उपचुनाव में हिस्सा नहीं लेने का कारण बताते हुए मायावती ने कहा था कि प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार इन चुनावों को निष्पक्ष रहने ही नहीं देगी। सरकार की सहायत से इनमें भारी पैमाने पर धांधली होगी और विपक्षी उम्मीदवारों की जीत की संभावना बहुत कम है। मायावती का यह भी मानना है कि भारत का निर्वाचन आयोग उत्तर प्रदेश के इन उपचुनावों में निष्पक्ष चुनाव करवा ही नहीं सकता। इसलिए उन्होंने उपचुनाव में बसपा के हिस्सा न लेने की घोषणा कर दी।

ये उपचुनाव भारतीय जनता पार्टी के 11 और अपना दल के एक विधायक के लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने के कारण हो रहे हैं। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह ने दो सीटों से जीत हासिल की थी। उन्होंने मैनपुरी की सीट खाली कर दी। वहां भी उपचुनाव होना है।
प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस की हालत बहुत ही खराब है। वह सदमे में है और उससे उबरती दिखाई नहीं दे रही है। वैसे माहौल में बसपा के चुनाव नहीं लड़ने का सीधा लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा। चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ सीधा मुकाबला हो जाएगा और बसपा के समर्थक मतदाता भाजपा की आकर्षित होंगे।

दलित मामलों के विशेषज्ञ एस आर दारापुरी का कहना है मायावती का भाजपा के साथ अन्दरूनी सांठगांठ का यह मामला लगता है। उन्हें लगता है कि भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए मायावती ने यह निर्णय लिया है। इसके कारण भाजपा की स्थिति इन उपचुनावों मंे मजबूत होगी।

दारापुरी ने कहा कि मायावती का भाजपा से पुराना संबंध रहा है। वह तीन बार भाजपा के समर्थन से ही प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थी। गुजरात के विधानसभा चुनाव में वह नरेन्द्र मोदी के पक्ष में प्रचार कर चुकी हैं और उनके साथ मंत्र भी साझा कर चुकी हैं।

2014 के लोकसभा चुनाव की चर्चा करते हुए दारापुरी ने कहा कि मायावती के जनाधार का क्षरण हो चुका है। बसपा समर्थक मतदाताओं का एक हिस्सा पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को वोट दे चुका है। यही कारण है कि बसपा को एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई। इस हार के कारण मायावती इस समय गहरे सदमे में हैं।

मायावती से दलित मतदाताओं की नाराजगी का कारण बताते हुए दारापुरी ने कहा कि जब वह सत्ता में थीं, तो उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत महत्वपूर्ण पदों पर बैठा रखा था और दलितों की उपेक्षा की थी। दलितों को यह पसंद नहीं आया है। दलितों का राजनैतिककरण कांशीराम ने ब्राह्मणों के खिलाफ ही किया था। वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ दलितों को गोलबंद कर रहे थे, पर मायावती ने सर्व समाज के नाम पर ब्राह्मणों के साथ ही सांठगांठ की, जिसे दलितों ने नकार दिया है।

दारापुरी का मानना है कि जब दलितों ने देखा कि मायावती भी हिंदुत्व की ताकतों को मजबूत बना रही है, तो उन्होंने भी हिन्दुत्व की पार्टी भाजपा को नरेन्द्र मोदी के नाम पर समर्थन कर दिया, क्योंकि श्री मोदी भी उनकी तरह ही एक बहुत ही कमजोर जाति के हैं।

मायावती ने खुद भी यह स्वीकार किया है कि उनके समर्थकों का एक हिस्सा भाजपा की ओर झुक गया है, लेकिन उन्होंने उन्हें सावधान करते हुए कहा कि भाजपा जैसे हिन्दुत्व संगठन उन्हें गुलाम बनाकर रखेंगे।

राजनैतिक चिंतक रमेश दीक्षित का कहना है कि मायावती अपने समर्थकों को भाजपा को मतदान करने का संकेत देंगी, ताकि समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार हार जाएं। उन्होंने कहा कि इसके कारण मायावती को राजनैतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है, क्योंकि एक बार भाजपा को मत देने वाले उनके मतदाता आगे भी उसे मत देना जारी रख सकते हैं।

उधर बसपा के अंदर चुनाव न लड़ने के मायावती के फैसले को लेकर मायूसी और रोष है। (संवाद)