लेकिन 10 विधानसभाओं के उपचुनावों के नतीजे आने के बाद उनकी दावेदारी को चुनौती मिलने लगी। उन 10 विधानसभा क्षेत्रों में से 6 पर भाजपा के विधायक हुए करते थे। पिछले लोकसभा चुनाव में उन 10 में से 8 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारों को अन्य उम्मीदवारों की अपेक्षा ज्यादा मत मिले थे। ऐसी हालत में उम्मीद की जा रही थी कि भाजपा 8 सीटों पर जीत हासिल करेगी। यदि 8 पर जीत नहीं मिली, तो कम कम से अपनी 6 सीटों को बचा पाने में तो सफलता हासिल कर ही लेगी। लेकिन भाजपा को मिली कुल 4 सीटें, जबकि शेष 6 पर विरोधी महागठबंधन के उम्मीदवारों ने जीत हासिल कर ली।
भाजपा की हार को सुशील कुमार मोदी की हार करार दिया गया और उसके बाद यह कहा जाने लगा कि यदि उन्हें पार्टी ने अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया, तो आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी बहुमत हासिल नहीं कर पाएगी। इसमें सच्चाई भी थी, क्योंकि उपचुनावों में पार्टी के चुनाव अभियान का नेतृत्व बिहार के मोदी ही कर रहे थे। उम्मीदवारों के चयन में भी मुख्य भूमिका उन्होंने निभाई थी। वे उपचुनाव सुशील मोदी की बिहार में लोकप्रियता का पहला टेस्ट था, जिसमें वे हार गए। यदि पार्टी ने 5 सीटें भी जीती होती, तो कहा जाता कि नतीजा बराबरी पर रह गया है और आम चुनाव में सुशील मोदी इसे बेहतर कर सकते हैं। पर वैसा नहीं हुआ। यही नहीं, जहां विरोधी पार्टियों के उम्मीदवार भारी मतों से जीते थे, वहीं भाजपा के उम्मीदवार मामूली मतों से ही जीते थे। बांका के भाजपा उम्मीदवार तो हारते हारते जीते। छपरा के भाजपा उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहे, जबकि वहां से पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के रूडी ने पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को पराजित किया था।
डपचुनाव के नतीजे आने के बाद नंदकिशोर यादव भी मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनने की होड़ में जोर शोर से शामिल हो गए। वे विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं। वैसे विधायक मंडल के नेता तो सुशील कुमार मोदी ही हैं, लेकिन वे विधान परिषद के सदस्य हैं और उसी सदन के नेता हैं। नन्द किशोर यादव चुनावी नतीजे के पहले भी मुख्यमंत्री बनने का अपना दावा धीमे स्वरों में पेश किया करते थे। वे बिहार की सबसे ज्यादा आबादी वाली जाति यादव से आते हैं। इसलिए उनके समर्थकों का मानना है कि उन्हें मुख्यमंत्री दावेदार के रूप मंे पेश कर भाजपा लालू यादव के यादव जनाधार को कमजोर कर सकती है। पर राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि नन्द किशोर यादव लालू के जनाधार को तो नहीं भेद सकते, उलटे उनके कारण पार्टी को नुकसान हो जाएगा, क्योंकि बिहार की एक बड़ी आबादी में, जिसमें अगड़े, पिछड़े और दलित भी शामिल हैं, यादव विरोधी संेटीमेंट है और नन्दकिशोर यादव को भाजपा का सीएम उम्मीदवार घोषित करने पर वे भाजपा के खिलाफ वोट डाल सकते हैं और नन्दकिशोर यादव को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करना पार्टी के लिए घातक हो सकता है।
मुख्यमंत्री की होड़ में शाहनवाज हुसैन भी शामिल हैं। उनके समर्थकों का कहना है कि उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाकर भाजपा मुस्लिम मतों को भी अपनी ओर खींच सकती है, लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि मुस्लिम मत तो भाजपा को मिलेगा नहीं, पर संघ से जुड़े कार्यकत्र्ताा जरूर घर बैठ जाएंगे और भाजपा की चुनावी नाव प्रचार के दौरान ही डूब जाएगी। अगड़ी जातियों के कुछ नेता भी मुख्यमंत्री पद पर दावा ठोक रहे हैं। उनमें सबसे मजबूत दावा तो सीपी ठाकुर का होना चाहिए, लेकिन उनकी उम्र शायद उनके खिलाफ जा रही है।
