लेकिन इन घटनाक्रमों के बीच शिवसेना और उसके प्रमुख उद्धव ठाकरे की राजनीति बहुत ही दयनीय लग रही है। शिवसेना ब्लैकमेल की राजनीति करती रही है। अपने गठन के साथ ही उसने यह काम शुरू कर दिया था। किसी के खिलाफ आंदोलन चलानाए उसे नुकसान करना और फिर उसके साथ सौदेबाजी करके आंदोलन को समाप्त कर देना बाल ठाकरे के नेतृत्व वाले शिवसेना के काम करने का तरीका यही था। उनके पुत्र उद्धव ठाकरे अपने पिता के पद चिन्हों पर ही चलने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी समस्या यह है कि वे न तो अपने पिता की तरह ताकतवर हैं और न ही उनके जैसी राजनैतिक समझ है। बाल ठाकरे एक कार्टूनिस्ट थे और कार्टूनिस्ट की एक गहरी राजनैतिक समझ लेकर ही वे राजनीति में आए थे। पर उद्धव को शिवसेना विरासत में मिली है और वह शुरू से इसके साथ जुड़े हुए भी नहीं थे। अनेक नेताओं को किनारे लगाकर बाल ठाकरे ने शिवसेना उद्धव को सौंप दी थी।

उद्धव की राजनैतिक नासमझी का नुकसान शिवसेना को हो रहा है। चुनाव के पहले जिस तरह की सौदेबाजी वह कर रहे थे, उसकी शैली तो बाल ठाकरे वाली ही थी, लेकिन बाल ठाकरे ज्यादा से ज्यादा दबाव डालकर ज्यादा से ज्यादा हासिल करके समझौता करने वाले व्यक्ति थे। यदि उद्धव ने अपने पिता से सीखा होता तो 5 सीट कम पर लड़ने को तैयार होकर भाजपा के साथ समझौता कर लेते और फायदे में रहते। लेकिन लगता है कि किसी अंधविश्वास के तहत उन्होंने 151 सीट से कम पर चुनाव लड़ने की किसी संभावना पर बात करने तक से मना कर दिया और इसका दंड उनकी शिवसेना को भुगतना पड़ रहा है।

मतगणना के दौरान जब यह लगने लगा कि भाजपा को 110 से कम सीटें ही आने वाली है और एनसीपी को शायद 30 सीटें भी नहीं आए, तो उन्होंने भाजपा के समर्थन से शिवसेना के मुख्यमंत्री बनने का दावा भी दबे स्वर में करना शुरू कर दिया। बहरहाल भाजपा को 123 सीटें मिलीं, जो उनकी शिवसेना की सीटों से लगभग दूनी थी, तब उन्होंने मुख्यमंत्री पद पर तो दावा छोड़ दिया, लेकिन उपमुख्यमंत्री और बराबर की संख्या में मंत्रालयों की मांग कर दी। जब आपके विधायकों की संख्या आधी हो, तो आधी सीटो से ज्यादा मांगने का कोई तुक नहीं था। पहले की गठबंधन सरकार में भाजपा और शिवसेना ने बराबर बराबर संख्या में मंत्री रखे थे, लेकिन तब दोनों के विधायको की संख्या में इतना अंतर नहीं था और दोनों गठबंधन के तहत ही चुनाव लड़े थे।

भाजपा से सौदेबाजी करने के पहले उद्धव को भाजपा नेताओं की मनोदशा और उसे मिल रहे एनसीपी के समर्थन को ध्यान में रखना चाहिए था। चुनाव प्रचार के दौरान उद्धव ने खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चाय वाला कहकर मजाक उड़ाया था। वे कहा करते थे कि यदि एक चायवाला देश का प्रधानमंत्री बन सकता है, तो वे मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकते। उनकी अखबार में छपे एक लेख में तो यहां तक कह दिया गया था कि लोकसभा में जीत उद्धव के कारण हुई और नरेन्द्र मोदी के बाप दामोदर दास मोदी भी भाजपा को महाराष्ट्र में जिता नहीं सकते थे। इस तरह की बयानबाजी के बाद उद्धव को यह क्यों समझ में नहीं आई कि भाजपा उनके समर्थन के बिना भी सरकार बना सकती है और यदि उन्हें भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनानी है, तो अपनी तरफ से शर्ते डालना बंद करें।

अगर उद्धव राजनैतिक रूप से परिपक्व होते तो चुनाव नतीजा आते ही विपक्ष में बैठने की घोषणा कर देते और उनकी पार्टी को अपने साथ लाने की पहल का जिम्मा भारतीय जनता पार्टी पर ही छोड़ देते। लेकिन सत्ता उनके लिए जरूरी थी। भाजपा का सहयोग कुछ नगर निगमों पर अपने कब्जे को बनाए रखने के लिए भी जरूरी था। लेकिन नगर निगमों पर कब्जे को तो नरेन्द्र मोदी सरकार में अपनी शिरकत बनाए रखकर भी बचाया जा सकता था। पर उन्हें लगा कि महाराष्ट्र की सरकार में शामिल होना जरूरी है। उसमें शामिल होकर उपमुख्यमंत्री का पद पाना भी जरूरी है और अच्छे अच्छे मंत्रालय पाने भ्ी जरूरी है। सत्ता का लोभ और राजनैतिक समझ की कमी ने उद्धव और उनकी शिवसेना को मजाक का पात्र बना दिया है। जात भी गंवाए और भात भी न खाए वाली कहावत आज उन पर चरितार्थ हो रही है। आखिरकार उन्हें विपक्ष में बैठना पड़ रहा है।

सवाल उठता है कि भाजपा की यह सरकार कितनी स्थाई होगी? यह एक अल्पमत सरकार है और अपने अस्तित्व के लिए एनसीपी के समर्थन पर आश्रित है। एनसीपी के नेताओं पर भ्रष्टाचार के बड़े बडे आरोप हैं, जाहिर है एनसीपी पर सरकार की निर्भरता भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने की इजाजत नहीं देगी। भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने से भाजपा की छवि खराब होगी। इसलिए उसकी कोशिश रहेगी कि किसी तरह वह बहुमत का आंकड़ा हासिल करे और इसके लिए शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के कुछ विधायकों से वह इस्तीफा भी करवा सकती है और उन्हें अपनी पार्टी से चुनाव लड़ाकर विधानसभा में अपनी संख्या बढाने की कोशिश कर सकती है। एनसीपी चूंकि सरकार का बाहर से समर्थन कर रही है, इसलिए भाजपा उसके विधायकों पर हाथ डालने से परहेज रखेगी और शिवसेना के विधायक ही उसके मुख्य निशाना होंगे। उद्धव की अपरिपक्व राजनीति उसके महात्वाकांक्षी विधायकों को भाजपा में शामिल होने के लिए प्रेरित भी कर सकते हैं। शिवसेना में बाल ठाकरे के समय से ही पार्टी छोड़ने का सिलसिला बना हुआ है और यह सिलसिला अब जोर पकड़ सकता है। शिवसेना के नेता सुरेश प्रभु को पार्टी में मिलाकर केन्द्र मे रेलमंत्री बनाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसका संकेत भी दे दिया है। (संवाद)