हरीश रावत लोकसभा चुनाव के कुछ दिन पहले ही प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। उन्हें वहां का मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस लोकसभा चुनाव जीतना चाहती थी। हरीश रावत कांग्रेस को लोकसभा चुनाव तो नहीं जिता सके, लेकिन विधानसभा के उपचुनावों में उन्होंने पार्टी को निराश नहीं किया। हौसलापस्ती की शिकार कांग्रेस के हौसले इन नतीजों से कुछ बढ़े हैं और कांग्रेसियों को लगने लगा है कि उनकी कांग्रेस समाप्ति की ओर नहीं बढ़ रही है, बल्कि अभी भी उनकी पार्टी एक संभावना है।
जिस उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड अस्तित्व में आया था, वहां भी उपचुनाव होने वाले हैं। और जिन विधानसभाओ ंमंे उपचुनाव होंगे, उनकी संख्या 12 है। अभी उनकी तारीख घोषित नहीं की गई है, लेकिन कभी भी उसकी तारीख की घोषणा हो सकती है। अन्य कुछ राज्यों में भी विधानसभा के उपचुनाव होंगे, लेकिन उनमें उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। वहां 10 सीटों पर चुनाव होने हैं
उत्तराखंड के उपचुनाव के नतीजे को अमित शाह की सफलता या विफलता से जोड़कर देखना उचित नहीं है, क्योंकि वहां चुनाव में हरीश रावत ही सबसे बड़े मुद्दे थे। उनकी कांग्रेस वहां अल्पमत में है। कुछ निर्दलीय व अन्य विधायकों की सहायता से वहां की सरकार चल रही थी। कांग्रेस के कुछ विधायक भी बागी तेवर दिखा रहे थे। वैसी हालत में यदि कांग्रेस के उम्मीदवार हारते तो रावत की सरकार का पतन निश्चित था। इसका कारण यह है कि खुद श्री रावत भी चुनाव लड़ रहे थे। हारने के बाद वे अपने पद पर रह ही नहीं सकते थे। अब यदि उनकी जीत हो भी जाती, तो दो अन्य कांग्रेसी उम्मीदवारों की हार के कारण प्रदेश में राजनैतिक अनिश्चय का माहौल पैदा होता और विद्रोही तेवर अपनाने वाले कांग्रेसी विधायक पाला बदल सकते थे। इस तरह रावत की सरकार की अल्पमत में चली जाती और फिर या तो भाजपा की सरकार बनती या फिर नये चुनाव कराने होते।
बहरहाल वहां की जनता ने हरीश रावत के पक्ष में मत दिया। वैसे कहा जाता है कि भाजपा के अंदर की गुटबाजी का फायदा भी कांग्रेस को मिला। गुटबाजी हमेशा सभी पार्टियों मंे होती है, इसलिए इसे बड़ा फैक्टर मानना उचित नहीं है। असली कारण यह है कि वहां के लोग हरीश रावत को मुख्यमंत्री के पद पर बने देखना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने अपनी पसंद दो महीने में ही बदल डाली।
पर उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनाव अमित शाह के नेतृत्व कौशल की असली परीक्षा लेने वाले हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा संगठन की स्थिति बद से बदतर थी, उसके बावजूद वहां भाजपा ने अपने सहयोगी अपना दल के साथ 73 सीटों पर जीत हासिल की। उसका श्रेय मोदी लहर के साथ साथ अमित शाह को दिया गया है। लहर को जीत में बदलना निश्चय ही वहां के प्रभारी अमित शाह के लिए बहुत बडऋी चुनौती भरा काम था, क्योंकि वहां संगठन की हालत बहुत पतली थी और भाजपा पिछले 2009 के लोकसभा चुनाव में सपा, बसप और कांग्रेस से बहुत पीछे चैथे नंबर पर चली गई थी। अमित शाह ने वहां वह कर दिखाया, जो किसी को संभव नहीं लग रहा था। जब पार्टी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 1998 में वहां चुनाव लड रही थी, तो उसमें भी वैसी सफलता नहीं मिली थी, जबकि उस समय संगठन वहां बहुत मजबूत था और श्री वाजपेयी का उत्तर प्रदेश गृह प्रदेश भी है।
