के गठन के बाद इन्दिरा गांधी और नवगठित बांग्लादेश के प्रधानमंत्री मुजीब रहमान के बीच एक समझौता हुआ था, जिसके तहत बांग्लादेश के गठन के पहले पूर्वी पाकिस्तान से आए सभी लोगों को भारत का नागरिक मान लिया गया था। उन्हें उस समझौते के तहत बांग्लादेशी नहीं माना जा सकता। वे और उनके वंशज भारत के नागरिक हैं। लेकिन बांग्लादेशी नागरिकों की बात करने वाले लोगों को इस समझौते के बारे में या तो पता नहीं है, या उसे वे नजरंदाज कर देते हैं। वहां के बांग्लाभाषी मुसलमानों को एक हिस्सा वर्तमान पश्चिम बंगाल से भी गया हुआ है।

यही कारण है कि बांग्लादेशी अवैध शरणार्थियों की पहचान आसान नहीं है। उनकी पहचान करने की व्यवस्था पहले से ही की गई हुई है। प्रत्येक जिला मे ंएक शरणार्थी ट्राइब्यूनल है, जिसके पास पुलिस संदिग्ध शरणार्थियों को पेश करती है। संदिग्ध शरणार्थियों को भारत की नागरिकता साबित करने का मौका दिया जाता है और यदि वे इसमे विफल हो जाते हैं, तो उन्हें बांग्लादेशी शरणार्थी करार दिया जाता है और फिर प्रशासन उसे वहां भेज देता है।

सवाल उठता है कि भाजपा के युवा कार्यकत्र्ता पुलिस और ट्राइब्यूनल का काम कैसे कर सकते हैं। यदि उन्होंने कानून अपने हाथ में लिया, तो सांप्रदायिक तनाव काफी बढ़ जाएगा। वैसे अनेक राजनैतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि भाजपा इस समय ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहेगी, जिससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा पर आंच आए। (संवाद)