कांग्रेस की मंशा जो भी रही हो, आम आदमी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को ही नुकसान पहुंचाया और उसने मोदी विरोधी मतों का ही विभाजन करवाया। लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस यदि चाहती, तो एक बार फिर केजरीवाल की सरकार बनवा सकती थी, क्योंकि दोनों पार्टियों को मिलाकर सरकार बनाने लायक बहुमत हो जाता था, लेकिन लोकसभा चुनाव में बुरी तरह मात खाई कांग्रेस को केजरीवाल का एक बार और समर्थन करने की हिम्मत नहीं हुई। कांग्रेस द्वारा केजरीवाल को दिल्ली का एक बार फिर मुख्यमंत्री बनाना उसके लिए आत्मघाती होता, क्योंकि दिल्ली में अपनी सरकार की बदौलत केजरीवाल अन्य राज्यों के कांग्रेसियों को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकते थे और उसके कारण कांग्रेस की समाप्ति की रफ्तार और भी तेज हो जाती।

मोदी सरकार के गठन के बाद दिल्ली विधानसभा भंग कर जल्द से जल्द चुनाव करवाना भारतीय जनता पार्टी की प्राथमिकता होनी चाहिए थी। सातों लोकसभा सीटों पर जीतने के साथ साथ दिल्ली विधानसभा की 70 में से 60 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारों ने ही बढ़त हासिल की थी। शेष अन्य 10 सीटों पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अन्य उम्मीदवारों से आगे थे। जाहिर है कि यदि दिल्ली में मोदी सरकार ने तुरंत चुनाव करवाए होते, तो सरकार भाजपा की ही बनती। 60 नहीं तो 50 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जीत हो ही जाती। लेकिन दिल्ली के भाजपा विधायकों ने किसी तरह सरकार बनाने के लिए पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। कभी आम आदमी पार्टी से दलबदल या इस्तीफा करवाकर तो कभी कांग्रेस से दलबदल करवाकर सरकार बनाने के सपने दिल्ली के भाजपा ईकाई देखती रही। लेकिन आम आदमी पार्टी के विधायक बिकाऊ नहीं निकले। कांग्रेस के 8 विधायकों की प्ष्ठभूमि ऐसी थी कि उनमें भी तोड़फोड़ की कोई गंुजायश नहीं थी। लिहाजा बिना चुनाव के अपनी सरकार बनाने का दिल्ली भाजपा का सपना सपना ही बना रहा। समय बीतते रहे और उपचुनावों में हार के बाद भाजपा को लगने लगा कि वह अब दिल्ली में चुनाव होने की नौबत में यहां हार भी सकती है।

यही कारण है कि सरकार बनाने में असमर्थ होने के बाद भी भाजपा ने महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ दिल्ली विधानसभा का चुनाव नहीं करवाया। दोनों राज्यों में जीत हासिल करने के बाद झारखंड व जम्मू और कश्मीर के चुनावों के साथ दिल्ली में भी चुनाव करवाए जा सकते थे, लेकिन इसे और टालना ही भाजपा ने उचित समझा। लगता है कि भाजपा दिल्ली में अपने प्रदर्शन को लेकर बहुत आशान्वित नहीं है। इसका एक कारण कां्रग्रेस का लगातार कमजोर होते जाना भी है। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 21 फीसदी वोट मिले थे, जबकि आम आदमी पार्टी को 29 दशमलव 5 फीसदी मत मिले थे। भारतीय जनता पार्टी को 33 फीसदी मत मिले थे। एक तथ्य यह भी है कि मुसलमानों ने तब आम आदमी पार्टी को वोट नहीं डाले थे। इस बार भाजपा को शायद इस बात का खतरा लग रहा है कि कहीं मुस्लिम मतदाता पूरी तरह आम आदमी पार्टी की ओर झुक न जाय। वैसी स्थिति आम आदमी पार्टी का वोट प्रतिशत 10 फीसदी और भी बढ़ सकता है। पिछले विधानसभा में आम आदमी पार्टी को जिन लोगों ने वोट डाले थे, वे इस बार केजरीवाल के लिए वोट क्यों नहीं डालेंगे, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। दिल्ली का आम आदमी अभी भी केजरवाल के उन 49 दिनों की सरकार की याद करते हुए कहता है कि उस समय भ्रष्ट सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भयभीत थे। हां, मोदी से टकराने के लिए दिल्ली सरकार छोड़ने के फैसले को आम आदमी पार्टी के समर्थक मतदाताओं ने भी पसंद नहीं किया, लेकिन वे एक बार फिर केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनने का मौका नहीं देंगे, इसका कारण कोई नहीं बता सकता।

लोकसभा चुनाव में केजरीवाल की प्रतिष्ठा तार तार हो चुकी है। ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का उसका फैसला उसे जबर्दस्त हानि पहुंचा चुका है। लोकप्रियता के शिखर पर बैठे नरेन्द्र मोदी से टकराने के कारण अरविंद केजरीवाल का तेज भी कमजोर हो चुका है। अनेक कैरियरिस्ट और अवसरवादी तत्वों को पार्टी मे घुसाकर केजरीवाल ने तो आम आदमी की गलत परिभाषा देना ही शुरू कर दिया था। इसे भी पसंद नहीं किया गया। अब केजरीवाल को उन गलतियों से सीख लेकर अपने को फिर से स्थापित करने का वक्त आ गया है।

अंग्रेजी में एक कहावत है आदमी को अपने मुह में उतना ही बड़ा कौर डालना चाहिए, जितना वह चबा सके। केजरीवाल ने इस सीख को मानने से इनकार करते हुए, बडे बड़े कौर अपने मुह में लेे रहे थे। आम आदमी पर खास आदमी को थोपने का अंजाम वे देख चुके हैं। पता नहीं, वे दिल्ली विधानसभा के चुनाव में सफल होंगे या विफल, लेकिन उन्हें भारतीय राजनीति में एक बार फिर वापसी करने का मौका मिल गया है। (संवाद)