उत्तर प्रदेश के 12 विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव इसीलिए काफी महत्वपूर्ण है कि वहां अमित शाह का नेतृत्व कौशल कसौटी पर होगा और उनके साथ नरेन्द्र मोदी की वह लहर नही होगी, जो उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए उस समय देश भर में चल रही थी। वह चुनाव बिना किसी लहर के भाजपा लड़ेगी। यह सच है कि अखिलेश सरकार कुशासन के कारण काफी अलोकप्रिय हो गई है, उसका लाभ भाजपा उठाने की कोशिश करेगी। भाजपा और अमित शाह के लिए सकून की बात यह है कि बसपा ने घोषणा कर रखी है कि वह उत्तर प्रदेश में होने वाले उपचुनावो में हिस्सा नहीं लेगी। वैसे जिन 12 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव होंगे, उनमें 10 पर तो भाजपा के ही विधायक थे। एक सीट पर भाजपा समर्थित अनुप्रिया पटेल थीं। 12वीं सीट पर बसपा का विधायक था।
जाहिर है भाजपा का इन उपचुनावों में बहुत कुछ दांव पर लगा है। इनके नतीजों से अखिलेश सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा, पर यदि भाजपा ये सीटें खोती हैं, तो अमित शाह की राजनैतिक प्रतिष्ठा के लिए घातक होगा, क्योंकि जीती हुई सीटे हारने का दर्द कुछ और ही होता है।
यदि पिछले लोकसभा चुनाव को छोड़ दिया जाय, तो वहां भारतीय जनता पार्टी पहली दो बड़ी पार्टी के रूप में चुनाव के बाद उभर कर सामने नहीं आ पाती। पिछले 12 साल से यही हो रहा है। इसके कारण वह पिछले कुछ विधानसभा चुनावों मे वह सत्ता की दौड़ से बाहर ही मानी जाती है। और फिर लोगों को सपा और बसपा में एक का चुनाव करना पड़ता है। 2007 के चुनाव मे लोग सपा को सत्ता से बाहर करने के लिए बसपा की सरकार बनाने के लिए मतदान कर रहे थे, तो 2012 में बसपा को सत्ता से बाहर करने के लए सपा के पक्ष मे मतदान कर रहे थे। यदि भाजपा अपनी सीटें बचाने में कामयाब होती है, तो वह अगले विधानसभा चुनाव में सत्ता की दौड़ में शायद शामिल हो जाय और यदि वह उत्तराखंड की नियति यहां प्राप्त करती है, तो फिर उसके लिए वापसी करना मुश्किल हो जाएगा। जाहिर है, अमित शाह के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती खड़ी है। (संवाद)
भारत
उत्तर प्रदेश के उपचुनाव
अमितशाह की असली परीक्षा
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-07-31 11:15
उत्तराखंड में हुए उपचुनाव के नतीजे भाजपा का नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह के लिए ’’प्रथमग्रासे मक्षिकापात’’ साबित हुए हैं। वहां हुए तीनों उपचुनाव में भाजपा की हार हुई, जबकि दो सीटें तो भाजपा विधायकों के सांसद बन जाने के कारण खाली हुई थीं। लोकसभा चुनाव में भारी जीत और विधानसभा चुनाव में करारी मात- उत्तराखंड के लोगों ने साबित कर दिया कि हमारे देश के मतदाताओं में समय और परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेने की क्षमता आ गई है। लोकसभा चुनाव के समय नरेन्द्र मोदी उनके सामने प्रधानमंत्री के एक सशक्त दावेदार था। उन्हें लग रहा था कि श्री मोदी उनकी समस्याओं के समाधान हैं। इसलिए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों को ज्यादा वोट दिए। विधानसभा चुनाव में उनके सामने हरीश रावत मुख्यमंत्री के रूप में मौजूद थे। मतदाताओं को यह निर्णय करना था कि वे श्री रावत के प्र्रति अपना समर्थन दिखाते हैं या वे उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटे देखना चाहते हैं। उन्हें श्री रावत को मुख्यमंत्री पद पर बनाए रखना ही रास आया, इसलिए उन्होंने उस कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया, जिसे वे लोकसभा चुनावों के दौरान ठुकरा चुके थे।