उनका कहना है कि जजों का संसद में जाना या कार्यपालिका में किसी पद को हासिल करने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित होती है। सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य प्रधान न्यायाधीश वी एन खरे कहते हैं कि आज तक किसी भी पूर्व प्रधान न्यायाधीश को राज्यपाल पद का आॅफर नहीं मिला और न ही किसी ने उसे स्वीकार किया। यदि इस तरह की परंपरा बन गई, तो न्यायपालिका में आने वाले दिनों में राजनैतिक हस्तक्षेप बढ़ते जाएंगे। वरिष्ठ वकील हरीश धवन का कहना है कि यदि प्रधान न्यायाधीश रहते हुए सदाशिवम ने राज्यपाल बनने की सौदेबाजी की है और इसके कारण वे राज्यपाल बने हैं, तो यह एक भ्रष्टाचार का मामला है और यदि उन्होंने रिटायर होने के बाद इस पद की मांग की, तो यह अनुचित मांग थी।

नरीमन और खरे के बयानों का मतलब कई तरीके से निकाला जा सकता है। पहला मतलब तो यह है कि सरकार का वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व न्यायपालिका को अपने प्रभाव में लाना चाहता है और इसके लिए यह जजों को लोभ दे रहा है। आखिरकार जज भी आदमी होते हैं और वे भी लोभ के आगे नतमस्तक हो सकते हैं।

दुर्भाग्य से सदाशिवम ने एक बहुत की खराब परंपरा की शुरूआत कर दी है। उन्हें राज्यपाल का पद स्वीकार नहीं करना चाहिए था। अब वे अपने निर्णय से पीछे भी नहीं जा सकते। उन्होंने देर की दी है। अब यद जज अपने पद पर रहते हुए रिटायर होने के बाद कार्यपालिका में अपने लिए पद तलाशने के लिए मोलभाव करें, तो इसमें आश्चर्य नहीं होगा। राजनेता सेवानिवृति के बाद उन्हें पद देने के बदले में कुछ न कुछ हासिल करना चाहेंगे और हासिल कर भी लेंगे। तो फिर न्यायपालिका की आजादी किस हद तक सुरक्षित रह जाएगी?

सदाशिवम को यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि राज्यपाल का पद राजनैतिक कार्यपालिका के मातहत है। जिस गृहमंत्री को प्रधान न्यायाधीश ने अपने जज के पद पर रहते हुए समन जारी किया होगा, अब वही गृहमंत्री राज्यपाल को अपने पास बुला सकते हैं और इस्तीफा देने तक कह सकते हैं। एक समस्या और है और वह यह है कि जब कोई वर्तमान या पूर्व जज कार्यपालिका के साथ घालमेल करे, तो इससे न्यायपालिका के अंदर एक तरह की बेचैनी होने लगती है। और यदि कुछ दिन पहले ही रिटायर हुआ कोई जज ऐसा करे, तो यह बेचैनी और भी बढ़ जाती है।

सदाशिवम एक ईमानदार जज हैं और उन्हें अपनी निष्पक्षता के लिए जाना जाता है, लेकिन फिर भी कुछ लोग यह मान सकते हैं कि राज्यपाल का पद उन्हें इसलिए मिला, क्योंकि उन्होंने तुलसीराम प्रजापति केस में 2013 में अमित शाह के खिलाफ दायर किया गया दूसरा एफआईआर खारिज कर दिया था। इस तरह के आरोप का जवाब देते हुए सदाशिवम कहते हैं कि उस समय किसी को पता नहीं था कि अमित शाह भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बन जाएंगे। वे यह भी कहते हैं कि उन्होंने अमित शाह को क्लीन चिट नहीं दिया था और सोहराबुद्दीन से जुड़े केस को उन्होंने महाराष्ट्र स्थानांतरित कर दिया था।

सदाशिवम का मानना है कि राज्यपाल का पद स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं है, क्योंकि वे केरल के लोगों की सेवा करना चाहते हैं। वे यह भी कहते हैं कि पूर्व जज होने के कारण वे राज्य और केन्द्र के बीच बेहतर संबंध बनाए रखने में सफल होंगे। वे याद दिलाते हैं कि अपने बिदाई भाषण में उन्होंने कहा था कि अपनी हैसियत का ध्यान रखते हुए वे कोई भी पद स्वीकार कर सकते हैं। इसीलिए उन्होंने राज्यपाल का पद स्वीकार किया है। (संवाद)