अब जो पिछले कई सालों में हो नहीं पाया, उसे प्रधानमंत्री मोदी सम्भव बनाने चले हैं। वे अपने आइडिया दुनिया भारत में बेच रहे हैं। जापान में उन्होंने अपनी इस परियोजना की जबर्दस्त पैरवी की और अमेरिका यात्रा के ठीक पहले उन्होंने इसकी शुरुआत की औपचारिक घोषणा भी कर दी है, लेकिन क्या वाकई भारत दुनिया भर के उत्पादकों को अपनी ओर खींच पाएगा? इस सवाल का जवाब पाने के पहले यह जानना जरूरी है कि भारत एक औद्योगिक उत्पादक देश के रूप में दुनिया के आकर्षण का केन्द्र क्यों नहीं बन पाया है। इसका सबसे बड़ा कारण भारत का ओह व्यापारिक माहौल है, जो दुनिया के लोगों को अपनी ओर आने नहीं देता। विदेशों में उत्पादन शुरू करने के अपने खतरे होते हैं और उन खतरों का आकलन करने के बाद ही कोई उद्यमी अपना उद्यम शुरु करता है। भारत की छवि के ऐसे देश की बनी हुई है, जिसकी नीतियाँ उद्यमियों को हतोत्साहित करने वाली हैं। नई आर्थिक नीतियों के दौर में अनेक नीतियों में बदलाव किए गए हैं, लेकिन श्रम नीतियों में बदलाव आना अभी भी बाकी है। एक एक्जिट नीति की खूब चर्चा हुआ करती थी, जिसके तहत घाटे में चल रही कम्पनियों की तेजी से बन्दी की सहूलियत हो, लेकिन अभी भी एक संतोषजनक एक्जिट नीति नहीं बन पाई है।

नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत ही ऐसे समय में हुई, जब गठबन्धन या अल्पमत सरकार का दौर चल रहा था। इस तरह की सरकारें एक के बाद एक 23 सालों तक चलती रहीं। इसके कारण नीतियों को लेकर भी अनिश्चय का दौर बना रहा। जब राजनैतिक अस्थायित्व हो, तो फिर नीतियों की स्थिरता को लेकर भी उद्यमी और निवेशक सशंकित रह्ते हैं। इस तरह की शंकाएं भी उद्यमियों को भारत की ओर रुख करने से रोकती रही। भारत भ्रष्टाचार के लिए भी बहुत कुख्यात रहा है। यहाँ की नौकरशाही दुनिया भर में कुख्यात है। उनका सामना करना उद्यमियों के लिए हताशा का सबब बना रहता है। बीच बीच में होने वाले भ्र्ष्टाचार के खुलासे और उसकी प्रतिक्रिया में उठाए गए कदम से भी माहौल खराब होता है। मनमोहन सिंह की सरकार के दूसरे कार्यकाल में तो भ्रष्टाचार की खबरंउ आने के बाद सरकार नीति निर्माण के स्तर पर लगभग लकवाग्रस्त हो गई थी।

अब नरेन्द्र मोदी सरकार के प्रयास कितने सफल होंगे, यह इस पर निर्भर करता है कि सरकार नीतियों के स्तर पर और उनपर अमल के मसले पर कितना तेजी से काम करती है। विदेशी उद्यमी (और देशी भी) श्रम कानूनों को बदलते देखना चाहेंगे। उनके सामने एक बड़ी समस्या जमीन की भी होगी। पिछली सरकार ने एक ऐसे भूमि अधिग्रहण कानून का निर्माण किया है, जिसके तहत अपने कारखानों की स्थापना के लिए उद्यमियों को जमीन पाना आसान नहीं होगा। यह खर्चीला ही नहीं, बल्कि थकाऊ और समय गंवाऊ भी होगा। क्या प्रधानमंत्री भूमि अधिग्रहण कानून को उद्यमियों के अनुकूल बदल पाएंगे? क्या केन्द्र सरकार कारखाने लगाने के इच्छुक उद्योगपतियो को जमीन उपलब्ध करा पाएगी? हम देख चुके हैं कि किस प्रकार सिंगूर और नन्दीग्राम में उद्योगों को जमीन दिलाने के चक्कर में पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ही चली गई और आज वहाँ उन लोगों की सरकार है, जिन्होंने नन्दीग्राम और सिंगूर में उद्योग नहीं लगने दिए।

यह सच है कि 1984 के बाद पहली बार किसी चुनाव में एक पार्टी की बहुमत वाली सरकार केन्द्र में बनी है और इसके कारण नीतियों के स्तर पर स्थिरता की उम्मीद भी की जा सकती है, लेकिन नीतियों का अमल नौकरशाही पर निर्भर करता है और उसकी छवि कोई अच्छी नहीं हुई है। भारत का रेड टेप दुनिया भर में कुख्यात है, पर प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं कि रेड टेप का स्थान रेड कार्पेट ले रहा है। यह संभव हो जाय, तो बहुत अच्छा, लेकिन क्या यह इतनी जल्द संभव हो पाएगा? जिन कानूनी सिस्टम के अन्दर हम काम करते हैं, वह सिस्टम भी कम लचर नहीं है। हमारे देश की विलंबित न्यायिक प्रक्रिया भी हमारे देश में उद्यमशीलता को हतोत्साह करती है। अदालती प्रक्रिया को तेज किए जाने की भी जरूरत है। वैसे समस्याओं को दूर करने और प्रशासन को चुस्त दुस्रुस्त और सरल बनाने के लिए भी मोदी सरकार सक्रिय है। कम से कम प्रधानम्ंत्री के उत्साह को देखकर तो भरोसा होता ही है कि उद्यमशीलता के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर किया जा सकता है और “मेक इन इंडिया” के नारे को “गरीबी हटाओ” के नारे वाले हश्र को प्राप्त होने से रोका जा सकता है।(संवाद)