हमारे देश की यही समस्या है। यह हमारे देश की ही नहीं, बल्कि लगभग सभी विकासशील देशो की समस्या है। गन्दगी का सम्बन्ध गरीबी से भी है। लेकिन भारत में गन्दगी का एक सामाजिक आयाम भी है और वह आयाम जाति व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। जाति व्यवस्था के तहत सार्वजनिक स्थलों की सफाई का जिम्मा एक जाति विशेष को दे दिया गया था। यह जाति अलग अलग नामों से भारत के अलग अलग क्षेत्रों में जानी जाती रही है। और जिस जाति को सार्वजनिक सफाई का जिम्मा दिया गया है, उसको समाज में सबसे निचले स्तर पर रख दिया गया। उसे अस्पृश्यता का भी शिकार बना दिया गया।

अब अस्पृश्यता को असंवैधानिक और गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है, लेकिन जाति व्यवस्था के तहत समाज की मुख्यधारा के जो संस्कार बने हैं, वे जल्द समाप्त होने वाले नहीं हैं। भारत में गन्दगी इस संस्कार का परिणाम भी है। इसके कारण लोग तो अपने घरों को साफ रखते हैं, लेकिन घर के बाहर गन्दगी फैला देते हैं। बाहर की सफाई रखना वे अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते। वहाँ की गन्दगी हटाना भी कई लोगों को नागवार लगता है, क्योंकि उसे लगता है कि कहीं वह कोई ऐसा काम तो नहीं कर रहा है, जो उसका नहीं, बल्कि किसी और जाति के लोगों के लिए तय किया हुआ है।

जाति मूल रूप से एक सामंती व्यवस्था है। समाज में एक से ज्यादा सामाजिक समूह तो हमेशा रहे हैं, लेकिन उनमें ऊंच नीच की भावना सामंतकाल की उपज है। भारत में जाति व्यवस्था एक सामंती व्यवस्था ही है, जिसके तहत श्रम की निर्बाध उपलब्धता का प्रबन्ध कर लिया गया है। यह सामंतकालीन गुलामी की व्यवस्था है। सामंती मानसिकता के लोग अपने घर के बाहर का क्या, अपने घर के अन्दर की सफाई भी नहीं करते, क्योंकि सफाई करना या न करना सीधे सत्ता से जुड़ा हुआ है। जो सत्ता की कुर्सी पर बैठा हुआ है, वह सफाई कैसे कर सकता है, क्योंकि सफाई करना तो गुलामों का काम है। और कौन यह दिखाना चाहेगा कि वह गुलाम है।

अब सामंतवाद समाप्त हो गया। हमने लोकतंत्र अपना लिया है। छुआछूत को भी कानूनी तौर पर समाप्त कर दिया गया है। समाप्त करने का मतलब है कि आजादी के पहले इसे कानूनी संरक्षण भी मिला हुआ था। कानून का संरक्षण समाप्त होने के बाद भी यह तो दिमाग में बैठ ही गया है कि बाहर में सफाई करते दिखने से अपना छोटापन दिखाई पड़ेगा, इसलिए कोई क्यों बाहर सफाई करेगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने झाड़ू उठाकर इसी सामंतवादी संस्कार पर प्रहार किया है। झाड़ू से उन्होंने तो दिल्ली के एक इलाके में कुछ वर्गगज की जमीन ही साफ की, लेकिन उन्होंने झाड़ू उठाकर देश भर के सामंती लोगों के सामंती संस्कार पर हमला बोल दिया है। प्रधानमंती ने खुद ही झाड़ू नहीं उठाए, बल्कि उनकी सरकार के अन्य मंत्रियों और पार्टी के अन्य सांसदों ने भी झाड़ू उठाए, उन्होंने समाज के अन्य तबके के लोगों को भी प्रेरित किया और कुछ लोगों को तो सफाई करने के लिए नामांकित भी कर दिया और इस तरह एक राष्ट्व्यापी सफाई अभियान शुरू हो गया।

