वहां कांग्रेस को इस स्थिति में लाने का श्रेय राहुल गांधी को ही जाता है, क्योकि पिछले लोकसभा चुनाव में जब कई नेता मुलायम की पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की वकालत कर रहे थे और उनके साथ सीटों पर तालमेल की कोशिशें भी कर रहे थे, तो उस समय राहुल गांधी का मानना था कि पार्टी को वहां अपने बूते ही चुनाव लड़नी चाहिए। कुछ तो मुलायम द्वारा कांग्रेस को बहुत ही कम सीटें देने की हठधर्मिता और कुछ श्री गांधी के दबाव के कारण कांग्रेस का सपा के साथ उत्तर प्रदेश में चुनावी गठबंधन नहीं हो सका और उसका लाभ कांग्रेस को हुआ। कांग्रेस को वहां 21 सीटें मिलींए जो 1984-85 के बाद का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन है।

बिहार में भी कांग्रेस 1984-85 के चुनाव के बाद बदहाल अवस्था में है। 1995 के बिहार विधानसभा में तो यह तीसरे स्थान पर चली गई थी। उसके बाद सह राज्य के दो प्रुमुख दलों में कभी भी शामिल नही रही। इस बीच बिहार का विभाजन भी हो चुका है, लेकिन विभाजन से पैदा हुए झाारखंड में भी कांग्रेस दो प्रमुख दलों में एक नहीं है वहां दो सबसे प्रमुख दल भाजपा और झारख्रड मुक्ति मोर्चा हैंए जबकि बिहार में कांग्रेस से मजबूत पार्टियां जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल, और भाजपा है। इसलिए कांग्रेस की पहली चुनौती तो बिहार में दो प्रमुख दलों में एक बनना है। इसी साल बिहार में विधानसभा का चुनाव भी हो रहा है। यह चुनाव कांग्रेस को अपनी ताकत बढ़ाने और उसक दिखाने की चुनौती और अवसर देता है।

अब राहुल गांधी ने बिहार मे अपनी राजनैतिक सक्रियता बढ़ाई है। वे बहां पार्टी के साथ युवाओ को जोड़ रहे हैं। कांग्रेस जनो में राहुल गांधी की बिहार सक्रियता को लेेकर उत्साह भी है, लेकिन सवसल उठता है कि क्या राहुल उत्तर प्रदेश की तरह ही बिहार में भी सफल होगे अथवा पार्टी का वहां वही हश्र होगा, जो झारखंड में हुआ है। गौरतलब है कि झारखंड में कांग्रेस का प्रदर्शन आशा के अनुरूप नहीं रहा। बाबूलाल मरांडी के साथ के बावजूद कांग्रेस को मात्र 14 सीटें ही प्राप्त हुईे, जो पिछले चुनाव से 5 ही ज्यादा है। बिहार में तो कांग्रेस की स्थिति झारखंड से भी खराब है। वहां कांग्रेस के सामने झारखंड से बड़ी चुनौतिया है। क्या राहुल उन चुनौतियो का सामना कर पाएंगे?

उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड तीनो राज्यो की राजनीति पर जाति हावी रहती है। मुस्लिम कोई जाति नहींए बल्कि एक संप्रदाय है, लेकिन चुनाव में वह किसी हिंदू जाति की तरह ही व्यवहार करता है। 1980 और 1990 के दशक में आई जातीय राजनैतिक ने कांग्रेस के लिए राजनीति का जातीस समीकरण खराब कर दिया था। बाबरी मस्जिद विवाद और उसके ध्वंस के कारण मुसलमान भी कांग्रेस के खिलाफ हो गए थे। इस तरह कांग्रेस की राजनीति का सामाजिक आधार ही समाप्त हो चका था। उत्तर प्रदेश में कांग्रेसे ने यह आधार प्राप्त कर लिया है, लेकिन बिहार में भी क्या वह राजनीति के सामाजिक आधारों को प्राप्त कर लेगा?