सुशील कुमार मोदी को भारतीय जनता पार्टी बिहार में अपना ओबीसी चेहरा बनाकर पेश करती रही है, लेकिन तकनीकी रूप से वे ओबीसी नहीं हैं, हालंाकि बिहार की अगड़ी जातियों के लोग उन्हें ओबीसी मानकर उनके साथ ओबीसी जैसा ही व्यवहार करते रहे हैं। अगड़ी जातियों के लोग बिहार की सिर्फ 4 जातियों को छोड़कर किसी और को अगड़ा नहीं मानते। सुशील कुमार मोदी उन चार जातियों में नहीं हैं। वे व्यापारी समुदाय से आते हैं, जो अधिकांशतः ओबीसी ही हैं, लेकिन सुशील कुमार मोदी की अपनी जाति ओबीसी में नहीं है।
इसके कारण बिहार के कुछ महत्वाकांक्षी ओबीसी नेता सुशील कुमार की जगह खुद को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में देखना चाहते हैं। बिहार में ओबीसी और एमबीसी (अति पिछड़ा वर्ग) का विभाजन 1978 से ही है, लेकिन यह विभाजन सिर्फ आरक्षण पाने के लिए है। राजनैतिक दृष्टि से वहां ओबीसी और एमबीसी को कोई बड़ा विभाजन नहीं है। इसका कारण यह है कि कर्पूरी ठाकुर एमबीसी थे, लेकिन वे ओबीसी और एमबीसी दोनों के सर्वमान्य नेता थे। अपने उत्कर्ष काल में लालू यादव भी इन दोनों वर्ग समूहों के नेता हुआ करते थे। नीतीश कुमार ने इसे राजनैतिक रूप से विभाजित करने की कोशिश जरूर की, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। राजनैतिक दृष्टिकोण से ओबीसी और एमबीसी अभी भी एक ही तरह से सोचते हैं। यदि कोई विभाजन है, तो वहां खेतिहर और गैर खेतिहर ओबीसी के बीच है। ओबीसी की तीन खेतिहर जातियों का ज्यादा सशक्तिकरण पिछले 24 सालों में हुआ है, इसके कारण अन्य ओबीसी जातियों में उनसे राजनैतिक दुराव पैदा हो गया है।
इस दुराव को देखते हुए बिहार में मुख्यमंत्री पद का सबसे बेहतर उम्मीदवार तो प्रेम कुमार हो सकते हैं। वे दावा कर भी रहे हैं। वे नीतीश सरकार में मंत्री भी रहे हैं और एक कामयाब मंत्री की उनकी छवि भी है। वे गैर खेतिहर ओबीसी हैं। एमबीसी कैटिगरी में भी हैं और उनके कारण नीतीश कुमार द्वारा ओबीसी- एमबीसी विभाजन को विफल करने की क्षमता भी रखते हैं।
एक सबसे मुखर दावेदार शत्रुघ्न सिन्हा हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में अपना दावा खुलकर पेश किया है और पार्टी नेतृत्व से कह रहे हैं कि वह अभी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दे। बिहार की जातिवादी राजनीति में शत्रुघ्न सिन्हा भारतीय जनता पार्टी को कामयाब बना सकते हैं। वैसे वे तो हैं अगड़ी जाति के, लेकिन उनकी जाति की स्वीकार्यता ओबीसी और दलितों में आमतौर पर बनी रही है। शत्रुघ्न सिन्हा बिहार भाजपा नेताओं में सबसे वरिष्ठ भी हैं और 1977 से ही कांग्रेस विरोधी पार्टियों के लिए चुनाव प्रचार करते रहे हैं।
महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव बिना किसी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार पेश किए बिना ही जीत दर्ज करने के बाद क्या बिहार में भाजपा किसी को उम्मीदवार बनाना पसंद करेगी? यह सवाल खड़ा होना लाजिमी है। जाहिर है, अब किसी को मुख्यमंत्री घोषित किया जाना ही संदिग्ध हो गया है। (संवाद)
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बिहार भाजपा में नेतृत्व की लड़ाई
अब मुख्यमंत्री उम्मीदवार शायद ही घोषित हो
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-10-27 12:56
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही बिहार प्रदेश भाजपा में अगला मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनने के लिए होड़ लगी हुई है। चूंकि सुशील कुमार मोदी नीतीश सरकार में उपमुख्यमंत्री थे और भाजपा विधायक मंडल का नेता भी वही हैं, इसलिए वे इस बात को लेकर निश्चिंत थे कि उन्हें ही मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाएगा और पार्टी के सत्ता में आने की नौबत में वे ही बिहार के मुख्यमंत्री होंगे।