एक समय था, जब कोयले के उत्पादन में निजी क्षेत्र को भी सहभागिता मिली हुई थी, लेकिन राष्ट्रीयकरण की दौड़ और निजी क्षेत्र के कोयला खदानों में मालिकों की मुनाफाखोरी प्रवृति के कारण होने वाली दुर्घटनाओं के कारण निजीकरण को कोयला खनन के काम से पूरी तरह बेदखल कर दिया गया। कोल इंडिया लिमिटेड कोयला खनन और उत्पादन का एकाधिकारी बन गया। जिन कंपनियों को कोयले की जरूरत पड़ती थी, वे कोल इंडिया से कोयला खरीदते थे। स्टील और पावर सेक्टर की कंपनियों को कोयले की बहुत जरूरत पड़ती है। पहले पावर उत्पादन का काम भी सार्वजनिक क्षेत्र में ही था, लेकिन निजीकरण के दौर में अपने कारखाने को चलाने के लिए निजी सेक्टर में भी बिजली उत्पादन की छूट दे दी गई। इस्पात उद्योग तो पहले भी निजी क्षेत्र में था। इस्पात और पावर यानी बिजली उत्पादन से जुड़ी कंपनियां कोयले के की आपूर्ति के लिए कोल इंडिया लिमिटेड पर निर्भर थी।

लेकिन नरसिंह राव सरकार ने 1991 के बाद नई आर्थिक नीतियों के दौर में कोयले के खनन और उत्पादन का काम भी निजी हाथों में देना शुरू कर दिया। उसके बाद फिर से कोल ब्लाॅक का आबंटन निजी कंपनियों को किया जाने लगा। इस्पात और बिजली उद्योग की कंपनियां जब कोल इंडिया लिमिटेड से कोयला खरीदने के लिए आतीं, तो उन्हें कोयले का ब्लाॅक खरीदने के लिए कहा जाता। उन कंपनियों के लिए कोयले का खनन एक पूरी तरह से नया काम था, इसलिए वे कोल ब्लाॅक को खरीदने और उससे कोयला निकालने से बेहतर कोल इंडिया से कोयला खरीदना ही बेहतर समझते थे। पर सरकारी प्रोत्साहन पाकर वे कोयला के खदानों को भी खरीदने लगे। यह काम 1993 से शुरू हुआ।

पर निजी कोयला खनन को बढ़ावा देने, कोल इंडिया लिमिटेड के बोझ को कम करने के लिए और विकास की गति को तेज करने के लिए केन्द्र सरकार ने इतनी हड़बड़ी दिखाई कि कोयले के आबंटन से संबंधित सही कायदा कानून विकसित ही नहीं किया गया और मनमाने ढंग से कोयला ब्लाॅक का आबंटन शुरू कर दिया गया। कहा जाता है कि हड़बड़ का काम शैतान का और वही हुआ। कायदे और नियमों को बनाए बिना मनमाने ढंग से कोयले के खदानों को आबंटित किया गया।

1993 के बाद कितनी बार सरकारें बदली। लगभग देश की सभी पार्टियों ने तब से लेकर अबतक केन्द्र की सत्ता में भागीदारी की, लेकिन सबके दौर में कम या ज्यादा कोयला ब्लाॅक का आबंटन हुआ। वे सारे के सारे अवैध घोषित किए जा चुके हैं।

भ्रष्टाचार पर बोलते हुए मनमोहन सिंह ने यह स्वीकार किया था कि नई आर्थिक नीतियों के कारण देश में भ्रष्टाचार बढ़े। कोयला खदानों का आबंटन भी नई आर्थिक नीतियों के माहौल में ही हो रहा था और भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा रूप इसी में देखने को मिला। कैग के एक आकलन के अनुसार सिर्फ यूपीए के पहले कार्यकाल में कोयला खदानों के आबंटन में 10 लाख करोड़ रुपये का घोटाला हुआ था। इस आंकड़े पर विवाद है। कुछ लोग कहते हैं कि घोटाले का पैमाना इतना बड़ा नहीं था और कुछ लोगों का कहना है कि घोटाले की रकम इससे भी ज्यादा थी।

घोटाले की रकम 10 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा थी या कम थी, इस विवाद में जाए बिना यह तो कहा ही जा सकता है कि कोयले में देश का सबसे बड़ा घोटाला हुआ है। यह सच है कि घोटाले का सबसे बड़ा चेहरा मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल में देखने को मिला। उसके पहले भी आबंटन होते थे, लेकिन उसकी संख्या कम थी। जो वास्तव में स्टील या पावर सेक्टर से जुड़े हुए लोग थे, उन्हीं को आबंटन हो रहे थे, लेकिन 2004 के बाद तो कोयला खदानों की लूट शुरू हो गई थी। जो न तो बिजली का उत्पादन कर रहा था या करने वाला था, वह भी कोयला खदानों को खरीदने लगा। जिसे कोयले का इस्तेमाल ही नहीं करना था, वह भी कोयला खदानों का मालिक बन बैठा। इस तरह से विचैलियों का एक वर्ग पैदा हो गया, जो अपने नाम आबंटित कोयला खदानों को दूसरों को बेचकर काफी माल कमाना चाहता था। 2 जी स्पेक्ट्रम के आबंटन में भी लगभग इसी तरह का घोटाला हो रहा था। फर्क यह था कि कोयला ब्लाॅक आबंटन के बाद उसको निबटाकर उससे माल कमाना आसान काम नहीं था। इसलिए जितने कोयला ब्लाॅकों का आबंटन हुए, उनमें से अधिकांश में कोयला खनन का काम शुरू ही नहीं हो सका है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कोयला खदानो ंके अवैध मालिकों के बीच हड़कंप पैदा हो गया है। कुछ खदानों के आबंटन तो सरकार अपने स्तर पर ही खारिज कर चुकी है, लेकिन अब तो सबपर आबंटन रद्द होने का खतरा पैदा हो गया है। अनेक जालसाजों और बिचैलिया मनोवृति के लोगों ने आबंटन करवा रखे थे, उनके आबंटन रद्द होने से अर्थव्यवस्था के ज्यादा प्रभावित होने का खतरा नहीं है। हाॅ, उन बैंकों और वित्तीय संस्थानो पर असर पड़ सकते हैं, जिन्होंने उन्हें पैसा दे रखे हैं, लेकिन जो कंपनियां वास्तव में बिजली और स्टील के उत्पादन में लगी हुई हैं, उन्हें कोयले के लिए या तो कोल इंडिया लिमिटेड की शरण में जाना पड़ेगा या आयात का सहारा लेना पड़ेगा। इसके कारण उनके उत्पादों की लागत बढ़ भी सकती है। स्टील और बिजली पर महंगाई का खतरा ज्यादा होगा। जो कारखाने खुद के द्वारा उत्पादित बिजली से चल रहे थे, उन्हें सरकारी कंपनियों द्वारा उत्पादित बिजली पर निर्भर हो जाना पड़ेगा। जाहिर है बिजली की उपलब्धता पर भी असर पड़ सकती है। यही कारण है कि आबंटनों को रद्द करने में व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण कोर्ट ने उस पर अभी फैसला नहीं किया है, लेकिन इतना तो तय है कि ज्यादातर आबंटन रद्द कर दिए जाएंगे। (संवाद)