बिहार और उत्तर प्रदेश में एक अंतर है। वह अंतर यह है कि जहा्र उत्तर प्रदेश में अगड़ी जातियो की संख्या 25 फीसदी है, वहीं यह बिहार में 10 से 12 फीसदी है। उत्तर प्रदेश में अगड़ी जातियों का वह आधार भाजपा से टूटकर कांग्रेस के साथ जुड़ रहा है और कांग्रेस को उसका लाभ मिल रहा है। यह आघार लोकसभा के चुनाव के समय कांग्रेस ने हासिल किया है, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में फर्क होता है। लोकसभा में लोग राहुल गाधी और राष्ट्रीय नेताओं को देखकर वोट डालते हैंध् तो विधानसभा में उनकी नजर उस व्यक्ति पर भी टिकी होती है, जो राज्य का मुख्यमंत्री बनने की संभावना रखता है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने अपनी स्थिति सुधारी क्योंकि राहुल गांधी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह उनके सामने थे, लेकिन विधानसभा चुनाव में उनके सामने राज्य का नेतृत्व भी होता है। यदि राज्य के नेत्त्व की गुणवत्ता अच्छी नहीं रही तो उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस लोकसभा चुनाव को दुहराने में विफल हो जाएगी।

बिहार में भी लोग यह देखना चाहेंगे कि कांग्रेेस ने राज्य में किसे आगे कर रखा हैं। बिहार में अगड़ी जातियो की ही नहीं अनुसूचित जातियों की र्सख्या का अनुपात भी उत्तर प्रदेश की अपेक्षा कम है। उत्तर प्रदेश में 23 फीसदी अनुसूचित जाति के लोग हैं, जबकि बिहार में यह 15 फीसदी ही हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार बिहार में मुस्लिम आबादी साढ़े 18 फीसदी है, जबकि बिहार में यह साढ़े 16 फीसदी है। यानी उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्गो का अनुपात उत्तर प्रदेश की अपेक्षा बहुत ज्यादा है। इसलिए कांग्रेस बिहार में पिछडों के समर्थन के बिना सफल हो ही नहीं सकती। अपने अच्छे दिनों में कांगेस को बिहार में दलितो, मुसलमानों और अगड़ी जातियों का समर्थन प्राप्त होता था, लेकिन अब उसके पास कोई जगजीवन राम नहीं हैं। रामविलास पासवान एक दलित जाति के नेता बने हुए हैं और कांग्रेस पासवान आधार को अपनी ओर खींच नहीं सकती। रविदास अपनी जाति के मायावती के पीछे लामबंद खड़े हैं। लालू यादव के सामाजिक न्याय की पोल खुलने के बाद से ही रविदास आमतौर पर मायावती के उम्मीदवार को मत डाल देते हैं और वह भी उस उम्मीदवार की हार अथवा जीत की परवाह किए बिना।

मुसलमान लालू और कांग्रेस के बीच में विभाजित हैं। अब कांग्रेस को वोट डालने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। बाबरी मस्जिद के विध्वंस की याद पुरानी पड़ चुकी है। लेकिन चुनाव देते समय वे इतना तो ख्याल रखते ही हैं कि जिस उम्मीदवार को वे वोट दे रहे हैंए वह जीतने की स्थिति या कम से कम मुख्य मुकाबले में हो। यानी यदि कांग्रेस को मुसलमानों के मत ज्यादा से ज्यादा पाने हैं और लालू यादव का एमवाय (मुस्लिम-यादव) समीकरण तोड़ना है तो उसे पिछड़े वर्गो को अपने साथ जोड़ना होगा। लालू यादव एक पिछड़ी जाति के नेता हैं। नीतीश कुमार भी पिछड़े वर्ग से ही हैं। कांग्रेस को यदि बिहार की राजनीति में उत्तर प्रदेश को दुहराना है तो उसे लालू और नीतीश के मुकाबले का पिछड़े वर्ग का एक नेता खड़ा करना होगा। वहां सफलता पाने के लिए पिछड़े वर्गोे के अंतर्विरोध को भी समझना होगा। और उसी अंतर्विरोध के बीच अपनी सफलता का रास्ता निकालना होगा। लेकिन सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस यह सब कर पाएगी? जगदीश टाइटलर को वहां का प्रभारी बनाया गया है। वे दिल्ली की राजनीति के महारथी रहे हैं। क्या वे बिहार में कांग्रेस की चुनावी जीत के सामाजिक आधार मजबूत कर पाएंगे और क्या उस आधार पर खड़े हो राहुल गांधी बिहार में कांग्रेस को पहले जैसी मजबूती प्रदान कर पाएंगे? (संवाद)