आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी हार हुई थी। पूरे उत्तर भारत में उसका सफाया हो गया था। इन्दिरा गांधी खुद रायबरेली से अपना चुनाव हार गई थीं। दक्षिण भारत ने तब कांग्रेस की लाज बचाई थी। कांग्रेस को उस समय लोकसभा मंे कुल 154 सीटें मिली थीं, क्योंकि दक्षिण भारत ने उसका साथ दिया था।
इस बार उसकी हालत 1977 से बहुत ज्यादा खराब है। उसे मात्र 44 लोकसभा सीटें ही मिली हैं, जो उसे 1999 के लोकसभा चुनाव में मिले 112 से भी बहुत कम है। 1999 का लोकसभा चुनाव भी कांग्रेस ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में ही लड़ा था। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाद के दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने सोनिया के नेतृत्व में ही अपनी स्थिति सुधार ली थी।
इस बार चुुनाव में कांग्रेस की बुरी हार का कारण उसके बड़े नेताओं का मनमानी रवैया और राहुल गांधी के नेतृत्व का आभाहीन होना था। नरेन्द्र मोदी को लेकर चल रही राष्ट्रव्यापी लहर ने भी कांग्रेस की नैया डुबोने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। भ्रष्टाचार के मामलों के सामने आने पर यूपीए सरकार द्वारा सही कदम नहीं उठाए जाने से लोग उनसे न केवल नाराज थे, बल्कि उस पूरी सरकार को ही भ्रष्ट समझ बैठे। इस माहौल में हुए चुनाव में कांग्रेस की यह दुर्गति तो होनी ही थी।
2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को आंध्र प्रदेश में भारी सफलता मिली थी। वहां की कुल 42 में से 33 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई थी। इस बार कांग्रेस ने आंध्रप्रदेश का बंटवारा कर अपना बेड़ा गर्क कर डाला। प्रदेश के दोनों टुकड़ों मंे कांग्रेस का सफाया हो गया। तमिलनाडु में तो वह कभी अपने बूते चुनाव जीतती ही नहीं है। कर्नाटक से उसे कुछ सीटें मिलीं, लेकिन कहा जा रहा है कि कर्नाटक कब तक उसका साथ देता रहेगा।
अगले कुछ महीनों में कुछ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होने वाले हैं। वहां भी कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं है। हरियाणा और महाराष्ट्र में इस समय कांग्रेस की ही सरकारें हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में वहां कां्रगेस और उसके नेतृतव वाले यूपीए को भारी पराजय का सामना करना पड़ा है। उसके पास इस बार एक मौका मिला है कि अपनी स्थिति वहां बेहतर क रवह अपने कार्यकत्र्ताओं की हौसलापस्ती को रोकें। नरेन्द्र मोदी की सरकार के गठन के बाद कीमतें बढ़ रही हैं। कांग्रेस को इसका फायदा शायद इन चुनावों में कुछ मिले।
यह सच है कि कांग्रेस का फिर से उठ खड़ा होना आसान नहीं है, क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में उसका ग्राफ बहुत ही ज्यादा गिर चुका है। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है, जिसका राष्ट्रव्यापी आधार है और यह आधार भाजपा के आधार से भी ज्यादा विस्तृत है। उसे क्षेत्रीय नेताओं के साथ सलाह मशविरा करके अपनी स्थिति में सुधार करना चाहिए।
आखिर कांग्रेस अपने आपको कैसे उबारे? उसके पास एक विकल्प राहुल गांधी के नेतृत्व के साथ चिपके रहना है। हालांकि यह बहुत ही मुश्किल काम है, क्योंकि युवा वर्ग और शहरी मध्यवर्ग ने राहुल गांधी को पूरी तरह नकार दिया है। ये दोनों वर्ग राहुल गांधी को एक योग्य नेता मानते ही नहीं। इसलिए यदि मतदाताओं का यदि नरेन्द्र मोदी से मोहभंग हो भी जाता है, तो वे राहुल गांधी का नेतृत्व शायद ही स्वीकार करें।
दूसरा विकल्प यह है कि सोनिया और राहुल दोनों अपने अपने पदों से इस्तीफा दे दें और लोकतांत्रिक चुनावों के द्वारा कांग्रेस के नये नेतृत्व का चुनाव हो। इससे कांग्रेस के अंदर लोकतंत्र का विस्तार होगा और 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले पार्टी चुनौतियों का सामना करने के लिए अपने आपको तैेयार पाएगी। लेकिन कांग्रेस के लिए यह सोचना नामुमकिन है कि सोनिया परिवार के बिना उसका कोई भविष्य भी हो सकता है। सोनिया गांधी के अभाव में पार्टी मंे विभाजन का भी खतरा है। सच तो यह है कि कांग्रेस की कमजोरी और ताकत दोनों ही सोनिया परिवार है।
तीसरा विकल्प प्रियंका गांधी को पार्टी के नये नेता के रूप में प्रोजेक्ट करना है। अनेक कांग्रेस नेताओं को लगता है कि प्रियंका गांधी पार्टी में जान फूंक सकती हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में ऐसा देखने को भी मिला। प्रियंका ने अपनी चुनावी भाषणों मंे जहां एक ओर लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया, वहीं राहुल गांधी का भाषण निस्तेज रहा। खुद अमेठी में राहुल और रायबरेली में सोनिया की जीत के लिए प्रियंका का धुआंधार चुनाव प्रचार जिम्मेदार था, अन्यथा पार्टी तो उत्तर प्रदेश के शेष 78 सीटों पर चुनाव हार चुकी है।
प्रियंका को भी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा और उनकी सबसे बड़ी समस्या उनके पति राॅबर्ट वाड्रा ही हैं, जिनके ऊपर बेतहाशा संपत्ति अर्जित करने का इलजाम लग रहा है। केन्द्र स्तर पर नेताओं से भी ज्यादा जरूरी क्षेत्रीय स्तर पर नेताओं को खड़ा करना कांग्रेस के लिए जरूरी है। (संवाद)
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कांग्रेस की फिर वापसी संभव है
पार्टी नेतृत्व को सुधरना होगा
हरिहर स्वरूप - 2014-07-07 12:11
कांग्रेस हारी तो है, लेकिन यह कहना गलत होगा कि वह समाप्त हो रही है। उसके इतिहास में इसके पहले भी अनेक ऐसे मौके आए, जब उसके विरोधी और कुछ विश्लेषक कहने लग गए थे कि अब वह समाप्त हो रही है, लेकिन हमेशा वे विश्लेषक गलत ही साबित हुए।