चन्द्रबाबू नायडू का राजनीति में लंबा अनुभव रहा है। जब उनके ससुर एनटी रामाराव प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उस समय पर्दे के पीछे रहकर वही सरकार चलाया करते थे, हालांकि राजनीति में उनका प्रवेश उसके पहले ही हो गया था। 1970 के दशक के अंतिम सालों मंे वे कांग्रेस के विधायक बने और टी अंजेया के मंत्रिमंडल में मंत्री भी बने। अगस्त 1995 में उन्होंने एनटीआर के खिलाफ बगावत कर दी और उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाकर खुद उस पद पर काबिज हो गए। फिर तो वे 2004 तक आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री बने रहे।

अपने ससुर से बगावत का कारण उनकी दूसरी सास थी। एटीआर ने दूसरी शादी कर ली थी और उनकी दूसरी पत्नी सत्ता में दखलअंदाजी करने लगी थीं। बाबू को लगा कि वह सत्ता पर पूरी तरह काबिज हो जाएंगी और वे हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे। इसलिए कमजोर होने के पहले ही उन्होंने पार्टी मंे विभाजन करा दिया और खुद प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए।

1995 से 2004 तक के अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में उन्होंने अपनी छवि आधुनिकता और विकास को बढ़ावा देने वाले एक नेता की बनाई। उन्होंने एक से बढ़कर एक सुधार कार्य शुरू किए। अनाज पर दी जाने वाली सब्सिडी को कम किया। बिजली की कीमत भी बढ़ा दी। उन्होनंे आईटी को बढ़ावा दिया और हैदराबाद को उसका एक बड़ा केन्द्र बनाने में सफलता पाई। उन्होंने हैदराबाद में अंतरराष्ट्रीय स्तर का एक हवाई अड्डा बना डाला। उन्होंने बिल गेट्स और विश्व बैक के अध्यक्ष तक को अपने साथ बातचीत के लिए आमंत्रित किया।

बाबू का राष्ट्रीय राजनीति मे भी दखल रहा। उनकी तेलूगू देशम पार्टी ने पहले 1990 की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में भागीदारी की थी। उस समय भी राष्ट्रीय राजनीति से उनका साबका पड़ा था, पर 1996 में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनाने में तो उनकी भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण थी। उस समय किंग मेकर की भूमिका में बाबू ही थे। यदि बाबू ने समर्थन किया होता, जो 1996 में ही अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार अपना समर्थन लोकसभा में साबित कर देती, पर उन्होंने एक गैर भाजपा सरकार के गठन का समर्थन किया। 1998 के चुनाव में जनता दल की हार के बाद उन्होंने भाजपा की अटल सरकार का समर्थन किया और 2004 तक वे लगातार उसका समर्थन करते रहे। संयुक्त मोर्चे का तो वे संयोजक भी थे।

एक दशक तक सत्ता से बाहर रहने के बाद एक बार फिर बाबू की सत्ता में वापसी हुई है। भाजपा के साथ समझौता कर और नरेन्द्र मोदी की लहर का लाभ उठाते हुए एक बार फिर मुख्यमंत्री बने हैं, लेकिन इस बार उनके सामने एक छोटा आंध्रप्रदेश है, क्योंकि इसका एक हिस्सा तेलंगाना के रूप में एक अलग प्रदेश बन चुका है। प्रदेश का आकार भले छोटा हो गया हो, लेकिन चन्द्रबाबू नायडू के सामने की चुनौतियां कई गुना बढ़ गई हैं। यह अच्छी बात है कि उनको पूर्ण बहुमत मिला हुआ है और राजनैतिक अनिश्चितता की कोई गुंजायश नहीं रह गई है। इससे भी अच्छी बात यह है कि केन्द्र की सरकार में उनकी पार्टी भी हिस्सेदारी कर रही है। उनकी पार्टी के लोकसभा सांसद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के हिस्से हैं।

उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती आंध्रप्रदेश के लिए एक राजधानी के निर्माण की है। हैदराबाद तेलंगाना का हिस्सा है और कम से कम दो साल तक आंध्र प्रदेश में अपनी राजधानी वहीं रखेगा। राजधानी को वहां रखने की अधिकतम समय सीमा 10 साल है। बाबू चाहेंगे कि जल्द से जल्द नई राजधानी बनकर तैयार हो जाए। वे एक अल्ट्रा माॅडर्न महानगर का निर्माण करना चाहेंगे, जिसमें उन्हें केन्द्र से भरपूर सहायता मिलने की उम्मीद है। केन्द्र से कैसे सहायता हासिल की जाती है, इसकी कला में बाबू नायडू माहिर हैं। उन्हें राजधानी के अलावा आंध्र प्रदेश के पिछड़े इलाकों का भी विकास करना है। (संवाद)