प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथग्रहण समारोह में जब बांग्लादेश की स्पीकर दिल्ली आई थीं, तो उन्होंने इस मसले का भारतीय प्रधानमंत्री के साथ बातचीत में उठाया था। यह अच्छी बात है कि अभी हाल ही में असम में दिए गए एक भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बांग्लादेश के साथ जमीन की अदलाबदली की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की बात की। वैसे अबतक उनकी भारतीय जनता पार्टी इस अदलाबदली का विरोध करती रही है।

यह समस्या ब्रिटिश राज के पहले से दो राजघरानों के बीच के संबंधों के परिणाम है। रंगपुर और कूच बिहार के प्रशासकों जमाने के समय से ही यह चला आ रहा है। उस समय यह कोई समस्या नहीं थी। कूच बिहार के राजा रंगपुर के इलाकों से मजूदर लाने की इजाजत दिया करते थे और जिन गांवों से मजदूर लाए जाते थे, उनके लोेग कूच बिहार की प्रजा थे। उसी तरह रंगपुर के फौजदार ने कूच बिहार के क्षेत्र में पड़ने वाले कुछ गांवों को अपना मान लिया था और इस पर कूच बिहार के राजा को कोई आपत्ति नहीं थी।

ब्रिटिश काल में भी कोई समस्या नहीं आई, क्योंकि दोनों ब्रिटिश शासको के मातहत ही थे, पर देश की आजादी और विभाजन के कारण समस्याएं पैदा होने लगी। 111 गांव, जो पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में पड़ते थे, कूच बिहार का हिस्सा होने के कारण भारत का हिस्सा बन गए, जबकि भारतीय इलाके के 51 गांव, जो भारत के इलाके में थे, बांग्लादेश के हिस्सा हो गए। इसके कारण इन 161 गांवों के लोगों की स्थिति विचित्र हो गई। वे उस देश के वासी थे, जिसके अंदर भौगोलिक रूप से वे निवास नहीं कर रहे थे। इसके कारण सीमा के सीमांकन की भी समस्या हो रही थी।

1971 में बांग्लादेश का गठन हुआ। भारत के साथ नवगठित देश के साथ अच्छे संबंध थे। दोनों देशों ने गांवों की अदलाबदली का फैसला 1974 में ही कर लिया। इसे लेकर एक सहमति हुई, जिसके तहत बांग्लादेश के इलाके में पड़ने वाले 111 भारतीय गांवा बांग्लादेश को दे दिए जाने थे और भारत के इलाके में पड़ने वाले बांग्लादेशी गांव भारत के हो जाने थे। इसके तहत 17,158 एकड़ जमीन भारत बांग्लादेश को सौंपेगा और बदले में भारत बांग्लादेश से 7110 एकड़ जमीन प्राप्त करेगा।

बांग्लादेश की संसद ने 1974 की उस सहमति पर अपनी स्वीकृति दे डाली, पर भारत की संसद में अभी तक वैसा नहीं हो सका है। इसका कारण यह है भारत में इस सहमति का राजनैतिक विरोध होता है और सबसे ज्यादा विरोध भारतीय जनता पार्टी ही करती रही है। उसका कहना है कि भारत बांग्लादेश को जितनी जमीन देने वाला है, उससे कम पाने वाला है। इसलिए यह गैरबराबरी की सहमति है। पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस भी इसका विरोध करती है। भारत के जो गांव बांग्लादेश को दिए जाएंगे, वे असम, मेघालय, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में पड़ते हैं और बांग्लादेश से जो गांव भारत में आएंगे, वे सभी पश्चिम बंगाल में होंगे।

2011 में मनमोहन सिंह की सरकार ने 1974 की सहमति का अमली जामा पहनाने के लिए एक प्रोटोकाल तैयार किया था। संसद में एक विधेयक भी पिछली सरकार ने ही पेश किया था, जिस पर संसद की एक स्थाई समिति विचार कर रही थी। उस समित के अध्यक्ष शशि थरूर हैं। उस समिति ने निर्विरोध विधेयक के पक्ष में फैसला किया है। अब उस विधेयक को दोनों सदनों द्वारा पारित कराया जाना है। चूंकि वह पिछली कांग्रेस सरकार द्वारा तैयार किया गा विधेयक है, इसलिए कांग्रेस तो उसका विरोध कर नहीं सकती और नरेन्द्र मोदी ने उस सहमति का अपनी स्वीकृति दे दी है, इसलिए संसद से इसे पारित कराना कठिन नहीं होना चाहिए। ममता बनर्जी इसका विरोध कर सकती हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि उनका कौन लोग समर्थन करते हैं और कांग्रेस भी कोई राजनीति करने लगती है या नहीं।

यदि अदलाबदली का यह काम सफलता पूर्वक संपन्न हो जाता है, तो दोनों देशों के बीच रिश्तों की गर्माहट और बढ़ जाएगी। (संवाद)