बीमा विधयेक यदि आज शिकार हो रहा है, तो इसका कारण राजनीति है। यह राजनीति कांग्रेस भी खेलती है और भाजपा भी। 2002 में जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश का रास्ता अपनाया था, तब कांग्रेस ने इसका विरोध किया था। 2004 में कांग्रेस की सरकार आई। कांग्रेस ने 2008 में विदेशी निवेश की सीमा 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी करने की कोशिश की, तो भारतीय जनता पार्टी ने उसका विरोध किया। यानी जब कांग्रेस विपक्ष में थी, तो यह इसका विरोध कर रही थी और सत्ता में रहते हुए भाजपा इसके पक्ष में थी। जब कांग्रेस सत्ता में आई, तो यह उसका समर्थक हो गई और भाजपा विरोध करने लगी।

भाजपा और कांग्रेस नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में भी उसी परंपरा का पालन कर रही है। यानी अब भाजपा इसके समर्थन में है और कंाग्रेस विरोध में। कोई भाजपा नेताओं से पूछे कि विपक्ष में रहते हुए तो आप इसके विरोध में थे, अब एकाएक समर्थक कैसे हो गए और कोई कांग्रेस से पूछे कि भाजपा तो वही कर रही है, जो आप अपने कार्यकाल में करना चाह रहे थे, तो फिर एकाएक आपने अपना रुख बदल क्यों लिया, जो न तो कांग्रेस नेताओं के पास इसका कोई जवाब है और न ही भाजपा नेताओं के पास।

हां वाम दल इसका पहले भी विरोध कर रहे थे और आज भी विरोध कर रहे हैं। उधर भाजपा ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया है। लोकसभा में उसे पूर्ण बहुमत प्राप्त है, इसलिए वहां से इस विधेयक को पारित कराने में कोई समस्या नहीं है, लेकिन राज्यसभा में यह अल्पमत में है और इसके कारण उसे वहां पास करवाने में कठिनाई हो रही है।

राज्यसभा में भाजपा ने एनसीपी को अपने पक्ष में लाने में सफलता पाई है। यह कांग्रेस और यूपीए के लिए एक बड़ा झटका है। बीजू जनता दल का समर्थन भी इस विधेयक पर सरकार ने हासिल कर लिया है, लेकिन फिर भी यह अभी भी इसे वहां पास कराने में सफल होती नहीं दिखाई पड़ रही है। उसे उम्मीद थी कि वह सपा और बसपा का भी समर्थन हासिल करने में सफल हो जाएगी, पर वैसा नहीं हो सका है। उत्तर प्रदेश की दोनों क्षेत्रीय पार्टियां इस मसले पर कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़ी है और इसके कारण सत्तारूढ़ गठबंधन को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

आखिर कांग्रेस इसका विरोध क्यों कर रही है? भाजपा नेताओं का आरोप है कि लोकसभा में विपक्ष के नेता के मुद्दे पर कांग्रेस उसके साथ सौदेबाजी कर रही है। वह चाहती है कि विधेयक के समर्थन के बदले वह उसके नेता को विपक्ष का नेता बनाने को तैयार हो जाय। पर भाजपा ने स्पष्ट कर दिया है कि इस मसले पर वह परंपरा का ही पालन करना चाहेगी। चूंकि कांग्रेस के सांसदों की संख्या 55 से कम है, इसलिए उसके नेता विपक्ष का नेता नहीं बनाए जा सकते।

पर सवाल यह भी उठता है कि बीमा विधेयक में विदेशी निवेश को बढ़ाने की इच्छा रखने वाली कांग्रेस इस विधेयक को पराजित कर क्या हासिल करना चाहती है? तो इसका जवाब यह है कि वह नरेन्द्र मोदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमजोर देखना चाहती है। नरेन्द्र मोदी सितंबर महीने में अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं। अमेरिका से उनके रिश्ते बहुत अच्छे नहीं हैं। पहले अमेरिका ने उनके वीजा मिलने पर रोक लगा रखी थी। अब प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका को टका सा जवाब दे दिया है कि वे उसकी इच्छा के अनुसार विश्व व्यापार संगठन को नहीं चलने देंगे। जब व्यापार को सुगम बनाने का मामला आया, तो भारत ने स्पष्ट कर दिया कि वह तभी नये उपायों को सहमति देगा, यदि उसकी खाद्य सुरक्षा चिंताओं को विश्व व्यापार संगठन तरजीह दे। अमेरिकी विदेश मंत्री श्री मोदी ने साफ साफ कह दिया कि उनकी मूल चिंता विश्व व्यापार नहीं है, बल्कि अपने देश के गरीब हैं।

अब बीमा विधेयक पास कराकर नरेन्द्र मोदी की सरकार अंतरराष्ट्रीय समुदाय को संदेश देना चाहती है कि आर्थिक सुधार कार्यक्रम पटरी से उतरे नहीं हैं, लेकिन कांग्रेस चाहती है कि नरेन्द्र मोदी की अंतरराष्ट्रीय छवि एक ऐसे नेता की बने, जो नीतियों को आगे नहीं ले जा सकते।

राज्यसभा में अपने आपको पराजित होता देख क्या मोदी सरकार इस विधेयक को संसद से पारित कराने के लिए लोकसभा व राज्यसभा के संयुक्त अधिवेशन बुलाने का रास्ता करने जा रही है? ऐसा हो भी सकता है, क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने पोटा विधेयक पारित कराने के लिए संयुक्त सदन आहूत किया था। (संवाद)