हमारे योग शास्त्रों में शौच यानी सफाई को योग साधना का एक अनिवार्य सोपान माना गया है। पतंजलि योग सूत्र हो या हठयोग प्रदीपिका शौच को अष्टांग योग के दूसरे अंग नियम में रखा गया है। अपनी सफाई, अपने घर की सफाई और अपने आसपास के माहौल की सफाई को सुनिश्चित करना योगी के लिए आवश्यक माना जाता है। लेकिन हमारे देश में सफाई के प्रति लापरवाही का जो मंजर देखने मिलता है, वह हमारे योगशास्त्र की सीख का माखौल उड़ाते दिखता है।

प्रधानमंत्री द्वारा सफाई में खुद झाड़ू उठा लेना अपने आपमें एक बड़ी घटना है। इससे देश के सफाई कर्मियों का ही सम्मान नहीं बढ़ता, बल्कि सभी प्रकार के श्रम के प्रति सम्मान बढ़ता है। सामंतवादी जाति व्यवस्था के तहत न केवल श्रम और श्रमिकों का शोषण होता है, बल्कि उन्हें जलालत का भी सामना करना पड़ता है। यही कारण है कि हमारे देश की श्रम लांक्षित हैं और इसके कारण कार्य संस्कृति का देश में अभाव है।

आजादी के पहले महात्मा गांधी ने इस हकीकत को समझा था। यही कारण है कि उन्होंने खुद अपने हाथों में झाड़ू उठा लिया था. गांधीजी तो 7 महीने तक सफाई कर्मियों के मुहल्ले में रहे भी थे। गांधी जी ने आजादी के पहले झाड़ू उठाकर जो किया, वही प्रधानमंत्री आज कर रहे हैं। उस समय गांधीजी का झाड़ू उठाना सफाई करने से ज्यादा सफाईकर्मियों की दशा की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करना था। उसमें वे बहुत हद तक सफल भी हुए। सफाई कर्मियों को जाति व्यवस्था की जहालत से निकालने की एक मुहिम देश में शुरू हुई। समस्या तो समाप्त नहीं हुई, लेकिन उस समस्या को समस्या के रूप में जरूर देखा जाने लगा।

प्रधानमंत्री द्वारा शुरू किया गया सफाई अभियान सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं है, बल्कि इसके साथ साथ सफाई का उद्देश्य भी सामने है। 2019 के 2 अक्टूबर को गांधी जी की 150वीं जयंती मनाई जाएगी। उस समय तक देश को पूरी तरह साफ करने का लक्ष्य है और देश के सभी घरों में शौचालय सुनिश्चित करने का भी लक्ष्य है।

जाहिर है, सफाई दोनो ओर होनी है। सड़कों व अन्य सार्वजनिक स्थलों की सफाई होनी है और यदि सभी लोग अपने को सफाई कर्मी भी समझने लगें, तो फिर वे गन्दगी फैलाने से भी बाज आने लगेंगे। क्योंकि यदि व्यक्ति को पता चल जाय कि जो गन्दगी वह फैला रहा है, उसकी सफाई भी उसे ही करनी है, तो गन्दगी फैलाने में वह जरूर झिझकेगा।

यह तो हुई बाहर की गन्दगी। अपने अन्दर की जाति व्यवस्था जनित गन्दगी की भी व्यक्ति सफाई कर रहा होगा। इससे जाति व्यवस्था समाप्त तो नहीं होगी, लेकिन वह जिस सामंतवादी संस्कारों के आधार पर खड़ी है, वह आधार जरूर कमजोर होगा। बाबा साहिब डाक्टर भीमराव अम्बेडकर जाति व्यवस्था का पूरी तरह सफाया चाहते थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह सफाई अभियान, जिसके तहत सत्ता के ऊंचे पदों पर बैठे लोग भी इस अभियान में शामिल हैं, सामंतवादी संस्कार पर झाड़ू फेरने का काम कर रहा है। और फिर सामंतवादी संस्कारों पर आधारित जातिवादी व्यवस्था की भी इससे सफाई होनी सुनिश्चित है। (संवाद)